चित्रांकन: बिमान नाथ | अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
यह कह सकते हैं कि सुल्तान का दरबार दिखने में असाधारण था। दरबार के दाहिनी ओर पुरुषों जैसे वस्त्रों में सजी तुर्क किशोरियाँ खड़ी थीं। वे संख्या में पाँच सौ थीं और सुल्तान की निजी अंगरक्षक थीं, हाथों में धनुष-बाण लेकर चौकस, तैयार! बिलकुल ऐसी ही पोशाक में पाँच सौ अन्य स्त्रियाँ बाईं ओर खड़ी थीं। लेकिन इन दोनों समूहों में एक बड़ा अंतर था— सुल्तान की बाईं ओर खड़ी स्त्रियाँ अबीसीनिया की थीं और इनके हाथों में धनुष-बाण नहीं, बल्कि आग्नेयास्त्र थे।
दरबार में उपस्थित इन हज़ार महिलाओं पर एक त्वरित नज़र डालने-भर से यह साफ़ ज़ाहिर हो जाता था कि उन्हें बड़ी सावधानी से चुना गया था, प्रशिक्षित किया गया था और उनकी अच्छी देखभाल की गई थी। सिर्फ़ यही नहीं, सुल्तान के पास संग-साथ के लिए चौदह हज़ार स्त्रियाँ और थीं। सुल्तान अपनी कमज़ोर होती कामेच्छा को लेकर चिंतित था। उसे लगता था कि अगर वह इन अप्सरा जैसी स्त्रियों की संगत में रहेगा, तो उसकी कामनाएँ फिर से जागृत होने लगेंगी।। इन स्त्रियों की गर्मजोशी के साथ-साथ, उसकी वासना को प्रज्ज्वलित करने के लिए विशेष रूप से शाही भोजन भी तैयार किया जाता था।
सुल्तान के इस दरबार-ए-ख़ास का एक विलक्षण पहलू और था : इसमें किसी पुरुष को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। यह दरबार उसके हरम के भीतर ही सजता था। इतिहासकारों ने इसका विस्तार से उल्लेख किया हैः ‘उसने अपने हरम के भीतर ही दरबार की सारी व्यवस्थाएँ स्थापित की थीं, और एक समय उसके महल में पंद्रह हज़ार स्त्रियाँ थीं। इनमें अध्यापिकाएँ, संगीतज्ञ, नर्तकियाँ, कढ़ाई करने वाली स्त्रियाँ, प्रार्थना पढ़ने वाली महिलाएँ और हर प्रकार के शिल्प और व्यवसाय में पारंगत महिलाएँ शामिल थीं।’[1]
सुल्तान का स्त्रियों के साथ इस तरह खुलेआम रहना, उसके प्रति उसके मंत्रियों के सम्मान में कोई कमी नहीं लाया। कोई फुसफुसाहट, कोई शिकायत उसके ख़िलाफ़ सुनाई नहीं देती थी। वह सचमुच एक अनोखा सुल्तान था। गद्दी पर बैठते ही उसने ऐलान कर दिया था कि अब वह युद्ध नहीं करेगा। अपने पिता की सल्तनत को बचाने के लिए जितना कर सकता था, उसने उतना किया। एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे तक दौड़ता रहा, युद्ध करता रहा और राजपाट को बचाया। लेकिन अब वह थक चुका था और हथियार छोड़कर सुख-चैन की ज़िंदगी बसर करना चाहता था। वह सोच रहा था—चौंतीस बरस तक लगातार जंग करने के बाद क्या उसे इतना भी अधिकार भी नहीं है?
सुल्तान ने अपना वादा निभाया था। राज्य पर संकट आने पर भी उसने युद्ध का कवच नहीं पहना। जब बहलूल लोदी ने उसके पड़ोस में स्थित रणथंभौर पर हमला किया, तो सुल्तान के दरबारी घबरा उठे; उनका घबराना वाजिब भी था। जब उन्होंने यह मामला सुल्तान के सामने रखा, तो उसने तनिक भी चिंता नहीं दिखाई। तब शाही दरबारियों को एक तरकीब सूझी- एकमात्र तरीक़ा, जिससे वे सुल्तान को जगा सकते थे। उन्होंने उसे विस्तार से, और डरावने ढंग से, बताया कि लोदी का हमला किस तरह उसके हरम के लिए एक बड़ा ख़तरा साबित हो सकता था! और इस बात ने जादू़-सा असर किया। हालाँकि सुल्तान ख़ुद जंग के लिए नहीं निकला, पर उसने चंदेरी के बहादुर शासक शेर ख़ान को बुलवा भेजा।
बढ़ते हुए लोदी को रोक दिया गया, और सुल्तान फिर अपनी पुरानी जीवनशैली पर लौट आया; यानी अपने हरम में व्यस्त हो गया। इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं थी। उल्टे, इतिहासकार इस बात की गवाही देते हैं कि उसके शासनकाल में प्रजा में एक अद्भुत संतोष देखने को मिलता थाः ‘यह एक विलक्षण तथ्य है कि उसके शासन में न तो कोई विद्रोह हुआ, न ही मालवा की सीमा पर किसी बाहरी शत्रु ने हमला किया…।’[2] बहलूल लोदी की घटना एकमात्र अपवाद थी, और सुल्तान ने उसे भी बुद्धिमानी से संभाल लिया; अपने उस वादे को तोड़े बिना कि वह फिर कभी हथियार नहीं उठाएगा। वह ऐसा इसलिए कर पाया कि उसके अधिकारी उसके प्रति पूरी तरह वफ़ादार थे और उन्होंने उसे कभी कमज़ोर नहीं समझा था। इतना ही नहीं, उसके उच्च-पदस्थ उमरा ने भी ‘दरियादिली की आस्तीन से उदारता का हाथ निकाला, और प्रजा के हर वर्ग को संतुष्ट व कृतज्ञ कर दिया।’[3]
यह सुल्तान और कोई नहीं, बल्कि ग़ियास-उद-दीन शाह था, जिसे इतिहास में ‘ग़ियात शाह’ के नाम से भी जाना जाता है। 1469 ईस्वी में अपने पिता महमूद शाह की मृत्यु के बाद वह गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठते ही, और अपनी ताजपोशी के जश्न के बीच ही, उसने दरबारियों के सामने एक बड़ा ऐलान कर डाला कि वह अब प्रशासन की ज़िम्मेदारियाँ ख़ुद नहीं निभाएगा। उसने अपने सबसे बड़े बेटे को ‘नासिर-उद-दीन’ की उपाधि दी, और उसे वज़ीर-ए-आला बना दिया। साथ ही, बारह हज़ार घुड़सवारों की सेना का सेनापति भी। अब मालवा सल्तनत की ज़िम्मेदारी नासिरुद्दीन के कंधों पर थी, जैसे कभी ग़ियात शाह ने अपने पिता के लिए निभाई थी।
अब सुल्तान के पास अपने हरम के लिए ढेर सारा वक़्त था। और हरम की महिलाओं के लिए बनवाए जा रहे जहाज़ महल की निगरानी के लिए भी। दो झीलों के बीच बना वह आलीशान महल पानी पर तैरते जहाज़ जैसा प्रतीत होता था, और इसी कारण उसे ‘जहाज़ महल’ कहा गया।
यही वह जगह थी, जहाँ सुल्तान के दरबार लगते थे। हरम की उन पंद्रह हज़ार हूरों के बीच दरबार का अकेला पुरुष वह ख़ुद था। अगर यह आपको किसी परिकथा की तरह लग रहा, तो ज़रा ठहरिए, हरम के बाक़ी क़िस्से-कहानियाँ भी कम नहीं हैं। कहा जाता है कि हरम में हर स्त्री को रोज़ दो सेर चावल और तांबे के दो टंके मिलते थे। एक दिन किसी ने महल में एक चूहे को देख लिया। बस, फिर क्या था, उसे तुरंत उस स्थान का वैध निवासी मान लिया गया, और रोज़ाना राशन का हक़दार भी! चूहे को बाक़ायदा उतनी ही सुविधा दी गई, जितनी औरों को मिलती थी। कहा जाता है कि हरम में जितने भी पालतू पक्षी व जानवर थे, चाहे वो कबूतर हों या तोते, उन्हें भी रोज़ाना उनका हिस्सा मिलना तय था। ये सब बातें फ़ारसी इतिहासकार मुहम्मद क़ासिम हिंदू शाह अस्तराबादी, जिन्हें ‘फ़रिश्ता’ के नाम से जाना जाता है, ने अपनी किताबों में दर्ज की हैं।
साथ ही, सुल्तान एक धर्मनिष्ठ मुसलमान भी था, पाँचों वक़्त की नमाज़ का पाबंद। उसे एक डर बार-बार सताता था कि सुबह की पहली नमाज़ के लिए वह समय से उठ नहीं पाएगा। उसने अपने सेवकों को सख़्त आदेश दे रखा था कि उसे किसी भी हालत में जगा दिया जाए। ज़रूरत पड़े, तो उसके चेहरे पर पानी छिड़कें, या बिस्तर से घसीट कर उठाएँ, लेकिन नमाज़ के वक़्त से पहले उसे उठा ज़रूर दें! दिलचस्प बात ये है कि ऐसा करने पर किसी सेवक को कभी कोई सज़ा मिलने की बात कहीं दर्ज नहीं है। वह अपने वचन का पक्का था और अपने हरम की महिलाओं की शिक्षा के लिए भी चिंतित रहता था। उसने सारंगपुर में केवल लड़कियों के लिए एक मदरसा बनवाया था। इसलिए आश्चर्य नहीं कि उसकी प्रजा उसे एक न्यायप्रिय और उदार शासक मानती थी।
लेकिन जिस वजह से ग़ियात शाह को आज भी सबसे ज़्यादा याद किया जाता है, वह है ‘निमतनामा’। फ़ारसी में ‘निमत’ शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं। अगर इसके साथ ‘ख़ाना’ जोड़ दिया जाए, तो इसका अर्थ होता है रसोई या भंडारगृह। पर जब यह अकेले प्रयोग होता है, तो इसका मतलब होता है ख़ज़ाना, धन-दौलत या ऐश्वर्य। संयोग से, इब्न बतूता ने बंगाल को एक बार ‘दोज़ख़-ए-पुर-निमत’ कहा था, यानी ऐश्वर्य से भरा हुआ नर्क! ‘निमत’ का अर्थ सुख-संवेदना, आनंद और सम्मान भी होता है, और इसमें शाही भोजन भी शामिल है! और यही शाही भोजन था ग़ियात शाह की ‘निमतनामा’ का मुख्य विषय। यह सिर्फ़ व्यंजनों की किताब नहीं थी। इस किताब और इसमें मौजूद मिनिएचर पेंटिंग में भोजन का उत्सव और पाक-कला का इतिहास दर्ज था, और भी बहुत कुछ! इसलिए यह किताब इतिहासकारों, भाषाविदों, कलाकारों और भोजनप्रेमियों के लिए एक अनमोल ख़ज़ाना है, क्योंकि यह पंद्रहवीं सदी के मालवा की जीवनशैली की एक सजीव तस्वीर पेश करती है। मालवा के रईसों का भोग-विलासी जीवन इस ग्रंथ के पन्नों में जीवंत हो उठता है, चाहे वो उनके पहनावे से जुड़ी बातें हों, घर की सजावट का ढंग, खाने-पीने की वस्तुएँ हों या उनका अभिजात्य शिष्टाचार। इस ग्रंथ की मूल प्रति आज ब्रिटिश लाइब्रेरी में सुरक्षित है।
इतिहासकारों के अनुसार, यह किताब ग़ियात शाह के जीवन के अंतिम चरण में लिखी गई थी। वह 1500 ईस्वी में मरा, और माना जाता है कि यह किताब 1495 से 1505 ईस्वी के बीच लिखी गई। इसमें उसके बेटे सुल्तान नासिरुद्दीन शाह का नाम किताब के पूर्ण शीर्षक में शामिल है- ‘निमतनामा-ए-नासिरुद्दीन शाही’, क्योंकि उसने इसमें कुछ चीज़ें जोड़ी थीं। संयोग से, नासिरुद्दीन ने अपने पिता को गद्दी से हटा दिया था, और इस घटना के मात्र चार महीने बाद, ग़ियात शाह की लाश उसके हरम में पाई गई थी। इतिहासकार फ़रिश्ता के अनुसार, संभवतः ज़हर दिए जाने से उसकी मृत्यु हुई थी, और इस तरह के षड्यंत्र महल के भीतर तब शुरू हुए थे, जब सुल्तान का स्वास्थ्य ढलने लगा था यानी लगभग 1497 ईस्वी के आसपास। जब नासिरुद्दीन राजधानी से बाहर गया हुआ था, सुल्तान के छोटे बेटे शुजात ने ताज पर दावा ठोंक दिया था। लेकिन जैसे ही वफ़ादारों ने नासिरुद्दीन को इस बात की ख़बर दी, वह तुरंत माण्डू लौट आया। उसके वफ़ादारों ने तारापुर का दरवाज़ा खुला रखा था, ताकि वह क़िले में प्रवेश कर सके। शुजात ने अपने पिता के हरम में शरण ली, मगर ग़ियात शाह न तो शुजात को नासिरुद्दीन के क्रोध से बचा सका, और न ही उसके बच्चों व परिवार के अन्य सदस्यों को।
अब सवाल उठता है, जब सुल्तान के प्रति अधिकारियों में इतना सद्भाव था, तो उन्होंने उसे धोखा क्यों दिया? कुछ लोग, हमेशा की तरह, ऐसी बातों के लिए किसी स्त्री को ज़िम्मेदार मानते हैं। ख़ुर्शीद बेगम, हरम में ग़ियात शाह की सबसे चहेती थी, और इसका फ़ायदा उठाते हुए उसने माण्डू के शासन में दख़ल देना शुरू कर दिया था, वह भी सुल्तान की खुली रज़ामंदी से। शुजात उसके सहयोग से गद्दी के क़रीब आना चाहता था, मगर ख़ुर्शीद बेगम, अमीरों को इतना नाराज़ कर चुकी थी कि उन्होंने शुजात और ख़ुर्शीद बेगम के ख़िलाफ़ नासिरुद्दीन का समर्थन करना चुना। नासिरुद्दीन ने ख़ुर्शीद बेगम को भी नहीं छोड़ा। उसे शुजात के मारे जाने से पहले ही क़ैद कर लिया गया था। [4]
नासिरुद्दीन भले अधिकारियों की मदद से सुल्तान बना था, लेकिन उसका स्वभाव ऐसा था कि वह लोगों पर सहजता से विश्वास नहीं कर पाता था। गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह अपने अधिकारियों से कटने लगा, और अंततः यह दूरी ही उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। इतिहास उसके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहता, सिवाय इसके कि उसने अपने पिता की अधूरी किताब ‘निमतनामा’ पूरी की, और इसी वजह से वह सदियों तक भोजनप्रेमियों की याद में बना रहेगा।
यह कहना कि ‘निमतनामा’ चौंकाने वाले तथ्यों से भरा है, शायद एक कम-बयानी होगी। इस किताब की शुरुआत होती है तिलचट्टों की स्तुति से! प्रारंभ की कुछ पंक्तियाँ बड़े और स्पष्ट अक्षरों में लिखी हैंः ‘या कबीकज! हे तिलचट्टों के महान सुल्तान! पाक-कला को समर्पित मेरी इस भेंट को कृपया बख़्श दें।’ फ़ारसी भाषा के विद्वान फ्रांसिस जोसेफ स्टेनगास के अनुसार, भारत समेत कई देशों के प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार एक आरंभिक मंगलाचार की परंपरा थी, जिसका उद्देश्य यह होता था कि कीड़ों से किताब की रक्षा की जा सके यानी अगर लेखक सीधे तिलचट्टों के राजा को संबोधित कर ले, तो उसकी किताब बच जाएगी। ग़ियात शाह ने इस मामले में कोई जोखिम नहीं उठाया। उसने न केवल आरंभ में यह परंपरा निभाई, बल्कि किताब के अंत में भी इसे दोहराया![5]
‘निमतनामा’ में शामिल पचास मिनिएचर पेंटिंग्स का अध्ययन करना अपने आप में एक शोध है। इन चित्रों में उस युग के मालवा के अभिजात वर्ग की जीवनशैली, स्थापत्य, और वस्त्रों का चित्रण मिलता है। हर चित्र एक बहुमूल्य रत्न के समान है। कला इतिहासकारों के अनुसार, ये चित्र दक्षिणी इस्लामी शैली के शुरुआती उदाहरण हैं, जिसमें पश्चिम-मध्य भारत की कला और फ़ारस की शीराज़ी शैली का मेल है। ‘निमतनामा’ के पहले कुछ चित्र शीराज़ी शैली में बनाए गए हैं, लेकिन धीरे-धीरे चेहरों के भाव, वस्त्रों और इमारतों में एक भारतीय स्पर्श उभरने लगता है।
किताब में चित्रों की प्रस्तुति भी अनोखी थी। चित्रों के चारों ओर हाशिये पर कैप्शन लिखे हुए थे, जिनमें उन व्यंजनों का उल्लेख था, जिनकी रचना चित्रों में दिखाई गई है। कुछ शब्द जो कैप्शन के साथ-साथ मुख्य पाठ में भी थे, उन्हें कैप्शन में लाल रंग से लिखकर उभार दिया गया था। बाक़ी के सारे शब्द काले रंग में थे। कुछ चित्रों में सुल्तान को दर्शकों को इत्रों के उपयोग या स्वास्थ्यवर्धक जीवनशैली के बारे में बताते हुए दिखाया गया था। बाक़ी चित्रों में पुलाव, हलवा, शरबत, समोसा, सीख कबाब, कामोत्तेजक औषधियाँ, सुगंधित दवाएँ, यहाँ तक कि पान-सुपारी अर्पण करने की विधियाँ, सुल्तान का शिकार, मछली पकड़ना और पानी ठंडा करने के उपाय भी दर्शाए गए हैं।
हर मिनिएचर में सुल्तान ही भोजन तैयार करते दिखाई देता है, उनके चेहरे पर संतोष की झलक होती है। चित्रों में, पृष्ठभूमि में, रसोई के केंद्र में महिलाएँ प्रमुखता से नज़र आती हैं। पुरुषों की उपस्थिति, अगर है भी, तो केवल शिकार या इत्र-निर्माण जैसे दृश्यों तक सीमित है। बाक़ी सभी दृश्यों में महिलाएँ ही प्रमुखता से दिखती हैं, उस दृश्य में भी, जब सुल्तान मछली पकड़ रहा होता है। इन चित्रों ने ‘निमतनामा’ को एक साधारण व्यंजन-ग्रंथ से ऊपर उठाकर एक सांस्कृतिक ग्रंथ में बदल दिया है।
भाषाविदों के अनुसार, ‘निमतनामा’ की भाषा अद्भुत और विशिष्ट है। यह मुख्य रूप से उर्दू में लिखी गई थी, जो उस समय नवजात थी, इसलिए इसमें फ़ारसी का प्रभाव बहुत अधिक है। और इसकी लिखावट! नस्ख़ के बोल्ड अक्षरों का प्रयोग करने वाली माण्डू कैलीग्राफी में एक अनोखी शैली थी।
अब बात करते हैं व्यंजनों की। ‘निमतनामा’ में सबसे ज़्यादा चर्चा जिन हिस्सों की होती है, वे हैं कामोत्तेजक खाद्य पदार्थों की विधियाँ। ग़ियात शाह इन्हें लेकर संकोची नहीं थे, जैसाकि स्वाद के प्रेमी पूर्ववर्ती शासक अक्सर रहा करते थे। कामोत्तेजक भोज्य पदार्थों की परंपरा निःसंदेह बहुत पुरानी है, लेकिन प्राचीन ग्रंथों में इनके विस्तृत विवरण बिरले ही मिलते हैं। ग़ियात शाह ने तो इन पुरानी विधियों का इतिहास तक बताया है, जो उनके पूर्वज दिलावर ख़ान ग़ोरी के समय से जुड़ा है, जोकि चौदहवीं सदी में मालवा का पहला सुल्तान था। उस समय फ़िरोज़ शाह दिल्ली का सुल्तान था और उसने दिलावर ख़ान को मालवा भेजा था, जहाँ पहुँचकर बाद में वह ख़ुद स्वतंत्र शासक बन गया। दिलावर अपने साथ दिल्ली से एक विशेष कामोत्तेजक व्यंजन की गुप्त विधि भी लाया था, जो बाद में मालवा के सुल्तानों की प्रिय बन गई। ग़ियात शाह ने इस व्यंजन की विधि अपनी किताब में लिखी, साथ ही कई अन्य कामोत्तेजक खाद्य पदार्थों की भी।
लेकिन इन कामोत्तेजक व्यंजनों में उतरने से पहले, एक ऐसी रेसिपी है जिसे साहसी पाठक आज़माकर देख सकते हैं। इस व्यंजन का नाम है ‘मोंगल यख़नी’। इसके लिए ज़रूरत है पहाड़ी भेड़ के माँस की, साथ ही जंगली पक्षी की, जो यदि उपलब्ध न हो, तो हिरण से भी काम चल सकता है। अगर पहाड़ी भेड़ न मिले, तो सामान्य भेड़ भी चलेगी। माँस को पहले लकड़ी के सोंटे से अच्छी तरह कूटकर नरम करें। फिर धीमी आँच पर पकाएँ। हींग, इलायची, लौंग, ज़ीरा और मेथी का पेस्ट, काली मिर्च, प्याज़, अदरक और सुगंधित घी मिलाएँ, और लीजिए, तैयार है मोंगल यख़नी। ध्यान रहे कि माँस को पतली सलामी जैसी स्लाइस में काटकर परोसें। यदि उसे नींबू के रस में डुबो कर खाया जाए, तो उसका स्वाद एकदम ‘ग़ियात शाही’ अंदाज़ में और भी निखर आता है।
हो सकता है, आप ये व्यंजन घर पर न बनाना चाहें, क्योंकि इनके लिए मिट्टी का चूल्हा चाहिए। उन दिनों, गड्ढा खोदकर चूल्हा बनाया जाता था, जिसे सुल्तान के बावर्चियों की टीम, शिकार के समय या राजधानी से बाहर यात्राओं के दौरान तैयार करती थी। साथ चल रहे सैनिकों को भी इस दावत से वंचित नहीं रखा जाता था, क्योंकि शाही बावर्ची एक साथ सैकड़ों लोगों के लिए पकाते थे। ये गड्ढेनुमा चूल्हे लगभग तीन फ़ुट लंबे और दो फ़ुट चौड़े होते थे। आग जलाकर इन्हें पहले से गरम कर दिया जाता था। फिर उसमें गोल पत्थर रखे जाते थे, जो तेज़ी से लाल-गरम हो जाते थे। माँस के लिए जंगली भेड़ या बीफ़ का उपयोग होता था। मोंगल यख़नी के मसालों के साथ हल्दी, नींबू का रस और घी भी मिलाया जाता था। मिट्टी के चूल्हे में सबसे पहले केले के पत्ते बिछाए जाते, फिर उन पर माँस रखा जाता, फिर ऊपर पत्तों की एक और परत, और उसके ऊपर फिर माँस की परत। इन पत्तों और माँस की परतों के बीच गरम पत्थरों की एक परत भी रखी जाती। जब लगभग दर्जन-भर भेड़ों का माँस उस चूल्हे में भर दिया जाता, तो उसे मुलायम मिट्टी से अच्छी तरह बंद कर दिया जाता। फिर, ऊपर से लकड़ी की आग से चूल्हे को और गरम किया जाता। फिर प्रतीक्षा होती कि कब धुएँ से भरा माँस, केले के पत्तों और जली हुई मिट्टी की खुशबू से भर जाए, और तब उसे बाहर निकाला जाए, सिरके या नींबू के रस के साथ परोसा जाए।
‘निमतनामा’ में मिट्टी के चूल्हों को बनाने की विधि भी स्पष्ट रूप से दी गई है। ग़ियात शाह को शिकार का बहुत शौक़ था, इसलिए बाहर, मैदानों में पकाए जाने वाले भोजन का ज़िक्र भी किताब में स्वाभाविक रूप से आया है। मिट्टी के चूल्हों का इतिहास पुराना है, मगर शाही बावर्चियों ने उसमें कई नवाचार किए और अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित की। कभी-कभी वे चूल्हे की तह में फूलों की परत बिछाते थे, और केले के पत्तों और माँस की परतों के बीच सुगंधित फूल भी रख देते थे।
अगर आप सोच रहे हैं कि ‘निमतनामा’ में मछली का ज़िक्र है या नहीं, तो जान लीजिए कि इसकी मछली-व्यंजन विधियाँ किसी ख़ज़ाने से कम नहीं हैं। इनमें से एक है ‘मछली-लोफ़’, जिसे लंबे समय तक संरक्षित रखा जा सकता है, और जब अचानक कोई मेहमान आ जाए, तो ये बहुत काम आ सकता है। शुरुआत करें बिना काँटे की मछली से। तेल गरम करें, उसमें चुटकी-भर हींग डालें और फिर मछली का क़ीमा पकाएँ। फिर उसमें नींबू के ताज़े पत्ते, इलायची के दाने, लौंग, ज़ीरा और मेथी का पेस्ट, नमक, नींबू का रस डालें, और एक रात के लिए रख दें ताकि वह अच्छी तरह मेरिनेट हो जाए। यह मिश्रण गुंदे हुए आटे की तरह सूखा हो जाए। अगले दिन उसके छोटे-छोटे लोफ़ बना लें और तेज़ धूप में सुखा लें, फिर किसी बर्तन में सुरक्षित रख लें। इसे तलने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि ‘मछली-लोफ़’ वैसे ही स्वादिष्ट होता है, हालाँकि आप चाहें, तो इसे डीप फ्राय भी कर सकते हैं। अगर आप मछली के शौक़ीन नहीं हैं, तो इसकी जगह बटेर या हिरण का माँस इस्तेमाल कर सकते हैं।
‘निमतनामा’ की सबसे बड़ी चौंकाने वाली बात है शाकाहारी व्यंजनों को समर्पित खंड। सामान्य धारणा यही है कि सुल्तानी रसोई में मांसाहारी व्यंजनों का वर्चस्व रहता था, और उनके हर व्यंजन में लहसुन-प्याज़, मछली और माँस की गंध अवश्य रहती थी। ‘निमतनामा’ इस मिथक को तोड़ता है, उसमें शाकाहारी व्यंजनों की विस्तृत विधियाँ दी गई हैं। जैसे, खीरे और खरबूजे के बीजों के पेस्ट से बने व्यंजन का विवरण। इन बीजों को कूटकर थोड़ा आटा मिलाकर पेस्ट बनाया जाता था, फिर उससे छोटे-छोटे गोले बनाए जाते थे। घी में तलने के बाद उन्हें जड़ी-बूटियों के साथ सेंका जाता था। फिर कपूर और गुलाबजल मिलाकर जो स्वाद मिलता था, वह विशुद्ध ‘ग़ियात शाही’ स्वाद होता था।
‘निमतनामा’ की अधिकांश रेसिपी में एक दिलचस्प सामग्री दिखाई देती है—हिरण की कस्तूरी। इसके साथ-साथ हींग, शुद्ध घी, केसर और कस्तूरी गंधयुक्त एम्बरग्रिस भी इस्तेमाल होता था, जो इन व्यंजनों को एक विशिष्ट स्वाद देते थे। हालाँकि आधुनिक खानपान प्रेमियों को निराश होने की ज़रूरत नहीं, कस्तूरी और एम्बरग्रिस की जगह दालचीनी और इलायची का उपयोग भी किया जा सकता है। आज के लोकप्रिय व्यंजन भी ‘निमतनामा’ की सामग्रियों से एक नया स्वाद पा सकते हैं। जैसे, क़ीमा कोफ़्ता। उबली हुई मूँग दाल और क़ीमे का पेस्ट बनाकर गोले बनाएँ और घी में तल लें। किशमिश, बादाम, पिस्ता, चिलगोज़ा, चारोली और नारियल के पेस्ट से ग्रेवी तैयार करें। ऊपर से कपूर और गुलाबजल से सजाएँ, और आपका क़ीमा कोफ़्ता एक विशिष्ट मालवी स्वाद पा जाएगा।
और शेख़-कबाब रोल का क्या? इसके लिए बस हल्दी, नमक और प्याज़ की ज़रूरत है, लेकिन आप चाहें, तो कुछ हरी सब्ज़ियाँ भी डाल सकते हैं। इन सबको मिलाकर उबाल लें। फिर माँस के गूँथे हुए मिश्रण के छोटे-छोटे टुकड़े सींखों पर चढ़ाएँ, साथ में सब्जियों के टुकड़े और प्याज़ भी लगाएँ, और इन पर घी, केवड़ा, एम्बरग्रिस, गुलाबजल, नमक और नींबू के रस का लेप करें।
खिचड़ी भी एक और लोकप्रिय व्यंजन बनकर उभरती है, जो ग़ियात शाह की शाही रसोई में परोसी जाती थी। या फिर लड्डू और शरबत। यहाँ तक कि समोसा भी! ऐसा प्रतीत होता है कि उस ज़माने में भी समोसा इतना लोकप्रिय था कि ग़ियात शाह, ‘निमतनामा’ में इसे बनाने की अनेक विधियाँ दर्ज करना नहीं भूले। यहाँ देखिए समोसे की एक विधिः भेड़ के क़ीमे में हल्दी, ज़ीरा, मेथी, धनिया, इलायची और लौंग मिलाएँ। एक कड़ाही में घी गरम करें और उसमें हींग छिड़कें। जब घी की ख़ुशबू आने लगे, तो क़ीमे का मिश्रण उसमें डालें। जब वह पक जाए, तो उसमें नींबू का रस, काली मिर्च और अदरक-प्याज़ मिलाकर हटा लें। फिर थोड़ा कपूर और कस्तूरी डालें। इस भरावन से समोसा बनाएँ और घी में तलें। ये समोसे छोटे और बड़े दोनों हो सकते हैं। छोटे तो बस एक निवाले में खाए जा सकते हैं। और हाँ, साथ में सिरके या नींबू के रस की चटनी देना न भूलें।
‘निमतनामा’ एक वास्तविक पेज-टर्नर है, जिसे खाने के शौक़ीनों ने पाक-कला के क्षेत्र में लगभग ‘अरेबियन नाइट्स’ के समकक्ष माना है! इसे पढ़ना एक कल्पना-लोक की यात्रा जैसा है, और जब कोई पढ़ता है कि चावल की एक साधारण-सी थाली, कस्तूरी, चंदन, सफ़ेद एम्बरग्रिस और गुलाबजल की ख़ुशबू के साथ परोसी जाती थी, तो उसे ऐसा लगता है, जैसे वह अप्सराओं के बीच बैठा हो! मगर पाठक जानता है कि यह कोरी कल्पना नहीं है, क्योंकि हर सामग्री का सटीक माप ‘निमतनामा’ में स्पष्ट दिया गया है। (इन सामग्रियों की मात्रा दो दिरहम यानी लगभग आधा ग्राम बताई गई है।) जब पाठक इस कल्पनालोक से वास्तविकता में लौटता है, तो उसके मन में एक तीव्र इच्छा जाग उठती है कि इन व्यंजनों को अपनी रसोई में आज़मा कर देखा जाए।
भोजन के अलावा, ‘निमतनामा’ में इत्रों के प्रयोग की विधियाँ भी दी गई हैं। कैसे शरीर के मोड़ों, जोड़ों, और त्वचा की तहों में सुगंधित तेल लगाकर ख़ुशबू को देर तक बनाए रखा जाए, या कैसे अपने कपड़ों और बालों में सुगंध बसाई जाए। यहाँ तक कि भोजन की महक को भी देर तक बनाए रखने की युक्तियाँ दी गई हैं। फिर इत्र तैयार करने के निर्देश भी दिए गए हैं! इनकी सामग्री की सूची किसी भी पाठक की कल्पना को गुदगुदा सकती है, जैसे सुगंधित घोंघा, गन्ने की खोई, सुगंधित घास, ख़ुशबूदार फूल, कस्तूरी, चंदन, एम्बरग्रिस, कपूर, गुलाबजल, साथ में अगरबत्ती, केसर, संतरे के छिलके, शहद, लौंग का तेल।
फिर लौटते हैं कामोत्तेजक खाद्य पदार्थों की ओर। हर नुस्खे के साथ यौन सुख में ज़बरदस्त वृद्धि की गारंटी दी गई है। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ की एक प्रसिद्ध विधि के साथ एक सख़्त चेतावनी भी हैः ‘हर दिन एक गोली खाओ, वीर्य प्रवाह शुरू!’[6] इसके लिए सामग्रियाँ जुटाना कोई मुश्किल नहीं है। जावित्री, लौंग, खसखस, केसर, अजवायन और चमेली—हर एक की पाँच दिरहम मात्रा चाहिए। इन सबका पेस्ट बनाकर शहद में मिलाएँ और गोलियाँ बना लें। हर दिन पान के पत्ते के साथ एक गोली खाएँ, और आपकी बिस्तर की सारी परेशानियाँ दूर हो जाएँगी।
यह लीजिए, यौन शक्ति बढ़ाने के लिए एक और जबरदस्त रेसिपी : दस सेर खो़रासानी सफ़ेद प्याज़ को गोल छल्लों में काटें। घी में सुनहरा होने तक तलें, और पहले से तले हुए कम उम्र के कबूतर का माँस मिलाएँ। फिर क़रीब आधा किलो लाल सेम और चना डालें। जब सेम और चने नरम हो जाएँ, तब एक दिरहम दालचीनी, आधा दिरहम कुलंजन और सूखी रोटी के टुकड़े मिलाएँ। जब बीन्स-माँस का यह मिश्रण एक गाढ़े पेस्ट जैसा बन जाए, तो आँच से उतारें और त्रिकोण आकार में काट लें। इस पर सोने के वर्क़ लगाएँ। ‘निमतनामा’ इसे ‘भंगड़ा विधि’ कहता है। इसे तंदूरी रोटी और चिकन सूप के साथ खाना चाहिए। ग़ियात शाह के अनुसार, यह ‘वीर्य प्रवाह को बढ़ाता है और यौन इच्छा को बल देता है।’[7]
ऐसे और भी कई रत्न हैं। सिर्फ़ गोलियाँ ही नहीं, बल्कि मलहम भी! इसके लिए चाहिए गाय और भेड़ का दूध, ताज़ा मक्खन, गाय के दूध का घी और शहद—सबको अच्छे से मिलाएँ। फिर एक-एक करके मिलाएँ- इलायची, खजूर, चिरौंजी, आँवला, खसखस, लौंग, भुने हुए चने, खजूर की मिश्री, काली मिर्च, चिलगोजा, सूखी सोंठ, चना, बादाम, अंजीर, हरड़, अकरकरा और किशमिश। इन सबको पेस्ट बनाकर जननांगों पर मलें। ‘निमतनामा’ में ग़ियात शाह का वादा है कि ‘यह रति-क्रिया को अत्यंत सुखद और आरामदायक बना देता है।’[8]
कहीं आप सुल्तान को सिर्फ़ एक कामोन्मादी भोग-विलासी न समझ बैठें, इसलिए ‘निमतनामा’ में संकट की स्थिति में काम आने वाली दवाइयों के निर्देश भी हैं। शिकार पर गए हों और घोड़े पर लंबी सवारी करके थक गए हों? या फिर लू लग गई हो? ‘निमतनामा’ में इसका भी सही इलाज है। जितने भी फूल और फल मिल सकें, उन्हें मरीज़ के बिस्तर पर बिछा दें। किसी मज़ाकिया आदमी को बुलाएँ, जो मरीज़ का मन बहलाए। मरीज़ को बड़ा व छोटा खीरा और उसके साथ जंगली अंजीर खिलाएँ, और उस पर थोड़ा इत्र छिड़कें। एक रहट मंगवाएँ और उस पर पानी गिराएँ। जला हुआ कपूर और खीरे के पत्ते गुलाबजल में मिलाकर मरीज़ के शरीर पर लगाएँ। गीले कपड़े से बार-बार स्पंज करें। एक बर्तन में पानी भरें, जिसके ढक्कन में छेद हो। चादर लें… [पाठ अपठनीय] महीन कपड़ा पहनाएँ। गुलाबजल, कपूर और चंदन से एक ठंडी पट्टी तैयार करें। इस घोल में एक बड़ा कपड़ा भिगोएँ और उसे सिर के ऊपर झुलाते रहें। सिर-आँखों-सीने पर मोती की शॉल लपेटें। धातु या लकड़ी की थाली से पंखा करें, या फिर गीले मलमल से। मरीज़ को ठंडा खाना और पेय दें। बर्फ-सी ठंडी चमेली की पंखुड़ियाँ आँखों पर रखें… [पाठ अपठनीय]
शिकार के दौरान लू की बात तो बहुत हुई, अगर हरम में ही गर्मी लग गई तो? मालवा की गर्मियों में ग़ियात शाही हरम की औरतों के बेहोश हो जाने के भी इलाज बताए गए हैं। नींद न आने की शिकायत करने वाले पुरुषों के लिए ग़ियात शाह की सलाह है कि एक मधुरभाषिणी स्त्री का साथ प्राप्त करें। पीछे सरोद की धुन बजती रहे। शयनकक्ष फूलों और फलों की सुगंध से महकता हो। और फिर उस स्त्री के गीले होंठ धीरे-धीरे पुरुष पर उतरें, और पुरुष को अनिद्रा से मुक्ति दें।
इस अनोखी किताब में ऐसी हज़ारों हिदायतें दर्ज हैं। यह सिर्फ़ एक रेसिपी-बुक नहीं, बल्कि जीवन के उत्सव का दस्तावेज़ है। और यह किताब पाठक को सदियों पार ले जाकर उस दौर की कहानियाँ सुनाती है, जहाँ एक सहज माहौल में संस्कृतियों का संगम होता था; वे कहानियाँ हमारे ज़हन से होकर गुज़रती हैं, हर बार चौंकाती हैं, और सोचने पर मजबूर कर देती हैं।
[1] मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता, हिस्ट्री ऑफ़ द राइज़ ऑफ़ द मोहम्मडन पावर इन इंडिया, टिल द ईयर ए.डी. 1612, अनुवाद: जॉन ब्रिग्स, खंड IV, ओरिएंटल बुक्स रीप्रिंट कॉर्पोरेशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 143
[2] वही, पृष्ठ 143
[3] दि निमतनामा मैन्युस्क्रिप्ट ऑफ़ द सुल्तान्स ऑफ़ मांडू, द सुल्तान्स बुक ऑफ़ डिलाइट्स, अनुवादः नोरा एम. टाइटली, रूटलेज कर्ज़न, लंदन एंड न्यूयॉर्क, 2005, परिचय पृष्ठ
[4] रुचिका शर्मा, थिंकर, टेलर, स्पाई: द एक्स्ट्राऑर्डिनरी वुमन ऑफ़ ग़ियास-उद-दीन ख़िलजीज़ हरेम, स्क्रॉल.इन, 22 मार्च 2017
[5] दि निमतनामा, परिचय पृष्ठ
[6] दि निमतनामा, पृष्ठ 33
[7] दि निमतनामा, पृष्ठ 55
[8] दि निमतनामा, पृष्ठ 34