अनुवादः गीत चतुर्वेदी
चित्र – शमीम अख्तर शैख़
बांग्ला साहित्य में कई ‘दादा’ चरित्र हैंः शारदिंदु बनर्जी ने बारोदा की रचना की, सत्यजीत रे ने फेलूदा की, नारायण गांगुली ने टेनीदा की और प्रेमेंद्र मित्रा ने घोनादा की।
घनश्याम दास उर्फ घनादा, या ठेठ बंगाली लहजे में कहें तो घोनादा, अधेड़ उम्र के एक ऐसे इंसान हैं, जिनका दिल बहुत बड़ा है, जो हमेशा घर पर पाए जाते हैं और जो हर समय अपनी क़िस्सागोई के लिए तैयार रहते हैं। आज के दौर में ऐसा किरदार लगभग विलुप्त हो चुका है।
घोनादा एक हॉस्टल में रहते हैं, जिसका किराया उनके अनुयायी ख़ुशी-ख़ुशी भरते हैं। यही नहीं, लज़ीज़ खाना खाने के उनके शौक़ को भी पूरा करते हैं। घोनादा पूरा दिन गपशप करते हैं, शाम को पार्क चले जाते हैं और वहाँ जाकर नई मंडली के साथ गपशप करते हैं। उनकी कहानियों में ग़ज़ब की कल्पना होती है, जोकि उनके सुपरहीरो जैसे कारनामों से सजी रहती है। घोनादा जैसे लोग, एक ज़माने में, वृहत् बंगाली परिवारों का केंद्र हुआ करते थे। उनके जैसे भलेमानुस, बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन, किशोरों के लिए संगी-साथी और वयस्कों के लिए रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के तनाव का तोड़ हुआ करते थे।
घोनादा और टेनीदा, भले एक-दूसरे से अलग हों, लेकिन दोनों ही खाने के ज़बर्दस्त शौक़ीन हैं। टेनीदा की कहानियों में भोजन ही वह तत्व है, जो कथानक को आगे बढ़ाता है। उसके चार मुख्य पात्र हमेशा खाने की खोज में ही लगे रहते हैं। सच तो यह है कि टेनीदा की कई कहानियों का मुख्य कथानक ही भोजन खोजना या दोस्तों से चुराना होता है। टेनीदा कुछ भी खा सकते हैं, चाहे वह चींटियों से भरी मिठाई हो या सड़क किनारे बिकने वाला कोई सामान! वह स्वादिष्ट भोजन के हर निमंत्रण को स्वीकार कर लेते हैं। लगभग हर कहानी की शुरुआत में टेनीदा अपने चेलों की जमात से नाश्ते के लिए कुछ न कुछ माँगते हैं। खाने के प्रति उनकी यह तलब कभी-कभी हास्यास्पद या फूहड़ भी लगने लगती है।
जबकि घोनादा की कहानियों में भोजन का स्थान अलग है। घोनादा के लिए शानदार भोजन तैयार करना, वास्तव में मेहनत का काम होता था। उसमें इस्तेमाल होने वाली कुछ सामग्रियों को शहर के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद ख़ास दुकानों से जुटाकर लाना पड़ता था। कुछ मामलों में तो, उनके अनुयायियों को भोजन की सही सामग्री जुटाने के लिए अच्छी-ख़ासी लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी। भोजन पकाने और परोसने की प्रक्रिया में भी बहुत सावधानी रखनी पड़ती थी। और जब घोनादा भोजन का आनंद लेते थे, तो यह अनिवार्य होता था कि अनुयायी चुपचाप उन्हें निहारें और इस दृश्य का आनंद लें कि कैसे एक असल भोजन-पारखी अपनी पसंद का लुत्फ़ उठा रहा है। ज़ाहिर-सी बात है, इस तरह का भव्य भोजन मेस में रहने वाले अन्य सदस्यों के वित्तीय योगदान के बिना संभव नहीं होता था। घोनादा ने कभी अपने खाने का पैसा ख़ुद नहीं भरा। लेकिन भोजन के इस विस्तृत वर्णन का एक मक़सद होता था। उसका इस्तेमाल मुख्य कथानक तक पहुँचने के लिए एक सीढ़ी की तरह किया जाता था। घोनादा को यथायोग्य भोजन की रिश्वत देकर संतुष्ट करना पड़ता था, उसके बाद ही उनका मुँह खुलता था। और एक बार उनका मुँह खुला, तो एक से एक कहानियाँ फव्वारे की तरह फूटने लगती थीं। लेकिन यह भोजन क्या था?
घोनादा के उल्लेख वाली पहली कहानी 1945 में प्रकाशित हुई थी। उसका शीर्षक था ‘मोशा’, जोकि ‘अल्पना’ में प्रकाशित हुई थी। वह देव साहित्य कुटीर द्वारा दुर्गा-पूजा के अवसर पर प्रकाशित विशेष कथा-वार्षिकी थी। उस कहानी में खाने का कोई ख़ास उल्लेख नहीं था। दरअसल, शुरुआती चार-पाँच कहानियों में बमुश्किल ही भोजन का उल्लेख होता है, सिवाय इसके कि घोनादा, शिशिर नाम के अपने चेले से सिगरेट उधार लेते हैं। सिगरेट उधार लेने की यह हरकत आने वाली कहानियों में बार-बार दोहराई जाती है, और कई बार तो हँसी-हँसी में सिगरेट की संख्या भी बताई जाती है। हालाँकि, घोनादा इतने सदाशयी हैं कि सिगरेट का क़र्ज़ा चुकाने की ज़हमत कभी नहीं उठाते।
भोजन का पहला गंभीर वर्णन 1949 की कहानी ‘माछ’ में मिलता है। कहानी की शुरुआत एक ख़ास लंच के विवरण से होती है। जो लोग बंगाल की मेस संस्कृति को जानते हैं, वे समझते होंगे कि हॉस्टल या मेस हाउस में ऐसे खास भोजन को ‘दावत’ कहा जाता है। कहानी में उल्लेख है कि घोनादा को कैटफिश करी पसंद नहीं थी। वे उसकी जगह मसालेदार चिकन करी की माँग करते हैं, वह भी तब, जब उनका पेट ख़राब है। जब परोसा जाता है, तो वह एक ही बार में करी के दो बड़े कटोरे गड़प जाते हैं। भोजन का अंत होता है मिष्टी दही, पंतुआ और संदेश जैसी मिठाइयों के साथ। यह विशुद्ध रूप से बंगाल की ज़मींदारी शैली के भोजन का वर्णन है।
भोजन पर असली फोकस घोनादा की कहानियों के दूसरे संग्रह ‘अद्वितीय घोनादा’ से शुरू होता है। इन कहानियों में भोजन, घोनादा के लिए एक गंभीर मसला है और वह इसका इस्तेमाल ‘सौदेबाज़ी के एक औज़ार’ के रूप में करते हैं। ‘फूटो’ कहानी में घोनादा, हॉस्टल और अनुयायियों को छोड़कर जाने की धमकी देते हैं, और उन्हें मनाने के लिए उनके अनुयायी तुरंत हिल्सा मछली की व्यवस्था करते हैं। घोनादा के लिए गंगा में पकड़ी गई हिल्सा मछली का उल्लेख-मात्र काफ़ी नहीं है, बल्कि वह अपने चेलों को यह तक निर्देश देते हैं कि इस मछली को किस तरह पकाया जाए।
जैसे-जैसे प्रेमेंद्र मित्रा ने इस शृंखला में और कहानियाँ लिखीं, भोजन का वर्णन एक खास तरह की ढब में ढलने लगा। घोनादा अपने कमरे में कुपित बैठे हैं। शायद भोजन के दौरान हुई किसी अप्रिय घटना ने उन्हें नाराज़ कर दिया है। और, यदि वह बुरे मूड में होते हैं, तो दिल बहलाने वाली उनकी कहानियाँ एकदम सूख जाती हैं। तब उनके अनुयायी उनका दिल जीतने के लिए उन्हें नए तरह का भोजन करवाते हैं।
1955 की कहानी ‘दाँत’ में मछली के क्रोकेट का ज़िक्र आता है, जबकि 1958 की ‘सूतो’ में फिश कबीराजी का। (कबीराजी एक खास तरह का कटलेट होता है, जिसे अंडे की परत में लपेटकर बनाया जाता है और जो कोलकाता में कई जगह मिलता है।) घोनादा एक साथ चार कटलेट गटक जाते हैं! समय के साथ भोजन की विविधता भी बढ़ती जाती है। शुरुआती कहानियों में जिन मुख्य व्यंजनों का उल्लेख है, वे हैं चिकन करी, हिलसा करी और दालपुरी। मानसून के दौरान हिलसा करी को खिचड़ी के साथ परोसा जाता है।
1960 की कहानी ‘ढील’ में घोनादा इस बात पर नाराज़ हो जाते हैं कि उन्हें हिलसा की जगह मुल्लेट मछली परोसी गई है। लेकिन जब उन्हें ‘तेलभाजा’ (तले हुए भजिए और पकौड़े) की ख़ुशबू आती है, तो उनका गुस्सा ग़ायब हो जाता है, और वे अपनी मंडली के साथ ख़ुश होकर अड्डे में शामिल हो जाते हैं और नाश्ते पर टूट पड़ते हैं।
घोनादा कभी-कभी खाने के लिए सारी हदें पार कर देते हैं। 1957 की कहानी ‘हांश’ में वे मेस में रहने वाले एक व्यक्ति द्वारा लाई गई बत्तख को ख़ुद पका डालते हैं। जब वह व्यक्ति उनसे नाराज़ होता है, तो घोनादा किसी तरह उसे यह समझा देते हैं कि उन्होंने बत्तख का बलिदान उसके माँस के लिए नहीं, बल्कि एक छिपे हुए रत्न की तलाश में किया था!
1961 की कहानी ‘केंचो’ में वह अपने अनुयायियों से एशियन सीबास मछली के क्रोकेट की व्यवस्था करने की गुज़ारिश करते हैं। ‘पृथिबी बर्लो ना केनो’ में वह अपने सामने बैठे व्यक्ति की थाली से फिश रोल लगभग छीन ही लेते हैं। प्रेमेन्द्र मित्रा लिखते हैं कि घोनादा अपने भोजन की शुरुआत न्यून कोण से करते थे और अंत होते-होते अधिक कोण तक पहुँच जाते थे! मेस में रहने वाले अन्य लोग (बनमाली नस्कर लेन में) ख़ुशी-ख़ुशी उनके सारे नखरे उठाते थे।
‘तेल देबें घोनादा’ में दावत के दिन विशेष मेन्यू था- चितोल मछली की एक खास डिश। शाम की सैर के दौरान यदि कोई भोजन घोनादा को भा जाता, तो वह उस दुकान में ऑर्डर दे देते कि इस डिश को मेस में भेज दिया जाए। एक बार उन्होंने ‘हींग की कचौरी’ का ऑर्डर दिया। ज़ाहिर है, घोनादा ने इन ऑर्डरों के लिए कभी भुगतान नहीं किया। जब खाना पहुँचता, तो बिल मेस रहने वाले किसी न किसी सज्जन को चुकाना पड़ता।
कभी-कभी घोनादा भोजन का इस्तेमाल अपने चेलों से कोई ख़ास काम निकलवाने के लिए भी करते थे। वह अपने पसंदीदा व्यंजन- जैसे समोसा, आइसक्रीम, या रबड़ी- को अस्थायी रूप से छोड़ने का दिखावा करते। यहाँ तक कि बड़ी मुश्किल से लाई गई हिलसा मछली को भी बाज़ दफ़ा बेबात ही ख़ारिज कर देते। तब उनका बहाना क्या होता? शिकायती लहजे में यह कहना कि यह हिलसा मछली गंगा की नहीं, बल्कि रूपनारायण नदी की है!
1966 की कहानी ‘भाषा’ में घोनादा एक ही बार में हिलसा मछली की कई तरह की डिश खा जाते हैं- तली हुई हिलसा से लेकर भाप में पकी हिलसा तक। उनके नखरे पूरे करने के लिए उनके चेले कभी-कभी ‘बेगनफुली’ आम जैसी दुर्लभ चीज़ों का इंतज़ाम करते। उनकी कहानियों में खाने की और भी कई चीज़ों का ज़िक्र है, जैसे चिकन कबाब, मैंगो फिश फ्राई, शामी कबाब आदि। घोनादा खाने को लेकर बेहद नाज़ुक मिज़ाज थे। यहाँ तक कि पापड़ खाने से पहले भी यह पूछते कि यह फलाँ-फलाँ दुकान से आया है और इसे ठीक से तला गया है न! यदि कोई उन्हें बंगाली मिठाइयाँ उपहार में देता, तो वह बेहद ख़ुश होते। (कहते हैं कि लेखक प्रेमेन्द्र मित्रा शायद लंबे समय तक मधुमेह से पीड़ित रहे थे। इस कारण उन्हें अपने कई पसंदीदा खानों से परहेज़ करना पड़ता था। शायद इसीलिए, अपने चटोरेपन को सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने घोनादा की कहानियों में खान-पान से जुड़े ऐसे वर्णन डाले होंगे।)
‘मोंगोल ग्रोहे घोनादा’ में वह एक ही बार में पाँच प्लेट चिकन समोसे डकार जाते हैं। हालांकि, यह ‘ओवरईटिंग’ कभी-कभी उनके लिए मुसीबत भी बन जाती थी। कुछ कहानियों में, मेस के एक नए निवासी ‘धनु चौधरी’ का उल्लेख है, जो घोनादा को ज़्यादा खाने से रोकने की कोशिश करता है। जब भी कोई घोनादा के लिए मुल्लेट मछली फ्राई या चिकन कबीराजी कटलेट जैसी मुँह में पानी लाने वाली चीज़ें लाता, धनु चौधरी सेहत का हवाला देते हुए उन्हें खाने से रोकने की कोशिश करता। भोजन के बाद किसी पाचक दवा का नाम तक लेना घोनादा को अपनी बेइज़्ज़ती जैसा लगता। वह न केवल खाने के दीवाने थे, बल्कि अपने हाजमे पर तो उन्हें गुरूर था। तो, ऐसे में ‘ओवरईटिंग’ से सेहत को होने वाले नुक़सान की कोई भी बात उन्हें ख़ासा नाराज़ कर देती थी।
घोनादा की कहानियों में प्रेमेन्द्र मित्रा ने घूम-फिरकर उन्हीं व्यंजनों का उल्लेख किया- कटलेट, हिलसा, चिकन, मटन, बिरयानी, मिठाई आदि। समय के साथ ये खाने बदले नहीं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जब घोनादा की कहानियाँ लिखी गईं, तब बंगाल आर्थिक ठहराव के दौर से गुज़र रहा था। कई अन्य बंगालियों की तरह घोनादा भी शाकाहारी भोजन से नफ़रत करते थे। प्रेमेंद्र मित्रा 1960 और 70 के दशक के बंगाल के औसत हॉस्टल या मेस हाउस जैसी जगहों में मिलने वाले भोजन का जो चित्र अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं, एक तरह से वह ‘सपनों का भोजन’ है, क्योंकि इन जगहों पर मिलने वाला भोजन, असल में, बेहद ख़राब और अरुचिकर होता था।
जैसे-जैसे घोनादा की सीरीज़ आगे बढ़ी, उनकी कहानियाँ विज्ञान-कथाओं से हटकर ऐतिहासिक कथाओं की ओर मुड़ गईं। इन कहानियों के मुख्य पाठक शायद पेंशनभोगी लोग थे। शायद यही कारण रहा होगा कि घोनादा ने बाद की कहानियों में भोजन का उल्लेख सावधानीवश टाल दिया।
Very interesting and informative.
Adhbhut