अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
चित्र – जितेन्द्र सिंह यादव
इंटरनेट पर चाट के बारे में पढ़ना कुछ वैसा ही है, जैसे कोई अपने बचपन की यादों को गूगल मैप पर तलाशने की कोशिश करे। फिर भी, इंटरनेट का उपहास नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसी ने मुझे तीन महत्वपूर्ण जानकारियाँ दीं, जिनसे मेरे स्थानीय चाटवाले और उनके ग्राहक पूरी तरह अनजान हैं। पहली बात यह कि चाट का जन्म उत्तर भारत में सत्रहवीं सदी में हुआ, जब मुग़ल बादशाह शाहजहाँ का शासन था। उस समय यमुना नदी का पानी इतना क्षारीय हो गया था कि पीने लायक़ नहीं रहा। तब दिल्ली के हकीमों ने स्वास्थ्यवर्धक उपाय के रूप में तली हुई, तीखी और खट्टी चीज़ों को दही के साथ मिलाकर खाने की सलाह दी। इसके उलट, एक दूसरी बात यह भी कही जाती है कि चाट की शुरुआत दिल्ली में नहीं, बल्कि आज के उत्तर प्रदेश में हुई। चूँकि आर्य विस्तार का केंद्र और दूध पर आधारित ग्रामीण संस्कृति का प्रमुख क्षेत्र उत्तर प्रदेश ही रहा है, इसलिए यह संभव है कि वहाँ दही से बनी कुछ चाटें इतिहास में और भी पहले से मौजूद रही हों। इसका प्रमाण यह है कि ‘दही बड़ा’, जिसे संस्कृत में ‘क्षीरवट’ कहा गया है, बारहवीं सदी के ग्रंथों में उल्लिखित है और माना जाता है कि इसका अस्तित्व पाँच सौ ईसा पूर्व से चला आ रहा है। यह एक रोमांचकारी खोज है।
मेरे लिए चाट पारिवारिक कहानियों की एक पकी हुई फसल है, और जिए गए समय की सदाबहार पंक्तियाँ। चाट की इंद्रियस्पर्शी अनुभूति—आख़िरकार ‘चाट’ शब्द हिंदी की क्रिया ‘चाटना’ से आया है—ऐसी चटपटी कसक जिह्वा पर छोड़ जाती है, जो इंद्रियों में गहराई से बसी याद बन जाती है। हर तरह का ज़ोरदार स्वाद मेरी जीभ पर जैसे हमेशा के लिए दर्ज है। महीन मैश किया गया आलू, मोटी चपटी टिक्कियों के रूप में आकार पाकर धीमी आँच पर तवे पर सेंका जाता है, जब कुरकुराकर दाँतों के नीचे आता है तो एक सुखद खराश-सी देता है। उस पर गाढ़ी दही की परतें और इमली-सोंठ की एक गाढ़ी, शहद-जैसी चटनी डाली जाती है, जिसकी खटास, मीठे स्वाद के साथ मिलकर स्वाद-कलिकाओं को गुदगुदाती है। उड़द दाल के दही बड़े—फूले-फूले, दानेदार—जब जीभ पर आते हैं, तो आहिस्ता-से पिघल जाते हैं, उसकी गाढ़ी दही, भुना हुआ जीरा और हल्की-सी मिर्च लिए होती है। और जब भीतर से कटे हुए अदरक, किशमिश और हरे धनिए का रहस्यमय भराव निकलता है, तो जैसे चमत्कार होता है। पापड़ी चाट—कुरकुरी और दाँतों को चुनौती देती हुई। मटर, जो गलकर नरम हो चुके होते हैं, प्याज़ और धनिए से सजे होते हैं और चटनी में डूबे रहते हैं। भरवाँ टमाटर और करेला—तीखे मसाले से भरे हुए, तवे पर पिसकर एक गरमागरम मिश्रण में बदल जाते हैं। फिर वह परिचित आवाज़ और स्वाद—फुल्कियों या गोलगप्पों की—और उनके साथ जीभ पर बिखर जाने वाला खट्टा, बहता हुआ जल-जीरा। पुराने दिनों में एक और चीज़ हुआ करती थी—आलू-धनिया। उबले हुए आलू के टुकड़े, जिन्हें धनिया, पुदीना और कच्चे आम की तीखी, गाढ़ी चटनी में लपेटा जाता था। मेरे इलाहाबाद की चाट में हर चीज़ इस तरह तैयार की जाती थी कि हर स्वाद अप्रत्याशित रूप से जीभ को चौंका देता था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अपने जन्मस्थलों से निकलकर चाट वहाँ-वहाँ फैल गई, जहाँ-जहाँ भारतीय गए—दक्षिण एशिया के देशों में, यहाँ तक कि कैरिबियन द्वीपों में भी।
मेरे पति की दादी, जिन्होंने कभी लहसुन और प्याज़ को हाथ तक नहीं लगाया था, चाट की ग़ज़ब दीवानी थीं। और वह भी लोकनाथ वाली चाट। लोकनाथ गली, जो पिछले सौ साल से भी ज़्यादा वक़्त से इलाहाबादियों के लिए चाट, रबड़ी, लस्सी और हरी-समोसों का केंद्र रही है, जिसकी क़समें लोग अब भी खाते हैं। दादी अपना निजी रिक्शा मँगवातीं और शहर के पुराने हिस्से में, लोकनाथ तक, चाट का स्वाद लेने खुद जातीं। कहानी यह है कि जब वह मृत्युशय्या पर थीं – वे मधुमेह की गंभीर रोगी थीं – और डॉक्टरों ने साफ़ कह दिया था कि अब इलाज से कोई उम्मीद नहीं बची, तब उनसे पूछा गया कि वह क्या खाना चाहेंगी। उन्होंने बहुत धीमी आवाज़ में उसी लोकनाथ चाट की फ़रमाइश की, जो उन्हें मना थी।
स्वाद अत्यंत निजी होता है, और उसके अपने स्वतःस्फूर्त संबंध होते हैं। मेरे लिए चाट गर्मियों की चीज़ है, शाम की चीज़, हालाँकि बहुतों के लिए यह हर मौसम और हर वक़्त की दावत है। हमारे यहाँ परंपरा यही थी कि चाटवाले अपने ठेले केवल शाम को ही लगाते थे। एक बार जब उनसे पूछा गया कि वे सुबह क्यों नहीं आते, तो उन्होंने बताया कि सुबह का सारा वक़्त तैयारी में चला जाता है। और जब यह याद रखा जाए कि चाट की उत्पत्ति उन दिनों में हुई थी, जब फ्रिज जैसी चीज़ें नहीं थीं, तो यह उत्तर बिल्कुल स्वाभाविक लगता है। मेरी निजी स्मृतियों के मानचित्र में चाट गहराई से जुड़ी है गर्मियों की शामों से, जिस बंगले में मेरा बचपन बीता, उसके आँगन से, और सन् 1960 के दशक के कर्नलगंज बाज़ार की उस छोटी-सी गली से।
हमारे इलाहाबाद की गर्मियों में एक सुंदर संतुलन होता था, भीतर और बाहर के जीवन के बीच। शामें और रातें बग़ीचों, छतों और आँगनों में खुली हवा में बिताई जाती थीं। सुबह के बाद का समय और दोपहरें भीतर गुजरतीं, जब सूरज आकाश में भट्ठी की तरह धधकता और त्वचा को झुलसा देने वाली लू दीवारों और छत की कच्ची टाइलों से टकराकर साँय-साँय करती हुई दरवाज़ों से टकराती, सूखे पेड़ों की शाखाओं को झकझोरती, उन्हें घसीटती हुई थका डालती। लेकिन जैसे ही सूरज डूबता और वह भट्ठी धीमी पड़ती, बग़ीचों और आँगन में पानी के छींटे पड़ते और जब गीली होकर मिट्टी साँस लेने लगती, सोंधी सुगंध का एक नया संसार खुल जाता। जब घास की नमी पाँवों को छूती, तो हम समझ जाते थे कि अब हमारी बेंत की कुर्सियों, खाटों और टेबल फैन को बाहर निकालने का समय आ गया है। कटे हुए आम, खरबूजे, फालसे का रस और बेल का शरबत परोसा जाता। लॉन में आइसक्रीम पार्टियाँ होतीं। और हाँ, चाट भी!
मेरे लिए चाट की दो अलग-अलग श्रेणियाँ थीं। एक वह जब किसी अभिभावक, चाचा या नौकर के साथ कर्नलगंज के उस भीड़भाड़ वाले छोटे-से बाज़ार में जाया जाता। वहाँ की तंग गलियाँ साइकिलों, रिक्शों, कभी-कभार स्कूटर और बहुत कम बार किसी मोटर कार की चहल-पहल से भरी रहतीं। कच्ची पटरियाँ शाम के समय नगरपालिका के टैंकरों से बाक़ायदा सींची जातीं, जिससे धूल बैठ जाती और हवा में एक ठंडक-सी घुल जाती। जैसे ही हम उस चौराहे से आगे बढ़ते, जो पास की मस्जिद की ओर मुड़ता था, दुकानों और बिजली के खंभों पर शाम के शुरुआती बल्ब टिमटिमाने लगते। फिर हम बाएँ मुड़ते—छोटे शिव मंदिर के पास से, फिर कुछ क़दमों बाद कृष्ण मंदिर के पास से गुज़रते, उसके बाद ऊँचे चबूतरे वाले सार्वजनिक कुएँ, बर्फ़ वालों, डेयरी वाली दुकान, मिट्टी और पंखों की दुकानें, लोहे और बर्तनों की दुकान, साड़ी-रेडीमेड कपड़ों की दुकान, स्टेशनरी और किराने की दुकान के पास से होकर दाएँ मुड़ते और फिर बाएँ। उसके बाद हम एक चौड़े-से चौराहे पर पहुँचते, जहाँ रास्ता खुल जाता और पीपल के एक विशाल पेड़ की छाया में खड़ा होता था हमारे चाटवाले का ठेला—जो अपनी गरम, तीखी सुगंध चारों ओर फैला रहा होता। उसके पास ही सब्ज़ियों की दुकानें होतीं, जिन पर चमचमाती, भीगी हुई हरी सब्ज़ियाँ सजी होतीं। और पीछे गोल चबूतरे पर चमकते सिंदूरी रंग में विराजमान होते हमारे हनुमान जी, उनके चारों ओर जलते हुए मिट्टी के दीपक टिमटिमाते रहते। तो, मेरे लिए चाट कोई अकेला स्वादानुभव नहीं, बल्कि एक बहु-इंद्रिय स्मृति है—गर्मियों की साँझ की छुअन, गरम मिट्टी पर पानी की सुगंध, पास की मस्जिद से आती अज़ान की पुकार, मंदिरों की घंटियाँ, हनुमान जी की मूर्ति के आगे जलते दीपक, और दुकानों में टिमटिमाती रोशनी—इन सबका समवेत अनुभव।
मुझे याद है, जिसे आजकल ‘आलू टिक्की’ कहा जाता है, वह उन दिनों ‘चॉप्स’ के नाम से जानी जाती थी। दही-बड़े एक ख़ास क़िस्म की लज़ीज़ चीज़ थे, जिन्हें ‘खोखा राय’ नामक किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ जोड़कर ख्याति मिली थी। उनके ठेले की पहचान थी, बीच में एक विशाल कोन जैसा ढाँचा, जो उस ज़माने में चर्चा का विषय बन गया था। हम लोग दोने में चाट खाते थे, पत्तों के चम्मच से या उँगलियों से, क्योंकि तब तक लकड़ी के आइसक्रीम स्कूप नहीं आए थे।
तो, यह था मेरा बाज़ार वाली चाट का अध्याय। लेकिन कभी-कभी इससे भी रोमांचक अनुभव होता था, जब चाट पार्टी हमारे घर में होती। वह चाटवाला मानो मसालों और नमकीन स्वाद का कोई राजकुमार हो, अपने भरे हुए ठेले को ठेलता हुआ हमारे बड़े-से बंगले के आँगन में आता और अपना ठीया जमा देता। मेहमान कुर्सियों पर, खटियों पर या बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ जाते और अपनी पसंद की चीज़ें खाते। सिवाय उनके, जो ठेले के पास भीड़ बनाकर खड़े रहते, अपनी बारी का इंतज़ार करते, फुलकियों के उन कुरकुरे, गोल, पतले गोले पाने के लिए, जिनमें भरा होता था खट्टा, आम की ख़ुशबू वाला जलज़ीरा। वे आगे झुकते, मुँह पूरा खोलते, उस नाज़ुक फुलकी को मुँह में डालते और तुरंत मुँह बंद कर लेते, ताकि अंदर ही वह फूटे और उसमें समाए अनेक स्वादों का विस्फोट उनकी जीभ को रोमांचित कर दे।
एक विशेष स्मृति आज भी मेरे दिल में बसी है। माता-पिता ने एक छोटा, हाथ से चलाने वाला प्रोजेक्टर ख़रीदा था। आँगन में कपड़े सुखाने वाले तार पर एक सफ़ेद चादर टाँगी जाती और उस पर एक छोटी फ़िल्म चलाई जाती। मेहमान विस्मय और प्रसन्नता के साथ चाट खाते हुए उसका आनंद लेते। प्रोजेक्टर का हैंडल घुमाया जाता, फ़िल्म की रील घूमती और स्क्रीन पर हल्की-सी काली-सफ़ेद नाचती-सी आकृतियाँ उभरतीं, जो वहॉं मौजूद लोगों के लिए किसी जादू से कम नहीं थीं। मैं, जो लक्ष्मी टॉकीज़ में रविवार सुबह के बच्चों के शो की दीवानी थी, तब फूली न समाती। ऐसा लगता, ज्यों सिनेमा ख़ुद ही उठकर मेरे घर चला आया हो, जैसे वह कहावत है न कि पहाड़ ख़ुद मोहम्मद के पास आ गया था। मेरे लिए चाट और बचपन, आपस में जुड़ी हुई स्मृति है।
अब समय को तेज़ी से आगे बढ़ाएँ, तो आते हैं विश्वविद्यालय के चाटवाले की ओर, जो महिला कॉलेज के पास का मशहूर केंद्र था। हम एक नीची दीवार पर बैठ चाट खाते थे और सिमोन द बउवार और पाब्लो नेरूदा की, हरमन हेस्से या अल्बर्ट कामू की चर्चा करते थे। अपने झोले से किताबें और विनाइल रिकॉर्ड्स निकाल एक-दूसरे से अदला-बदली करते थे। उन लड़कों को कोसते, जो हमें घूरते थे, और उन शिक्षकों पर मुग्ध होते, जो हमारी कक्षा के सितारे हुआ करते थे। अपनी बेल-बॉटम पैंटों के पायचों की तुलना करते, कभी-कभी अपनी लिखी कविताएँ साझा करते या वे कविताएँ, जो किसी प्रशंसक ने भेजी हों। और जब यह पता चलता कि वही कविता हममें से कई को भेजी गई है, तो हम ठहाके मार हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते! कल्पना करते कि हमारे दिलेर आशिक़ कहीं बैठकर उसी कविता की कई कॉपियाँ तैयार कर रहे होंगे!
जैसे-जैसे जीवन की रील आगे बढ़ती है, स्मृतियों के कई छोटे-छोटे द्वीपों में चाट वैसे-वैसे उभरती है। हमारे मोहल्ले का वह मित्रवत चाटवाला, जो हमारे दरवाज़े के पास ही अपना ठेला लगाया करता था, मेरे माता-पिता और मेरे छोटे बच्चों, दोनों का चहेता बन गया था। वह ख़ुशी-ख़ुशी पत्तल में चाट भरकर, पीतल की बड़ी थाली पर सजा कर, हमारे दरवाज़े तक भेज देता। कोहरे भरी सर्दियों की शाम, विशेषकर माघ के महीने में जब माघ या कुम्भ का मेला चलता था, उसके पास अलग ही तरह के ग्राहक आते। बंगाल से संगम में डुबकी लगाने आए तीर्थयात्री, जो पास ही पुरानी बंगाली धर्मशाला में ठहरे होते। सुबह की डुबकी और पूजा-पाठ से लौटकर, सर्द हवाओं से काँपते, शाम को वे चाटवाले के ठेले के पास जुटते। मोटे स्वेटर या जैकेट, और लंबा जाँघिया पहने हुए पतली-सी धोती में लिपटे, सिर पर बंदरों जैसी ऊनी टोपी लगाए, वे चाट खाते हुए बच्चों जैसी उत्सुकता से खिल उठते। जैसे कि उनमें से एक ने खुलकर स्वीकार भी किया था, गंगा और यमुना के संगम में स्नान करना, पूजा-पाठ करना और ऊनी कपड़े खरीदना, ये सब तो थे ही, लेकिन हर शाम चाट खाना भी उनकी ज़रूरी सूची में शामिल था। यही बात मेरे उन मित्रों पर भी लागू होती है, जो अब मुंबई, चेन्नई, न्यूयॉर्क या सिडनी में बस गए हैं। जब वे इलाहाबाद लौटते हैं, तो अपने भावनात्मक सफ़र में चाट की तीर्थयात्रा को संगम-स्नान के समकक्ष रखते हैं। इलाहाबाद की चाट, जो मीठी और खट्टी चटनियों के सूक्ष्म संतुलन और अपने भरे-पूरे, अटूट रूप के लिए जानी जाती है, उनके लिए घर के स्वाद का अभिन्न हिस्सा है। इस मान्यता का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि चाट स्त्रियों को विशेष पसंद है, ख़ासतौर पर गर्भवती महिलाओं और हार्मोनल परिवर्तन के दौर से गुज़र रहीं युवतियों के लिए इसकी खट्टी-मीठी उत्तेजना अधिक मोहक होती है। लेकिन अगर आप हमारे शिवा चाट या पंडित जी की चाट के सामने लगी लंबी क़तारों को देखें, तो आप यक़ीनन कह सकते हैं कि चाट सबको प्रिय है, यह किसी एक जेंडर तक सीमित नहीं।
हमारे मोहल्ले का चाटवाला अब तरक़्क़ी कर चुका है, उसने ठेला छोड़ बाक़ायदा एक दुकान खोल ली है। जिसकी चाट की प्लेट कभी 4 रुपये में मिलती थी, वह अब 40 रुपये में आती है। मेरा बेटा, जो चार साल की उम्र में चाव से चाट को चट कर जाता था, अब चालीस का हो चुका है। आज के दौर का आदमी होने के नाते वह अपने चार साल के बेटे को ‘जंक फूड’ या संदिग्ध ‘सड़क के खाने’ से थोड़ा दूर रखता है। साठ के दशक में, हमारे यहॉं गर्मियों की शाम की दावतों में मेहमान पूरे जोश से चाट पर टूट पड़ते थे। अब ऐसा नहीं है। अगर चाट पूरी तरह घर की बनी न हो, तो बाज़ार की चाट को कुछ नाज़ुक मिज़ाज मेहमान संदेह की निगाह से देखते हैं और उसे छोड़ देना ही बेहतर समझते हैं। शायद कुछ हद तक यह सही भी हो, सड़क से मिली चाट को पचाने के लिए वाकई लोहे का पेट चाहिए, भले ही शादियों में चाट की टेबल पर आज भी भीड़ जुटती हो।
चाट का ठेला एक लोकप्रिय अड्डा हुआ करता था, अब वह सब जैसे बीते ज़माने की बात हो गई है। फिर भी, अब जब मैं प्रदूषण और शोर से बचाकर बनाए गए, अपने बंद खिड़की-दरवाज़े वाले सुरक्षित घर में रहती हूँ, मेरा गेट अजनबियों के लिए बंद है, तब भी कभी-कभी मैं ख़ुद को स्वाद की उस खट्टी-मीठी चुभन की याद में डुबो देती हूँ। हमारा चाटवाला अब व्हाट्सऐप पर ऑर्डर लेता है। चाट अब मेरे घर की दहलीज़ पर, फॉयल की प्लेटों में आती है, मगर अब भी पीतल की पुरानी थाली पर सजी हुई। भेजने वाला वही आदमी है, जिसे हम दशकों से जानते हैं, वह कोई अजनबी नहीं।