अनुवाद : गीत चतुर्वेदी | चित्र – अभिषेक झा
मैं मुम्बई के पवई इलाके़ में रहता हूँ, जो खाने-पीने के शौक़ीन शहरवासियों का हालिया पसंदीदा ठिकाना बन गया है। यहाँ रेस्तरां की भरमार है—पचास से ज़्यादा ही होंगे—और ये सब मेरे घर से पाँच किलोमीटर के दायरे में हैं। यहाँ हर तरह के खाने का स्वाद मिल जाता है, जिनमें सुदूर पूर्व, दक्षिण एशियाई, कॉन्टिनेंटल, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के खान-पान शामिल हैं। इनके अलावा, वे जगहें भी हैं, जो ज़ोमैटो जैसी सेवाओं के ज़रिए घर तक खाना पहुँचाती हैं। नतीजा ये होता है कि जब कभी मैं या मेरी पत्नी बाहर का खाना खाने के बारे में सोचते हैं, तो इतने सारे विकल्प देखकर उलझन में पड़ जाते हैं। आज का पवई 1990 के दशक की शुरुआत वाले पवई से बिल्कुल अलग है। तब यहाँ गिनती के पाँच-छह रेस्तरां हुआ करते थे—सब के सब देसी—और न ज़ोमैटो था न स्विगी, जो सड़कों पर फर्राटे-से दौड़ते हुए ऑर्डर पहुँचा सकें।
यह सब किसी सपने जैसा लगता है, और तब तो कुछ ज़्यादा ही अवास्तविक महसूस होता है, जब मैं इसकी तुलना झारखंड (तब दक्षिणी बिहार) के झरिया कोलफील्ड्स से करता हूँ, जहाँ 1970 के दशक के मध्य में मेरा बचपन बीता था। तब वहाँ हमारे आसपास कुल दो रेस्तरां हुआ करते थे। ‘आसपास’ कहना ग़लत होगा क्योंकि पवई के पचास रेस्तरां तो पाँच किलोमीटर के दायरे के भीतर ही हैं, जबकि उन कोलफील्ड्स के दो रेस्तरां में से एक, 16 किलोमीटर और दूसरा 34 किलोमीटर दूर था—इतनी तो मुम्बई की पूरी लम्बाई है।
मैंने अपनी बात की शुरुआत रेस्तरां से की है, उनके कम-ज़्यादा होने से की है, क्योंकि जब किसी ख़ास व्यंजन का स्वाद लेने का ख़्याल दिल में आता है, तब सबसे आसान तरीक़ा यही होता है कि उस रेस्तरां में जाया जाए, जहाँ वह व्यंजन मिलता है—आधुनिक शहरी जीवन की सहज आदत तो यही है। लेकिन मैं कोलफील्ड के जिस इलाक़े, जिस दौर की बात कर रहा हूँ, जब रेस्तरां इतने कम थे कि किसी को अपने क्षेत्र से अलग किसी अन्य क्षेत्र के भोजन का स्वाद लेना हो, तो कैसे संभव होता? अन्य क्षेत्रों की बात छोड़िए (मेरा परिवार पंजाब से आया ‘प्रवासी परिवार’ था), जिस क्षेत्र में हम रहते थे, यानी बिहार, उसी के विविध व्यंजनों का स्वाद लेना चाहें, तो? इसका जवाब एकदम सीधा हैः दूसरों के घरों में खाना खाकर ही यह संभव था। और कुछ ख़ास तरह के व्यंजनों का स्वाद लेने के लिए ख़ासा इंतज़ार करना पड़ता था—कई बार तो संतों जैसा सब्र करते हुए इंतज़ार—किसी के यहाँ शादी-त्योहार पड़ जाए, तो उसके यहाँ से एक अदद न्यौते का इंतज़ार, क्योंकि वे ख़ास व्यंजन तो ख़ास मौक़ों पर ही बन सकते थे।
तुर्रा यह कि रेस्तरां तक पहुँचना दूर की बात, दूसरे लोगों के जो मुट्ठी-भर मकान थे, वहाँ तक पहुँचना भी कोई आसान काम नहीं था। मैं अमलाबाद नाम की एक छोटी-सी कोयला-खनन बस्ती में बड़ा हुआ। दामोदर नदी घाटी के एक किनारे बसे, अमलाबाद की एक बदक़िस्मत ख़ासियत यह थी कि नदी के इस छोर पर उसके अलावा मीलों तक न कोई क़स्बा था, न कोई बस्ती। जिसे ‘जंगल के पार’ और ‘निर्जन एकांत’ जैसे मुहावरों से दर्शाया जा सकता हो, हम उस स्थिति को बाक़ायदा जीते थे। परिचित लोगों के घर जाने के लिए चार चरणों की यात्रा करनी पड़ती थी- पहले जीप से दामोदर नदी तक जाना, फिर नाव से नदी पार करना (क्योंकि वहाँ पुल नहीं था), उसके बाद घाटी के दूसरी ओर चढ़ाई करना जहाँ एक गैराज था, और उसमें खड़ी होती थी हमारी छोटी-सी, ढीली-ढाली फिएट। फिर उस कार में कुछ किलोमीटर के वीरान कच्चे रास्ते पर चलते हुए पक्की सड़क तक पहुँचना, और फिर वहाँ से उस घर तक जाना, जहाँ से न्यौता आया हो, भले वह कितना ही दूर क्यों न हो। मेरी माँ अक्सर आकाश की ओर देखते हुए कहती थीं, “बाबा रे, चाहे छोटा काम हो या बड़ा, जैसे किसी अभियान पर निकलना पड़ता है। इन लोगों को कोयला, नदी के उसी पार क्यों मिला, और वह भी महज़ एक जगह?”
अब, अमलाबाद और उसके जैसे अन्य स्थान, जो दूर-दराज़ और अलग-थलग थे, ऐसे लग सकते थे, जैसे वे बंद दुनिया वाले, संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त हों, अपनी प्राचीन परंपराओं में डूबे हुए। लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे हैरानी होती है कि वे कोयला कॉलोनियाँ इस बात के बिल्कुल उलट थींः वे पूरी तरह से बहुसांस्कृतिक थीं। वहाँ देशभर से आए लोग थे, जिन्हें कोयला खनन से जुड़े विभिन्न व्यवसायों ने आकर्षित किया था, और इस तरह कोयला क्षेत्र सांस्कृतिक मेल-जोल के केंद्र बन गए थे- या शायद उन्हें विशाल पिघलते हुए ‘पेट्री-डिश’ कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि वे अपने व्यापक, सपाट फैलाव के कारण किसी प्रयोगशाला की तरह लगते थे।
इन यात्राओं के पूरा होने के बाद, मुझे गुजराती, मारवाड़ी, महाराष्ट्रीयन, कश्मीरी और ‘मद्रासी’ (उस दौर की आम धारणाओं के अनुसार, विंध्य पर्वत के दक्षिण का सारा खाना इसी नाम से जाना जाता था) खानों का स्वाद लेने का अवसर मिला। और फिर, जैसा कि होना ही था, हमारे दत्तक राज्य, बिहार का भोजन! राज्य के दो मुख्य व्यंजन, जो अपनी सामग्री और पकाने की शैली के कारण अद्वितीय थे, और जिन पर पूरे राज्य को नाज़ था—लिट्टी-चोखा और सत्तू की रोटी—इन दोनों ने मुझे बहुत जल्दी अपने जादू में बाँध लिया। लिट्टी-चोखा अपनी सामग्रियों की विविधता और उनके साथ किए जा सकने वाले प्रयोगों की वजह से दिलचस्प बन जाता है। (जैसे यहाँ की दालों और उनके तड़कों में अनेक रूपांतरण किए जा सकते हैं।) उन बरसों के दौरान, हम ऐसे क़रीब दर्जन-भर बिहारी परिवारों से परिचित हुए, जिनके यहाँ से हमें खाने का न्यौता मिला। सबके यहाँ लिट्टी-चोखा अलग ढंग से तैयार होता था। कहीं लिट्टी में ख़ूब सारा सत्तू भरा होता, तो कहीं थोड़ा कम। सत्तू का स्वाद भी जगह-जगह बदला हुआ होता। कहीं लिट्टी तली हुई होती, तो कहीं अंगारों पर भूनी हुई या ‘बेक’ की हुई। कहीं चोखे में टमाटर ज़्यादा होता, तो कहीं बैंगन या आलू। और फिर लिट्टी व चोखे में सरसों के तेल का चरपरापन भी अलग होता; और अंत में डाले गए गरम घी का स्वाद भी। हालाँकि, ठंड के दिनों की किसी दोपहरी, जब हवा हल्की और ख़ुशनुमा हो, और सभी सामग्रियों का अनुपात सही हो, तो मौसम और पेट दोनों के लिए लिट्टी-चोखा तो बेहतर कुछ नहीं हो सकता।
चूँकि सत्तू का स्वाद मुझे ख़ास तौर पर भा गया था, सत्तू की रोटी मेरी मनपसंद बन गई। जब मैं चौदह साल का था, तो मेरी दो इच्छाओं का मिलन एक अद्भुत संयोग में हुआ, जिस समय हम एक बिहारी परिवार के पड़ोस में रहने लगे— दूसरी इच्छा का ताल्लुक उस परिवार की बेटी से था (मान लीजिए, उसका नाम अलका था), जो सभी को ख़ूबसूरत और आकर्षक लगती थी। पड़ोसी होने के नाते हमारे बीच व्यंजनों का आदान-प्रदान शुरू हुआः हमारे घर से उनके यहाँ पंजाबी पकवान जाते, और उनके घर से हमारे यहाँ बिहारी पकवान आते। इस आदान-प्रदान के बीच, मेरे मन में अलका के साथ मेरे लगाव-जुड़ाव के ख़याली पुलाव भी पकने लगे। लेकिन जल्द ही ये सपने चूर-चूर हो गए, क्योंकि कुछ लड़कों ने योजना बनाई कि स्कूल बस में लड़कियों की सीटों पर अलकुसी (एक पौधे से बना भयानक खुजली वाला पाउडर) छिड़का जाए और मैं उस शरारत में शामिल होने से ख़ुद को रोक नहीं पाया, सुंदर लड़कियों की सीट पर तो कुछ ख़ास उदारता के साथ पाउडर छिड़का गया था। यह शरारत घोर निंदनीय और ग़लत थी, और इसे शायद तभी समझा जा सकता है, जब हम उस समय और जगह की ख़ासियत को जानते हों। यह कारनामा करने के लिए हमने जितने जतन किए थे, जिनके परिणामस्वरूप लड़कियों के पैरों में खुजली वाले लाल चकत्ते हो गए थे, कि उसके बाद अलका की माँ ने हमें बुलाया और जो डाँट लगाई कि क्या कहें, अपने घर के चबूतरे पर खड़ी वह किसी मूर्ति की तरह हम पर छाई हुई थीं, हम आठ लड़के नीचे कंकरीली ज़मीन पर घण्टे-भर तक दुबककर खड़े रहे, जैसे उनकी घूरती निगाहों और तीखी ज़ुबान (‘क्या तुम चाहते हो कि ऐसा तुम्हारी माँ के साथ किया जाए? तुम्हारे साथ मैं करूँ ऐसा?’) से ही नहीं, बल्कि कुछ देर बाद मिलने वाली, अपने माता-पिता की डाँट के ख़ौफ़ से भी काँप रहे हों। मेरे लिए सबसे निराशाजनक बात यह थी कि अलका की नज़रों में मेरी जो थोड़ी-बहुत अच्छी छवि बन सकती थी, जोकि एक अदद प्रेम-प्रसंग के लिए निहायत ज़रूरी चीज़ थी, उसकी संभावना अब पूरी तरह मिट चुकी थी। लेकिन मेरी चिंता यहीं पर ख़त्म नहीं होती थीः मैंने सोचा, उस घर से आने वाली सत्तू की रोटी का स्वाद लेने की उम्मीद भी अब शायद ख़त्म हो गई। हालाँकि, तमाम तर्कसंगत निराशाओं को धता बताते हुए सत्तू की रोटी और सत्तू-आम-पन्ना शरबत (चुभती हुई गर्मी का हरदिलअज़ीज़ जवाब, जो कच्चे उबले आम और सत्तू के मेल से बनता है और पूर्वी उत्तर प्रदेश/बिहार की ख़ासियत है) बदस्तूर हमारे दरवाज़े पर पहुँचता रहा—एक-दो बार तो मेरी हैरत-भरी आँखों के आगे ख़ुद अलका उसे ले आई। आह, विशाल हृदय और दूरदृष्टि वाली स्त्रियों की अनगिनत उदारताएँ! —उनके इस अद्भुत गुण का अनुभव मुझे पहली बार मिला था। एक क्षेपकः एक बार इसी तरह के एक और झंझट में मैंने ख़ुद को फँसा लिया था, जिसमें भोजन और एक सुंदर लड़की की भूमिका अनमोल थी, इस बार कहानी यूरोपीय व्यंजनों और एक पोलिश हसीना की थी (कोयला खदानों में कभी-कभी विदेशों- ख़ासकर फ्रांस, पोलैंड, सोवियत संघ से आए ‘विशेषज्ञ’ भी नज़र आ जाते थे)। इस हादसे में भी, मुझे स्त्रियों की पोषणकारी उदारता ने बचाया, लेकिन एक तो जगह की कमी है, दूसरे मैं अपने पाठकों के सब्र की परीक्षा नहीं लेना चाहता, इसलिए इस प्रसंग को यहाँ दर्ज करने से मैं स्वयं को रोकता हूँ।
झरिया कोयला खदानों की एक विशेषता, जो स्वाद के रसिकों को अनोखा आनंद देती थी, वह थी उनका पश्चिम बंगाल की सीमा के क़रीब होना। बिहार और बंगाल की सीमा धनबाद से केवल 30 किलोमीटर दूर थी, और कोयला खदानों में बंगालियों की भरमार थी। जब किसी बंगाली घर में उत्सव का मौक़ा आता और दावत का न्यौता मिलता, तो उम्मीदें परवान चढ़ जातीं—क्योंकि वहाँ शोरषे माछ और आलू पोस्तो जैसे स्वादिष्ट व्यंजन मिलते थे, जो कि केले के पत्ते पर परोसे जाते थे। शोरषे माछ, आलू पोस्तो यानी बंगाल के बेमिसाल व्यंजन, सरसों के पेस्ट वाली करी में मछली और खसखस के पेस्ट में लिपटे आलू। मैं इन नामों को दोहरा रहा हूँ, ताकि मैं उनके उच्चारण की मिठास और स्वाद की उस लहर को फिर से जी सकूँ, जो जीभ को जगमगा देती है, उसे चमक से भर देती है। और सब्ज़ियाँ, वे भी किसी से कम नहीं- गोभी, बीन्स, या परवल (जो मेरी सर्वकालिक पसंदीदा सब्ज़ियों में एक है)- लेकिन इनमें एक विशेष बंगाली रंगत होती थीः ख़ासतौर पर मछली के सिर, जो उनमें इस तरह समाहित होते थे जैसे मुग़लकालीन नक़्क़ाशी का कोई नमूनाः बंगाली रसोई की यह विशिष्टता आज भी मुझे मोहती और चकित करती है। एक सवाल अक्सर हमारे ज़हन में आता, क्या ये लोग मछली की ख़ुशबू से सराबोर किए बिना कुछ नहीं बना सकते?
हमारे मन को सिर्फ़ माँस और सब्ज़ियाँ ही नहीं लुभाती थीं, बल्कि बंगाली घरों में कभी-कभी हमें चावल की एक ऐसी क़िस्म का स्वाद चखने को मिलता, जो ख़ास प्रचलित न थी, लेकिन अपनी महक में किसी शोरषे माछ या माछेर झोल को भी टक्कर दे सकती थी। उसका स्वाद लेने के कुछ ही मौक़े मिले, और उतने में ही मेरे माता-पिता चावल की उस क़िस्म के आजीवन मुरीद बन गए। यह चावल भी बंगाल की एक देन था; एक ऐसी क़िस्म, जिसने स्वाद और सुगंध के मामले में, हमारी इंद्रियों के लिए, देश के प्रसिद्ध बासमती चावलों को भी कहीं पीछे छोड़ दिया था। इसे गोबिंदभोग (या ठेठ बंगाली लहजे में कहें तो गोबिंदोभोग) कहा जाता था, और हमें लगता था कि यह अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता थाः गोबिंदभोग यानी भगवान कृष्ण के लिए अर्पित भोग या प्रसाद, मछली या मटन करी के साथ इसकी जुगलबंदी अद्वितीय होती (इसे चिकन करी के साथ नहीं खाया जाता था क्योंकि तुलनात्मक रूप से चिकन करी को तुच्छ भोजन माना जाता था और उसके साथ इसे खाना एक तरह से इसकी बर्बादी)। गोबिंदभोग के प्रति मेरे माता-पिता का ऐसा लगाव हो गया था कि जब मेरे पिता का तबादला ओडिशा या मध्य प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में हो गया, और यहाँ तक कि जब वे सेवानिवृत्त होकर दिल्ली में बस गए, तब भी वह हर हाल में, किसी-न-किसी तरह एक-दो किलो गोबिंदभोग मँगवाने का जतन करते रहे, भले इसके लिए उन्हें अपने पुराने परिचितों या उन जगहों से आ रहे दोस्तों से गुजारिशें करनी पड़ें, या उनका एहसान मानना पड़े। अगर मेरी बातें आपको गोबिंदभोग के प्रचार जैसी लग रही हों, तो मैं कहूँगा, बेशक, यह प्रचार ही है। कोशिश कीजिए और आप एक बार ख़ुद इसका स्वाद लेकर देखिए; आप भी इसके दीवाने हो जाएँगे। अब तो यह शायद और भी आसानी से उपलब्ध हो गया है। हाल ही में मैंने फेसबुक पर इसके विज्ञापन चमकते देखे हैं।
अंधेरे में ड्राइव
घर के खाने के जितने भी सुख हों, बाहर खाना खाने का अपना एक अलग ही आकर्षण होता है। घर के बाहर खाने का मज़ा सिर्फ़ माहौल बदलने से नहीं, बल्कि उस पूरे अनुभव से है, जब आपको शुरुआत से लेकर अंत तक सेवा दी जाती है, आपको अपने भोजन के लिए कुछ नहीं करना पड़ता, बस चबाना होता है। (कई बार मैं सोचता हूँः क्या यही वजह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में मेहमाननवाज़ी का मतलब यह भी होता है कि खाने की तैयारी, परोसने या बाद में साफ़-सफ़ाई जैसे कामों में मेहमान से किसी मदद की उम्मीद न की जाए? ‘अतिथि देवो भवः’ की भावना के अंतर्गत किसी को ‘स्पेशल’ महसूस कराने का सबसे बड़ा तरीक़ा शायद यही है कि उसे हर तरह की मेहनत से छूट दे दी जाए।)
ख़ैर, मुद्दे पर लौटते हैं। जैसा मैंने पहले बताया, अगर हम बाहर खाने का लुत्फ़ उठाना चाहते, तो हमारे पास दो ही विकल्प थे। पहला, हमारे क़रीब स्थित धनबाद में ‘वेजीस’ नामक मद्रासी रेस्तरां (शायद यह उडुपी रेस्तरां रहा हो), जहाँ मैंने पहली बार एक बेहतरीन उत्तपम का आनंद लिया था। और दूसरा, धनबाद के उस पार, ग्रैंड ट्रंक रोड के पास की जगह, जो हमसे क़रीब 35 किलोमीटर दूर थी, जहाँ एक मेहनतकश सिख ने एक ढाबा खोला हुआ था, और वह भी बिल्कुल सुनसान जगह पर। मज़े की बात थी कि जिस खाने के लिए हम इतनी दूर तक सफ़र करते थे, उन सड़कों पर जो दरअसल सड़कें नहीं थीं, बल्कि पेड़ों और झाड़ियों से साफ़ की गईं, मिट्टी की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियाँ थीं, वह दरअसल हमारे ही मूल राज्य का खाना हुआ करता था। वहाँ मिलने वाले खाने के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। यह वैसा ही था, जैसा आप एक ढाबे से उम्मीद करते हैं- तंदूरी चिकन, सींक कबाब; तंदूरी नान, काली दाल। इन नामों का इतना व्यापक इस्तेमाल हो चुका है और ये इतने आम हो गए हैं कि अब इनमें वह ख़ास आकर्षण नहीं बचा, जो कभी हुआ करता था, आज ये मानो महज़ बेमतलब के शब्द बनकर रह गए हैं। इसके बजाय, उस जगह की दो अन्य बातें यादों में छाई रहती हैं। पहली, वहाँ का माहौल। प्राचीन ढाबा परंपरा के अनुसार, वहाँ आप मोटी रस्सियों से बुनी चारपाई पर बैठते थे, जो आपके पिछले हिस्से को उतनी ही ताक़त से काटती थीं जितनी ताक़त से आप अपने दाँतों से चिकन को काटते। हमारे ऊपर खुला आसमान फैला होता, और चारों ओर केवल पेड़ों की कतारें, जो गहन तारों से भरे उस आसमानी दृश्य को हमारी आँखों में समाने से रोकतीं। 70 के दशक में न तो प्रकाश-प्रदूषण का अस्तित्व था, न ही हवा की गुणवत्ता पर कोई बुरा प्रभाव, जिससे तारों से भरी उस रात की अलौकिक सुंदरता बिलकुल अछूती और अप्रभावित रहती। उस माहौल का एक गहरा हिस्सा आवाज़ से जुड़ा हुआ थाः आसपास के खेतों और झाड़ियों से आती सियारों की करुण आवाज़ें। जो लोग सियारों के विलाप को पास से सुन चुके हों, वे यह बात मानेंगे कि उनकी आवाज़ें भोजन में एक गहन-गंभीर मृत्युबोध भर देती हैं। सौभाग्य से, इन उदासियों का तोड़ मेरे पिता के एक मित्र के पास था। उनका हास्यबोध बेहद तीक्ष्ण था, जिसमें वह अपनी कानफाड़ू अश्लील भाषा का तड़का इस तरह मारते थे, कि पार्टी के अन्य पुरुष पहले तो चकित रह जाते, और फिर उनके जितना ही आनंदित हो उठते (महिलाएँ कुछ न बोल पातीं, सिर्फ़ बेशुमार दिखावटी नाराज़गी ज़ाहिर करतीं और उनकी ज़बान पर लगाम लगाने के लिए देवताओं से प्रार्थना करतीं; और बच्चे, वे तो बस हिचकियाँ लेते, हँसते-हँसते दुबक जाते।)
सबसे बड़ी बात, वहाँ अधकार होता था। ढाबे पर खाना (हमेशा रात का ही खाना) ज़्यादातर लालटेन की रोशनी में खाया जाता, क्योंकि बिजली कटौती कभी ख़त्म ही नहीं होती थी। वैसे भी, खुले में, लालटेन की मद्धिम रोशनी में खाना, चारों ओर पतंगों व मच्छरों का झिलमिलाता घेरा, ऊपर तारों से भरा आकाश— यह नज़ारा हमारे घर पर भी आम थाः बिजली कटौती इतनी ज़्यादा होती थी कि रात का खाना अक्सर हम चबूतरे पर खाते। इस स्थिति की विडंबना से कोई अछूता न था। कोयला क्षेत्र के लोग अक्सर व्यंग्य से कहते, “कितना मज़ेदार है न! पूरे देश में पावर प्लांट्स चलाने के लिए कोयला सप्लाई यहीं से होती है, और ख़ुद हम ही दिन के सोलह-सोलह घण्टे बिना बिजली के रहते हैं।”
ढाबे के खाने से जुड़ी एक और विशिष्ट स्मृति यह है कि ढाबे तक पहुँचने के लिए हम कितनी दूर तक ड्राइव करते थे। धनबाद के बाहरी इलाके़ से लेकर जीटी रोड तक का रास्ता अंधेरा और सुनसान था; इस लम्बे रास्ते पर रुकावटें आना कोई अनहोनी बात नहीं थी। इसलिए सुरक्षा के लिए हमारे परिवार समूह बनाकर चलते, हम छोटे-बड़े क़ाफ़िले में वहाँ जाते, कारों की हेडलाइट्स की एक लम्बी क़तार गाँवों के डरावने अंधकार को चीरती हुई आगे बढ़तीं।
करीब एक दशक बाद, मेरे पिता का तबादला बंगाल के रानीगंज कोयला क्षेत्र में हुआ। वहाँ ड्राइव करना और भी ख़तरनाक था, इस बात की संभावना बहुत ज़्यादा होती कि लुटेरे घात लगाकर हमला करें और आपको आपकी क़ीमती चीज़ों के बोझ से मुक्त कर दें; इस नाते दोस्तों के घर या रेस्तरां जाने के लिए बहुत एहतियात बरतनी होतीः तब हमारी कार के साथ-साथ एक और कार चलती, जिसमें सशस्त्र सुरक्षाकर्मी मौजूद रहते, जो आने-जाने की पूरी यात्रा में साये की तरह हमें सुरक्षा देते।
इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जब भी मैंने कोयला क्षेत्रों में बाहर जाकर खाना खाने के अनुभव को याद किया, तो दो चीज़ें हमेशा उसके साथ जुड़ी हुई पाईंः लंबी या बहुत लंबी कार-यात्राएँ और हर वक़्त मँडराता हुआ ख़तरे या डर का माहौल। कोई सोच सकता है कि भोजन से पहले इस तरह का अनुभव कोई बहुत स्वादिष्ट भूमिका तो नहीं निभाता होगा; लेकिन वास्तव में, इसके ठीक उलट होता था। यात्रा के अंत में सुरक्षित पहुँचने का एहसास, मुश्किल से हासिल की गई हर घूँट और हर कौर का स्वाद कई गुना बढ़ा देता था।
धुंआ और आईना
स्कूल के दिनों के बाद मैंने कई साल ब्रिटेन में बिताए। वापसी पर, दिल्ली में कुछ समय रहने के बाद, मैं बंबई आ गया, जहाँ मैं 1990 के दशक की शुरुआत से रह रहा हूँ। पूरे एक दशक तक—और तब मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाया कि क्यों—मुझे ऐसा लगता रहा कि जो खाना मैं खा रहा था, उसका स्वाद पहले जैसा नहीं रहा, भले मैं वही पुराने, परिचित व्यंजन खा रहा होऊँ। यह सुनने में घिसा-पिटा या आलसी स्मृतियों से उपजा हमारे समय का एक क्लीशे लग सकता है- ‘आज का खाना (या सिनेमा, या समाचार, या लोगों के शिष्टाचार का भाव) तो पुराने दौर के मुक़ाबले कहीं नहीं ठहरता’- लेकिन इस बात में छिपी सचाई को नकारा भी नहीं जा सकता।
इसका उत्तर अप्रत्याशित रूप से क़रीब एक दशक बाद, संयोग से हुई एक घटना में मिला। मेरी पत्नी और मैं बंबई से पाँच घंटे पूर्व की ओर स्थित, एक अपेक्षाकृत अनजान वन्यजीव अभयारण्य की ओर गए थे, जो जंगल से ढँकी पहाड़ियों की एक शृंखला में फैला था। पहाड़ियों के ऊपर, अभयारण्य के रेस्ट हाउस में हमें वहाँ के स्थायी वन रक्षक, जोकि पच्चीस साल का एक युवा था, ने बताया कि वहाँ खाने का कोई इंतज़ाम नहीं है; रेस्ट हाउस में रसोईघर नहीं था। उसका नाम अशोक मेरी स्मृति में गहराई से दर्ज है, क्योंकि वह, उस घने जंगल में पूरी तरह अकेले और बिना किसी ‘ज्ञान संसाधन’ के (यह 2000 के दशक का आरंभिक समय था) रहता था, और वह संभवतः मुझे मिला सबसे निपुण शौकिया पक्षी-विशेषज्ञ था। किसी पक्षी की एक असामान्य आवाज़ आई और उसने चिल्लाकर कहा, ‘अरे, यह सफेद भवों वाली भारतीय सिमिटार बैबलर है!’ मुझे लगा कि वह यूँ ही झूठ बोल रहा, लेकिन वह सही साबित हुआ। अशोक ने कहा कि वह गार्ड, वन्यजीव गाइड और रसोइया, एक साथ तीनों हैं, और वह हमारे लिए खाना तैयार कर सकता है, बशर्ते हम अपने लिए राशन ख़ुद ले आएँ; उसके पास कुछ भी अतिरिक्त नहीं था।
तो हम वापस गाड़ी लेकर (फिर वही ड्राइव) क़रीब आधे घंटे की दूरी पर स्थित सबसे नज़दीकी क़स्बे गए, ज़रूरी सामान लेकर लौटे, और अंत में अशोक के हाथों से बना डिनर खाया, जोकि सादगी, पर बड़े आत्मविश्वास के साथ पकाया गया था। पहले ही निवाले से, हम धीरे-धीरे खाने लगे, हर कौर को चखते हुए, अनपेक्षित रूप से लुभावने स्वाद का आनंद लेते हुए। इस भोजन को इतना ख़ास बनाने वाली बात का अहसास मुझे तुरंत नहीं हुआ, क्योंकि खाना तो साधारण ही था—मछली, दाल, आलू-गोभी, रोटी—और उसमें तेल-मसाले का इस्तेमाल भी साधारण थाः नमक, हल्दी, मिर्च, धनिया, जीरा। और तभी मुझे समझ आयाः वह आग, जिस पर अशोक खाना पका रहा था। अभयारण्य में न रसोई थी, न गैस चूल्हा; खाना खुले में, मिट्टी की ईंटों के चूल्हे पर, लकड़ी और कोयले की आग पर पकाया जा रहा था। यही स्वादों का वह गुलदस्ता था, जिसने हमारी इंद्रियों को मोह लिया था; यही वह सुगंध थी, जिसे मैं इतने बरसों से याद कर रहा था। लकड़ी और कोयले का धुआँ, मिट्टी की सोंधी महक— सादे से सादे खाने को भी अलौकिक बना देने वाला जादू। और तभी मुझे एहसास हुआ कि कोयला खदानों में भी खाना हमेशा इसी तरह पकता थाः लकड़ी और कोयले की आग पर। लकड़ी चिंगारी के लिए और कोयला मुख्य ईंधन के रूप में इस्तेमाल होता था। उस समय तक रसोईघरों में एलपीजी ने अपनी जगह नहीं बनाई थी, कम से कम उन पिछड़े इलाकों में तो बिलकुल नहीं, लकड़ी और कोयले की आग ही वहाँ की रसोई का आधार थी (केरोसीन के स्टोव भी होते थे, पर जब आपके आसपास कोयले का विशाल भंडार हो, तो उनकी ज़रूरत कम ही पड़ती थी)।
हालांकि उस समय यानी 70 के दशक में, हम धुएँ-भरी उस गहरी ख़ुशबू के बारे में कभी सोचते भी नहीं थे, जिसे वह आग, खाने में रच-बस जाने देती थी, क्योंकि वह तो बस रोज़मर्रा का हिस्सा थी, आदत बन चुकी थी। नया और दुर्लभ, चाहे वह कितना भी साधारण क्यों न हो, हमें अपनी ओर खींचता है; जबकि आम चीज़ें, चाहे वे कितनी भी बहुमूल्य क्यों न हो, उनको हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। जैसे इस धरती का हरियाली भरा आवरण या इसका निर्मल पानी— हमें लगता है कि यह सब तो हमारे लिए सहज उपलब्ध है, कारख़ाने से निकली किसी चीज़ की तरह, जोकि हमें हर हाल में मिलनी है। लेकिन यह तभी तक होता है, जब तक कि ये हमसे छीन न ली जाएँ या अपनी गुणवत्ता न खो दें। जब कोयले और लकड़ी की जगह एलपीजी ने ले ली, तभी हमें लकड़ी और कोयले की लपटों व धुएँ से मिलने वाली उस विशेष ख़ुशबू की कमी खलने लगी। आज देख लीजिए, कैसे धुएँ और मिट्टी की वह ख़ुशबू दुर्लभ और बहुमूल्य हो गई है, और एक अदद ‘वुडस्मोक पिज़्ज़ा’ या ‘असली हांडी दोप्याज़ा’ के लिए अब कितनी ऊँची क़ीमत चुकानी पड़ती है।
तो, खान-पान से जुड़े घरेलू अनुभवों और उन ड्राइव्स के अलावा, एक तीसरी धारा भी थी, जिसने कोयला क्षेत्रों के भोजन को अपनी विशिष्ट पहचान दीः वह आदिम धुआँ, जिसकी गंध में सल्फर और टार की मिठास समाई हुई थी। बेशक, यह सिलसिला हमेशा के लिए नहीं चल सकता था; बीसवीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते, कोयला चमत्कारी ऊर्जा से भरा पत्थर नहीं रह गया था, बल्कि वायु और जल का प्रदूषक बन गया था, और उसे रसोईघर की सेवाओं से बाक़ायदा रिटायर कर दिया गया था।
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