अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
फोटो – दिनेश पी शुक्ला
यदि आप गुजरात में हों और कोई कहे, “एगलेस,” तो आप रुककर पूछते हैं, “माफ़ कीजिए, आपने क्या कहा?”
“एगलेस…”
यह शब्द कई तरीक़ों से बोला जा सकता है; जैसे ‘अगलेस,’ ‘एजलैस,’ ‘एग्लेस,’ या ‘एक-लेस,’ इसलिए कानों को ‘एगलेस’ शब्द सहजता से नहीं चुभता। यह सिर्फ़ ‘कम अंडा’ नहीं, बल्कि ‘बिना अंडा’ होता है। मतलब- केक में बिल्कुल अंडा नहीं होना चाहिए। यह बात किसी कुशल रसोइए, बेकिंग के प्रेमी या असली केक पसंद करने वाले को चौंका सकती है। लोग कहते हैं कि ‘एगलेस’ केक देखने में बिल्कुल असली जैसा लगता है, लेकिन केक ख़ुद जानता है कि वह कुछ अलग है। मैदे, सूजी, क्रीम, दही, बेकिंग सोडा, टूटी-फ्रूटी, मेवे वग़ैरह से बना यह केक स्वाद में चॉकलेटी या क्रीमी हो सकता है, लेकिन उसमें एक सूक्ष्म अंतर होता है – वह थोड़ा चूर-चूर हो सकता है या हल्का चिपचिपा भी। पर यह अंतर वही पकड़ सकता है, जिसकी स्वादेन्द्रियाँ केक की बारीकियाँ पहचानती हों। मैंने दोनों तरह के केक खाए हैं – अंडे वाले भी और बिना अंडे वाले भी – और मुझे लगता है कि दोनों के बीच ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। बस, एक रहस्य मेरे लिए अब तक नहीं सुलझ पाया है कि कि भला गुजरात का सबसे पसंदीदा ब्लैक फॉरेस्ट केक बिना अंडे के कैसे बन सकता है? इसका कोई सीधा उत्तर नहीं मिलता, क्योंकि कई केक-प्रेमी ज़रूरत पड़ने पर अंडे को अनदेखा कर देते हैं।
एगलेस केक हैंडवो-पॉट में, कुकर में, तवे पर या ओवन में भी बनाए जा सकते हैं। दरअसल, मैं उन लोगों की नवाचार-क्षमता की सराहना करती हूँ, जिन्होंने एगलेस केक जैसी चीज़ बनाई। जैसा कि मुझे बताया गया; यह सेहतमंद होता है, इसमें कोलेस्ट्रॉल कम होता है और तनावमुक्त भी, क्योंकि इसे आप बिना किसी झिझक के सबको परोस सकते हैं – “इसमें अंडा तो नहीं है” जैसी चिंता किए बिना।
मुझे एग-लेस केक को अपनाने में बहुत समय लगा, क्योंकि बचपन में केक घर पर ही बनते थे और उनके लिए बैटर तैयार करते समय मैं ख़ुद दर्जनों अंडे फेंटा करती थी। अंडे और केक, मेरे लिए पर्यायवाची हैं। अब तो एगलेस केक हर बेकरी में मिलते हैं, और घर पर केक बनाने वाले भी उसे बेचते हैं। बेकिंग के तरीक़े भी मिट्टी के चूल्हों से बदलकर इलेक्ट्रिक ओवन तक पहुँच गए हैं। समय बीतता गया और मैं इस बात को भूल ही गई कि केक में अंडे होते हैं; लेकिन एक दिन किसी मेहमान ने केक का टुकड़ा विनम्रतापूर्वक इसलिए ठुकरा दिया कि उसमें अंडा था। शायद कुछ लोगों की सूँघने की शक्ति इतनी तेज़ होती है कि अच्छे-से पके केक में भी उन्हें अंडे की महक आ जाती है।
क्रिसमस हो या जन्मदिन; अहमदाबाद के लोग हर संभव अवसर को केक के साथ मनाते हैं, लेकिन ज़्यादातर मामलों में वो ‘एगलेस’ ही होना चाहिए। यही नहीं, लहसुन को लेकर भी लोगों की वैसी ही प्रतिक्रिया होती है, जैसी अंडे को लेकर। मुझे इसका अंदाज़ा तब हुआ, जब मैंने एक नई बेकरी में जाकर गार्लिक ब्रेड माँग लिया। काउंटर पर खड़ा व्यक्ति नाराज़ हो गया और बोला, “यह एगलेस बेकरी है।” उसका मतलब यह था कि यहाँ लहसुन भी वर्जित है। मैं हैरान रह गई – ब्रेड के मामले में अंडे और लहसुन का क्या संबंध हो सकता है?
मेरी उलझन और बढ़ी, जब मैंने देखा कि शादी-ब्याह या विशेष आयोजनों में बाकायदा अलग-अलग टेबल लगाए जाते हैं, जिन पर लिखा होता है- ‘नो-ऑनियन, नो-गार्लिक।’
हालॉंकि, इन दिनों मैंने ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात की है, जो ‘एगेटेरियन’ हैं या गुपचुप नॉन-वेज भी खाते हैं, और देर रात को अहमदाबाद की पुरानी बस्ती की भटियार गली में आमलेट या कबाब खाने पहुँच जाते हैं।
यहीं एक दुकान पर मैंने एक बोर्ड देखा – ‘सात्विक चिकन!’ मैंने पूछा, “यह क्या होता है?” वह बोले, “यह बिना लहसुन, बिना प्याज़ वाला चिकन है!”
साठ के दशक के अंत से लेकर अब तक कुछ सड़कें रात बारह बजे के बाद मसाला आमलेट बेचने वाली गाड़ियों से सज जाती हैं, क्योंकि कुछ शाकाहारी लोग रात में अंडा खाने की तलब से बाहर निकलते हैं।
यह बदलाव शायद इसलिए आया है कि अहमदाबाद के लोग अब दुनिया-भर की यात्रा करने लगे हैं, और उस अनुभव ने इस मुख्यतः शाकाहारी शहर के खानपान को भी बदलना शुरू कर दिया है।
मैंने महसूस किया है कि महामारी के दौरान और उसके बाद, लोगों की खान-पान की आदतों में बड़ा बदलाव आया है। नए-नए प्रयोगात्मक और फ़्यूज़न व्यंजन उभरे हैं, जो डिस्पोज़ेबल पैकेटों में दरवाज़े तक पहुँचने लगे हैं। इन पकवानों में पारंपरिक स्वाद नहीं होता, लेकिन इनमें विभिन्न अंतरराष्ट्रीय स्वादों की झलक ज़रूर होती है।
मैंने यह भी देखा कि बच्चों को अब वाफ़ल्स और पैनकेक जैसे व्यंजन अधिक भाने लगे हैं, जबकि खाखरा, थेपला और खिचड़ी जैसे पारंपरिक गुजराती व्यंजन धीरे-धीरे रोज़मर्रा के खाने से ग़ायब होने लगे हैं। फिर भी, कुछ महिलाएँ आज भी खाखरे और थेपले बनाती हैं, ‘सोनल बेन’ या ‘इंदु बेन खाखरावाला’ जैसे ब्रांडनेम के साथ। यह जानकर अच्छा लगता है कि ये पारंपरिक, संतुलित व्यंजन आज भी विदेश जाने वाले विद्यार्थी, एनआरआई या दुनिया की सैर करने वाले लोग ख़रीदते हैं और अपने साथ ले जाते हैं।
इसी दौर में एक बड़ा बदलाव और देखने को मिला- अब ‘एगलेस’ शब्द की जगह लोग सीधे पैकेट पर लगे दो प्रतीक बिंदुओं को देखने लगे हैं— हरा बिंदु शाकाहारी के लिए और लाल बिंदु मांसाहारी के लिए।
मुझे यह ‘बिंदु-भेद’ बड़ा अखरता है। अब मैं केक, बिस्कुट या यहाँ तक कि खाखरे भी किसी को भेंट नहीं करती, उसकी जगह फूल देना ज़्यादा पसंद करती हूँ, इस आशा में कि खाद में कोई पशु-उत्पाद न मिला हो।
धीरे-धीरे, मैंने यह पाया कि ‘नॉन-वेजिटेरियन’ शब्द अब केवल खाने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि हमारे दैनिक जीवन की कई परतों से जुड़ गया है। मसलन, अगर आप पश्चिम अहमदाबाद में कोई फ्लैट ढूँढ़ रहे हैं, और आपका नाम या सरनेम थोड़ा अलग है, तो एजेंट या मकान-मालिक आपको संदेह की निगाह से देखते हैं और पूछते हैं, “आप अंडा खाते हैं?… माफ़ कीजिए, हम नॉन-वेजिटेरियन लोगों को फ्लैट नहीं बेचते या किराये पर नहीं देते।” आप उनसे बहस नहीं करते, बस चुपचाप वहाँ से चले आते हैं, भीतर ही भीतर किसी नरभक्षी जैसा होने का अपराधबोध लिए हुए। और फिर एक ऐसे कॉस्मोपॉलिटन इलाक़े की तलाश में निकल पड़ते हैं, जो आज के अहमदाबाद में मिलना आसान नहीं है। मिसाल के तौर पर, एक बार एक त्योहार के दौरान एक अपार्टमेंट में पूजा हो रही थी, तभी पड़ोस वाले घर में दोपहर के खाने के लिए मछली तली जाने लगी। दूसरे पड़ोसी को यह बात नागवार गुज़री और दोनों में झगड़ा हो गया। उनका विवाद इतना बढ़ गया कि वह बहुमंज़िला इमारत किसी युद्धभूमि की तरह चीख-पुकार से गूँज उठी।
सच है, हम एक ऐसे बँटे हुए शहर में रहते हैं, जहाँ कुछ इलाक़ों में माँसाहारी लोग रहते हैं, जबकि अहमदाबाद का बड़ा हिस्सा शाकाहारी है। माँसाहारी भोजन परोसने वाले रेस्तराँ केवल कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में सिमटे हुए हैं।
लेकिन इस सच्चाई के विपरीत, मेरे बचपन की यादें बहुत सुखद हैं, जब हम एक आर्चर्ड के बीच बसे एक पूर्णतया कॉस्मोपॉलिटन हाउसिंग सोसाइटी में रहते थे। वहाँ ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि एक बड़े दिल वाली स्वीकृति थी। यहाँ तक कि अगर कोई कौआ किसी शुद्ध शाकाहारी पड़ोसी के आँगन में हड्डी गिरा देता, तो भी वहाँ कोई शोर-शराबा न होता, बस सफ़ाईवाले को बुलाकर उसे कूड़ेदान में फेंकवा दिया जाता। उन यूटोपियाई वर्षों में घर-घर से एक-दूसरे को शाकाहारी व्यंजन भेजे जाते थे, कटोरियों में, जिसे प्यार से ‘वाटकी-व्यवहार’ कहा जाता था; एक-दूसरे के साथ अपना भोजन साझा करने की परंपरा। लंबे समय तक अहमदाबाद में एक आदर्श साझा-संस्कृति (कॉस्मोपॉलिटन सिस्टम) विद्यमान थी, जो लोगों को भोजन के माध्यम से जोड़ती थी। इस आपसी सौहार्द में केवल एक मर्यादा थी — माँसाहारी पड़ोसी, शाकाहारी घरों की रसोई या पूजाघर में प्रवेश नहीं करते थे।
आज भोजन साझा करने की वह मैत्रीपूर्ण संस्कृति लगभग लुप्त हो चुकी है। कारण हैं : ऊँची इमारतों का जीवन, एकाकीपन और सामाजिक अलगाव, जो धीरे-धीरे अहमदाबाद में पाँव पसार चुका है। त्योहारों के समय भी अब यही होता है; उपहार अब कूरियर कंपनियों द्वारा डिस्पोज़ेबल थालियों और डिब्बों में पहुँचाए जाते हैं। कभी यह शहर एक ‘बड़ा गाँव’ कहलाता था; आज यह एक विशाल, अनियोजित, लगातार विस्तार लेता महानगर बन चुका है, जो साणंद से गाँधीनगर और उससे भी आगे तक फैलता जा रहा है।
जब मुझे पता चला कि कुछ घरों में तंदूरी चिकन और बटर चिकन खाए तो जाते हैं, लेकिन उसमें हड्डी नहीं होनी चाहिए, यानी चिकन ‘बोनलेस’ होना चाहिए, तो मुझे हँसी आ गई। बहुत कम शाकाहारी परिवार ऐसे हैं, जो अपने घर में माँसाहारी भोजन बनाते हैं; लेकिन कुछ ऑनलाइन ऑर्डर करके होम-शेफ्स से मँगवा लेते हैं। होम-शेफ्स, जिन्होंने हाल के वर्षों में खाद्य उद्योग में बड़ी मज़बूती से अपनी जगह बनाई है। अक्सर यह भोजन डिस्पोज़ेबल प्लेटों में परोसा जाता है, ताकि रसोई शुद्ध बनी रहे। सामान्यतः अहमदाबाद के लोग शाकाहारी डिनर-पार्टियाँ ही पसंद करते हैं, लेकिन एक बार मेरे एक क़रीबी मित्र ने अपने जन्मदिन पर शाकाहारी और माँसाहारी, दोनों प्रकार का भोजन परोसने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने भोजन-कक्ष की मेज़ पर शाकाहारी व्यंजन सजाए, और पास की एक छोटी मेज़ पर बिरयानी की हांडी रख दी। यह व्यवस्था सभी को पसंद आई और पार्टी पूरी तरह सफल रही।
फ्यूज़न फूड की अवधारणा ने अहमदाबाद के खान-पान की दुनिया में एक नई राह खोल दी है, क्योंकि यह पारंपरिक गुजराती भोजन से अलग है। ज़्यादातर अहमदाबादियों के परिवार विदेशों में बसे हुए हैं और अब वे स्वयं भी दुनिया की सैर करने लगे हैं। जब वे घर लौटते हैं, तो नए स्वादों और सामग्रियों के साथ प्रयोग करने की इच्छा साथ लाते हैं। शायद यही “फ्यूज़न” का असली मतलब है, जब अलग-अलग देशों की खानपान शैली भारतीय भोजन में घुल-मिल जाती है, और हमारी खाने की आदतें बदल जाती हैं।
हाँ, कभी-कभी हम फिर से पारंपरिक भारतीय भोजन की ओर लौटते हैं, लेकिन वह लौटना कुछ अनिच्छा से भरा होता है, क्योंकि आजकल यह ‘देसी’ माना जाता है, जबकि फ़ैशन यह है कि मेज़ पर फ्यूज़न फूड सजा हो। कहा जाता है कि फ्यूज़न फूड बनाना अब आसान है, क्योंकि ज़्यादातर सामग्री बाज़ार में तैयार मिल जाती है; बस उन्हें मिलाना और पकाना है। हमारे महाराज या घरेलू रसोइए, अब फ्यूज़न फूड और अनोखे बहु-क्षेत्रीय व्यंजनों में प्रशिक्षित हो चुके हैं।
इस बदलाव की झलक शादियों के भोज में भी साफ़ दिखती है, जहॉं अब वैश्विक खान-पान परोसना एक फैशन बन गया है। यह शुरू हुआ लाइव पास्ता काउंटर, चाइनीज़ फ्राइड राइस, खट्टी-मीठी लाल चटनी में तैरते मन्चूरियन बॉल्स, मैक्सिकन भेल, भाखरी पिज्जा, लाइव ढोकला, सिक्के जैसे छोटे बर्गर, पीटा ब्रेड के साथ एक बूँद हुमस और मिनी वेज पफ़ जैसे आइटम्स के साथ। स्टार्टर्स की मेज़ पर अक्सर फ्रेंच ब्रेड भी सजाई जाती है, जिसे कोई हाथ तक नहीं लगाता, क्योंकि उस पर लाल या हरे बिंदु नहीं होते, जो यह बता सकें कि वह शाकाहारी है या नहीं।
धीरे-धीरे, टमाटर का सूप लगभग ग़ायब हो गया है और उसकी जगह ले ली है मन्चाओ सूप, मैक्सिकन टॉर्टिया सूप या ब्रोकोली-बादाम सूप ने, जो तली हुई नूडल्स और सिक्के जितने आकार वाले हरा-भरा कबाब, चीज़ पफ़ या बीन्स बर्गर के साथ परोसे जाते हैं। और जब बात मिठाइयों की आती है, तो पारंपरिक मोहनथाल के साथ चॉकलेट केक या चॉकलेट फाउंटेन का संगम दिखाई देता है। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि गुजरात भारत की ‘आइसक्रीम राजधानी’ है, इसलिए मिठाई की मेज़ यहॉं के प्रसिद्ध बादाम-पिस्ता-केसर आइसक्रीम के बिना अधूरी मानी जाती है। अहमदाबाद की आत्मा हमेशा से उसके स्ट्रीट-फूड में बसती आई है, इसलिए लगभग हर पार्टी में एक चाट-काउंटर भी होता है, जिसमें तरह-तरह के गुजराती नाश्ते शामिल होते हैं।
लगभग हर अहमदाबादी को पानीपुरी का ‘चटको’ चाहिए ही होता है। गेहूँ या सूजी की कुरकुरी पूरियों में उबले आलू और चने का मिश्रण भरकर, उसे इमली की खट्टी-मीठी चटनी, पुदीना-धनिया और हरी मिर्च के पानी में डुबोकर परोसा जाता है। इसके भरावन में मूँग स्प्राउट या बूँदी भी हो सकती है, ऊपर से सेव या चाट मसाले के छिड़काव के साथ। महामारी के बाद हमने देखा कि पानीपुरी का भी बहुरूपी संस्करण आ गया, अब यह पैकेट में घर पहुँचती है जिसमें पूरियों और स्वाद के दर्जनों सैशे होते हैं। हाल के वर्षों में पानीपुरी ने एक नया रूप धारण कर लिया है। अब इसमें भरावन के रूप में रगड़ा या सफेद चने की ग्रेवी डाली जाती है, कभी कटी हुई प्याज़ और लहसुन के साथ, तो कभी उनके बिना। कहीं उसमें मैंगो साल्सा भरा होता है, तो कहीं फलों के रस का मिश्रित कॉकटेल। यह सब प्रायः शॉट ग्लास में परोसा जाता है, अनूठी भरावन लेकिन बिना मादक पेयों के साथ। (याद रखिए, गुजरात एक ड्राय-स्टेट है।)
अहमदाबाद वाक़ई चौंकाने वाला शहर है, क्योंकि कुछ इलाक़ों में मुग़लई स्ट्रीट फूड चाइनीज़ स्वाद में परोसा जाता है, जो चिकन-दाना, नूडल्स और अजीब नामों वाली, पहचान में न आने वाली सॉस की बोतलों से तैयार किया जाता है। यह देखना असली ‘भोजन-रंगमंच’ की तरह लगता है कि यह चीनी-मुग़लई भोजन किस प्रकार बनाया जाता है, मानो कोई खेल चल रहा हो। ज़रा ध्यान से देखिए, किस प्रकार शेफ़ के हाथ किसी करतबी कलाकार की तरह हवा में लहराते हैं; न कोई गति छूटती है, न कोई सामग्री। उसके हाथ ऐसे चलते हैं जैसे मार्शल आर्ट्स का कोई दक्ष साधक हो; न कोई चूक, न कोई ग़लत मिलावट, न कुछ जलता है, न कुछ ज़्यादा पकता है; और इसी सहजता से वह अपना अगला ऑर्डर बनाना शुरू कर देता है।
अहमदाबाद के पुराने शहर में चीनी-मुग़लई खाने की दुकानों की भरमार है, और प्रत्येक का अपना अलग अंदाज़ और मेन्यू है। यह नॉन-वेज स्ट्रीट फूड की एक नई शाखा के रूप में जाना जाता है, और एक अनोखा फ्यूज़न-भोजन भी है।
इन दुकानों के निडर और फुर्तीले शेफ़ ऐसे होते हैं, जो शेज़वान, हक्का, हांगकांग, सिंगापुरियन और मंचूरियन जैसे नामों के साथ चीनी-मुग़लई व्यंजनों की तीस से अधिक क़िस्में तैयार कर सकते हैं। और यदि ये सब व्यंजन एक जैसे दिखते हैं, तो इसका दोष ‘चीनी-मुग़लई रिश्ते’ को दिया जा सकता है!
हाल के दिनों में अहमदाबादियों के स्वाद का रुझान जापानी और कोरियाई खाने की ओर भी बढ़ा है। यहॉं सुशी भी पूरी तरह शाकाहारी रूप में बनाई जाती है, चावल, तिल, खीरा और गाजर डालकर। बिना कच्ची मछली डाले। कुछ पार्टियों में अब पूर्णतः शाकाहारी बर्मी व्यंजन ‘खाओ सुए’ भी देखने को मिलता है।
प्याज़ एक प्राचीन कंदमूल है, जिसने हज़ारों वर्षों से मानव जाति की सेवा की है। ज़रा निर्माण-स्थलों पर काम करने वाले मज़दूरों को देखिए, जो बाजरे की रोटली, कुटी हुई प्याज़, हरी मिर्च, नमक, और शायद एक टुकड़ा गुड़, साथ में पानी या छाछ का भोजन करते हैं, जो उनकी ऊर्जा को बनाए रखने के लिए पर्याप्त होता है।
अब अहमदाबाद ने स्वीकार कर लिया है कि ज़्यादातर व्यंजनों में प्याज़ एक मुख्य घटक है, और गुजरात भी ‘करी-संस्कृति’ को तेज़ी से अपनाने लगा है। कहा जाता है कि कबाब भारत में मध्य एशिया से आए। कबाब प्रायः क़ीमे से बनाए जाते हैं, और तलकर, भूनकर, ग्रिल कर या सींख में पिरोकर परोसे जाते हैं, जैसे सींख कबाब। लेकिन इस फ्यूज़न युग में लोग नए-नए प्रयोग कर रहे हैं, और ऐसे व्यंजन गढ़ रहे हैं, जो पारंपरिक और आधुनिक स्वाद के बीच संतुलन बनाए रखें। आजकल कबाब भी शाकाहारी हो गए हैं। पनीर और शिमला मिर्च के साथ सींख में पिरोए जाते हैं, या काबुली चने, राजमा और अन्य सामग्रियों से बने शामी कबाब के रूप में परोसे जाते हैं। यह सब इस बात का संकेत है कि फ्यूज़न फूड अब पारंपरिक व्यंजन-शैली की सीमाओं में प्रवेश कर चुका है।
फिर भी दिलचस्प बात यह है कि अधिकांश परिवार अंततः एक भरपूर गुजराती थाली के लिए किसी अच्छे थाली-रेस्तराँ का रुख़ करते हैं। अहमदाबादियों के अपने पसंदीदा ‘फरसाण’ विक्रेता भी हैं, खमण, ढोकला (ध्यान रहे, खमण और ढोकला दो अलग व्यंजन हैं), साथ में गाठिया, फाफड़ा, चटपटा चवाणु या कुरमुरे का मिश्रण और जलेबी।
सुल्तान अहमद शाह के समय से ही, अहमदाबाद के पुराने शहर में ‘भटियार गली’ अस्तित्व में है। ‘तीन दरवाज़ा’ से लेकर ‘रानी नो हाज़ीरो’ तक यह इलाक़ा आज भी अरेबिया से बनारस तक की महक समेटे हुए है। यहाँ की गलियों में ताज़ा नान, भूनी हुई मूँगफली, तले हुए समोसे, गर्म हलीम और खुशबूदार पुदीना या मुखवास की सुगंध फैली रहती है। चिकन और मटन के विविध व्यंजनों के साथ-साथ यह इलाक़ा अपने स्वादिष्ट क़ीमा समोसों के लिए भी प्रसिद्ध है।
कई वर्ष पहले जब मैं ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘अहमदाबाद मिरर’ और ‘फेमिना गुजरात’ के लिए भोजन पर कॉलम लिखा करती थी, तब मुझे खाने की विरासत का गहरा बोध हुआ। दुख की बात यह है कि अब वह विरासत लुप्त होने के कगार पर है। और अब मैंने ‘एगलेस’ और ‘बोनलेस’ जैसे शब्दों से समझौता कर लिया है।
फिर भी यह जानकर संतोष होता है कि अधिकतर अहमदाबादी आज भी अपनी पारंपरिक गुजराती थाली और फरसाण को ही प्राथमिकता देते हैं, जिसमें ‘नवरस’ के तत्व समाहित होते हैं, जोकि हैं— रंग, रूप और स्वाद।