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Essay by Rohit Manchanda
Volume 4 | Issue 8 [December 2024]

Drives, Darkness, Coalsmoke: Food in the Jharia Coalfields of the 1970s
Volume 4 | Issue 8 | December 2024]
I live in Powai, a Mumbai precinct which of late has become a hotspot for the city’s eaters-out. It’s dotted with restaurants – over fifty of them – and they all lie within five-odd kilometres from where I live. A large fleet of cuisines is represented, among them far Eastern, South Asian, ‘continental,’ North and South American. And then there are the places that, via the likes of Zomato, send food home, with the upshot that when my wife’s or my thoughts turn to having baahar ka khana, we end up feeling a bit befuddled – for surfeit of…

अंधेरे में ड्राइव और कोयले का धुआँ 1970 के दशक में झरिया के कोयला क्षेत्रों का खाना
Volume 4 | Issue 8 | December 2024]
मैं मुम्बई के पवई इलाके़ में रहता हूँ, जो खाने-पीने के शौक़ीन शहरवासियों का हालिया पसंदीदा ठिकाना बन गया है। यहाँ रेस्तरां की भरमार है—पचास से ज़्यादा ही होंगे—और ये सब मेरे घर से पाँच किलोमीटर के दायरे में हैं। यहाँ हर तरह के खाने का स्वाद मिल जाता है, जिनमें सुदूर पूर्व, दक्षिण एशियाई, कॉन्टिनेंटल, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के खान-पान शामिल हैं। इनके अलावा, वे जगहें भी हैं, जो ज़ोमैटो जैसी सेवाओं के ज़रिए घर तक खाना पहुँचाती हैं। नतीजा ये होता है कि जब कभी मैं या मेरी पत्नी बाहर का खाना खाने के बारे में सोचते हैं, तो इतने सारे विकल्प देखकर उलझन में पड़ जाते हैं। आज का पवई 1990 के दशक की शुरुआत वाले पवई से बिल्कुल अलग है। तब यहाँ गिनती के पाँच-छह रेस्तरां हुआ करते थे…

प्रवास, अंधार आणि कोळशाचा धूर : १९७०च्या दशकात झरिआ कोळसा-खाणींमध्ये मिळणारं अन्न
Volume 4 | Issue 8 | December 2024]
मी पवईत राहतो. मुंबईच्या एका टोकावर असणारा हा भाग आता शहरातील खवय्यांचं एक केंद्र झाला आहे. मी राहतो त्या भागापासून पाचेक किलोमीटरच्या पट्ट्यात पन्नासहून अधिक रेस्टॉरन्ट आहेत. या उपहारगृहांमध्ये एशियन, साउथ एशियन, ‘कॉन्टिनेन्टल’, नॉर्थ अमेरिकन आणि साउथ अमेरिकन अशा वैविध्यपूर्ण पाकपरंपरांचे पदार्थ मिळतात. शिवाय, झोमॅटोसारख्या मध्यस्थांच्या माध्यमातून घरपोच खाद्यपदार्थ पुरवणारी ठिकाणंही आहेत. या सगळ्याचा परिणाम असा होतो की, माझ्या बायकोला किंवा मला ‘बाहेरचं कायतरी खाऊया’ असं वाटतं तेव्हा समोर पर्यायांची अतिरेकी रीघ असते, त्यामुळे गोंधळात पडायला होतं. आजचं पवई उपनगर १९९०च्या दशकारंभीच्या …