अंग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
खुली आग के ऊपर लोहे की तिपाई है, उस पर एक बड़ा बर्तन रखा हुआ है, सबकी निगाहें उस पर लगी हुई हैं। जब बर्तन खड़खड़ाता है, सब लोग तारीफ़ में आहें भरने लगते हैं। तभी कोई ढक्कन पर भारी पत्थर रख देता है और खड़खड़ाहट बंद हो जाती है। ‘चलो, पीछे हो जाओ, जाकर सो जाओ।’ मॉं या मौसी की गूँजती हुई आवाज़ हमें दूर भगाने की कोशिश करती है। ऐसे मौक़ों पर हम अपनी सॉंस रोक लेते। उकड़ूँ बैठकर हम अपने घुटनों को ठुड्डी से सटा लेते और आग को घूरते रहते। सबकी निगाहें आग पर टिकी हैं। अगर आग बुझ जाती, तो बर्तन में ऊपर तक भरी वह सामग्री पक न पाती। हम आदि जनजाति के एक विशिष्ट व्यंजन ‘एटिंग’ को बनाने में पूरी तरह डूबे हुए थे।
इसे एक तरह से चावल का केक भी कहा जा सकता है, लेकिन यह गोल नहीं होता, न ही किसी तरह से सजावटी। चावल के आटे को पानी में मिलाकर एक साधारण पेस्ट जैसा बनाया जाता है, जिसे साफ़ किनारों वाले एक चमकदार पत्ते पर रखकर चौकोर पैकेट बनाया जाता है, फिर एक बड़े बर्तन में एक के ऊपर एक रखकर उबाला जाता है। इसमें कोई भरावन नहीं डाला जाता, न मीठा, न नमकीन। पहली बार कोई खाए, तो वह इसके चपटे आकार और सादे स्वाद पर कुछ बोल नहीं पाएगा, लेकिन हम लोगों के लिए तो यह जन्नत के अहसास जैसा था। एक्कम पत्ता, जिसे पैकिंग लीफ़ भी कहते हैं, में लिपटे पैकेट को खोलना, नरम-मुलायम चावल पर पत्ते की शिराओं की छाप देखना और उसकी ख़ुशबू को अपने भीतर तक भर लेना; असली उत्सुकता और आनंद तो इन्हीं बातों का था।
आज एटिंग बनाने का तरीक़ा बहुत बदल गया है। पुराने समयों में, इसे बनाना यानी दिन-भर की कवायद। चावल को हाथ से कूटा जाता था, और फिर जब तक एटिंग लपेटने-पकाने लायक़ होती थी, तब तक रात हो चुकी होती थी। वह अगली सुबह तक ही खाने लायक़ बन पाती थी। एटिंग अब सड़क किनारे दुकानों पर भी आसानी से मिल जाती है। सियांग घाटी से गुज़रने वाले यात्री तीन या पॉंच पैकेट के बंडल में इन्हें ख़रीद सकते हैं। रसोई में ग्राइंडर हो, तो इसे कभी भी सरलता से बनाया जा सकता है। एटिंग बनाना अब एक तरह का व्यावसायिक काम हो गया है। शायद इस प्रक्रिया में इसने अपना स्वाद थोड़ा-बहुत खो दिया है। चावल पिसे होने के कारण अपने टेक्स्चर में एटिंग, कॉंच जैसी दिखने लगती है। कुछ घरों में इसमें थोड़ा-सा गुड़ मिला दिया जाता है या नारियल के टुकड़े, या कुछ जगहों पर चटपटा बनाने के लिए इसमें अचार डाल दिया जाता है। हालॉंकि, आज भी यह जन्म, शादी या त्योहारों जैसे शुभ अवसरों पर बनने वाला व्यंजन है। इसमें चावल के पेस्ट को पत्ते के चिकने हिस्से पर रखा जाता है, ताकि खोलते समय वह चिपके नहीं। जबकि अन्य खाद्य पदार्थों को पत्ते की निचली तरफ़ रखकर इस तरह पैकेट बनाया जाता है कि पत्ते का चिकना हिस्सा बाहर की तरफ़ दिखाई दे। अगर खाने को उल्टी तरह से पैक किया जाए, तो इसका अर्थ है कि वह मृतकों के लिए किए गए अनुष्ठान या प्रसाद के लिए है।
आजकल तो खाने के कई विकल्प हैं। ईटानगर में ऐसी किसी भी सूची में कोरियाई खाना सबसे ऊपर होता है। मेरे गृहनगर पासीघाट में, सियांग नदी के तीरे, सड़क के किनारे कई ग्रिल्स और बारबेक्यू हैं। अब, हममें से कई लोग मौसमी फल और सब्ज़ियॉं कहॉं खाते हैं! सबकुछ साल-भर उपलब्ध है। अब हर जगह मास्टरशेफ़, फ्यूज़न फूड और मल्टीक्युज़ीन की बहार है। साथ ही, हर समय लगातार खाद्य सुरक्षा, भुखमरी और अकाल के बारे में बात होती है, क्षेत्रीय जल और मछली पकड़ने के अधिकारों के बारे में गहन चर्चा होती है- धरती और समुद्र में पैदा होने वाले तमाम फल हमारी भूख मिटाने के लिए इकट्ठा किए जाते हैं और फिर फेंक दिए जाते हैं। वह कहावत याद कर सकते हैं- बहुत कुछ होने का अर्थ, कुछ न होने के बराबर होता है।

एटिंग कोई भव्य चीज़ नहीं। बस, चावल और पानी को एकदम साधारण तरीक़े से पका दिया जाता है। बड़े-बुज़ुर्ग कहते थे, ख़ुश होकर खाओ, समय लो और पूरी तरह खाने का आनंद उठाओ। खाने के मेनू में चावल हमेशा होता था। आदि लोगों की भाषा में चावल को अपिन कहते हैं, जिसका अर्थ होता है भोजन। माना जाता है कि चावल देवताओं द्वारा दी गई भेंट है और पूरा गॉंव चावल उगाने में अपनी ऊर्जा लगा देता था। मूल रूप से यह अनाज की एक पहाड़ी क़िस्म की खेती थी, जिसमें जंगल को साफ़ किया जाता था और प्रार्थनाओं व चढ़ावों के माध्यम से भूमि को पवित्र किया जाता था, ताकि अच्छी फसल हो सके।

घोषणा की जाती थी कि गॉंव में इस दिन एटिंग बनाई जाएगी, जिससे सब लोग ख़ुश हो जाते थे, हालॉंकि कम उम्र लड़कियॉं इससे कलप उठती थीं क्योंकि चावल को कूटने और उसका पाउडर तैयार करने का कठिन काम उन्हीं को सौंपा जाता था। भाप उड़ाते एटिंग के पैकेटों को विशिष्ट और शुभ वस्तु के रूप में घर-घर बॉंटा जाता था। आजकल के दौर में निचले इलाक़ों में खेती दरअसल गीले चावल की खेती (वेट राइस कल्टीवेशन- डब्ल्यूआरसी) में बदल गई है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद के बरसों में इसे यहॉं आरंभ किया गया था। कठोर दाने वाले पहाड़ी चावल से बनी एटिंग अब एक दुर्लभ वस्तु बन चुकी है, लेकिन जब भी स्थानीय खानपान की बात उठती है, एटिंग का उल्लेख पूरी विशिष्टता के साथ होता है। आप इसे अपने साथ लेकर चल सकते हैं, फ्रिज में रख सकते हैं, दुबारा गर्म कर सकते हैं या आग पर सेंक सकते हैं। तब इसके किनारे कुरकुरे हो जाऍंगे और कुछ लोगों को इसे इसी तरह खाना पसंद है। यह बायोडिग्रेडेबल है।
हो सकता है, इसका चलन फिर से शुरू हो जाए, किसे पता! आज के दौर में, भुने हुए मॉंस और विदेशी चटनी की भव्यता के सामने एटिंग, उत्तर-पूर्व क्षेत्र या अरुणाचल के आदिवासी खानपान में मात्र एक सामान्य व्यंजन जैसा है। हो सकता है, किसी दिन कोई व्यवसायी इसमें एक अद्भुत ख़ासियत खोज ले, और कहे कि यह प्राचीन काल का शुद्ध व्यंजन है, जो सीधे धरती माता के अन्न भंडार से उगाए गए असली धान से बना है, जोकि आदि जनजाति की एक पुराकथा के अनुसार, धरती माता ने चावल के अनमोल दानों को कुत्ते के कान में रखा था, जो उसे मनुष्य तक ले गया।
पुराने ज़माने की तरह आज भी, जब घर में एटिंग बनाई जाती है, तो पूरा माहौल सामूहिक प्रयास और एक उत्सव जैसा होता है। हालॉंकि आजकल शहरी रसोइयों में तमाम तरह के उपकरण हैं, जिनसे चावल का आटा आसानी से उपलब्ध हो जाता है, फिर भी मुझे एटिंग बनाने में सबसे ज़्यादा आनंद तब आता है, जब घर में चचेरे भाई-बहन, भतीजे-भतीजियॉं और रिश्तेदार मौजूद हों। सबसे पहले, एक्कम पत्ता इकट्ठा किया जाता है। यह हमारे बग़ीचे में ही है, लेकिन अंधेरी और छायादार जगहों पर उगता है, जो कीड़ों के लिए आदर्श स्थान हो सकता है और इसे इकट्ठा करने का काम मेरे अलावा किसी और को सौंपना बेहतर है। फिर चावल के पेस्ट के गाढ़ेपन पर ध्यान रखना भी ज़रूरी है। कितना पानी डालना है? ज़्यादा डाल दिया, तो आटा पतला हो जाएगा। कम डाला, तो उसमें गॉंठें पड़ जाऍंगी और वह कठोर हो जाएगा। हम चावल के लिए कई मिश्रणों का प्रयोग कर सकते हैं, चिपचिपा पासीघाट चावल, लाल चावल, सादा सफ़ेद चावल या दोनों का मिश्रण। फिर, मुझे अपने हाथ के दबाव पर भी ध्यान रखना पड़ता है, यानी जब मैं मिश्रण की एक बड़ी लोई एक्कम पत्ता के बीच में रखती हूँ, बीच में एक साफ़ तह लगाकर पत्ते को लंबाई में मोड़कर, उसे दबाती हूँ ताकि आटा फैल सके, तब अगर ज़्यादा ज़ोर से दबा दिया, तो आटा बाहर निकल जाएगा, इससे पहले कि मैं ऊपर और नीचे का हिस्सा मोड़कर उसे साफ़-सुथरे पैकेट की तरह बंद कर सकूँ, जिसमें एक सिरा दूसरे मोड़ के भीतर अटका रहता है।
पहले एक बड़ा पत्ता बर्तन के तले में रखा जाता है, फिर इन पैकेटों को अच्छी तरह जमाकर रखा जाता है, फिर उसके ऊपर एक और पत्ता रखा जाता है। फिर बर्तन में पानी भरकर ढक्कन लगा दिया जाता है और उबाला जाता है। बस, इतना ही। काम पूरा। जब ढक्कन खड़खड़ाने लगता है, तो उसे दबाने लिए मैं आज भी एक सपाट पत्थर ही रखती हूँ। जब आटे को आसानी से पत्ते से बाहर खींचा जा सके, तो समझिए कि एटिंग तैयार हो गया। जैसे स्पेगेटी को दीवार पर फेंक कर जॉंचा जाता है कि वह चिपचिपी है या पक गई, उस तरह एटिंग को जॉंचने का कोई तरीक़ा नहीं है। एटिंग को जॉंचने के लिए एक पैकेट निकालना पड़ता है, और जब उसे खोला जाए, तो कोई भी उसे चखकर कह सकता है कि ‘अभी पॉंच मिनट और’, या ‘बीच वाले अभी कच्चे हैं’ या ‘बस, हो गया, एकदम सही है।’ पकाने में लगभग एक घंटा लग जाता है। ठंडा होने में भी समय लगता है, तब एटिंग को निकालकर एक ट्रे में रख दिया जाता है, ताकि अतिरिक्त पानी उसकी तहों से होकर निकल जाए।

अरुणाचल के खानपान की विविधता का एक उत्कृष्ट नमूना, साल के लगभग हर महीने मनाए जाने वाले पारंपरिक त्योहारों में देखा जा सकता है। एक समय था, जब राज्य के स्थापना दिवस समारोह के दौरान राजधानी का इंदिरा गांधी पार्क भोजन, संगीत और पुस्तकों से जुडी गतिवधियों का केंद्र हुआ करता था। यह एक खुला आयोजन होता था, जिसमें स्थानीय भोजन, अनाज, अदरक, दालों, फल, मछली और औषधीय जड़ी-बूटियों की प्रदर्शनी लगा करती थी। राज्य के विभिन्न हिस्सों से आए रसोइए और विशेषज्ञ, भॉंति-भॉंति के भोजन बनाने की अपनी कुशलता का हाथोंहाथ प्रदर्शन करते थे, जिनमें मोमो और थुकपा से लेकर तवांग व मेनचुका के सॉसेज व शबाले मीट पेस्टीज़ और मध्य व पूर्वी अरुणाचल के बॉंस के अंकुर व ‘पाइके पिला’ से बने व्यंजन तक शामिल होते। यहीं मैंने पहली बार पासा के बारे में जाना, जो खाम्पटी समुदाय का प्रसिद्ध मछली का ठंडा सूप है। साथ ही प्रसिद्ध बॉंस के चावल के बारे में भी, जिसे ‘खाउ-लाम’ कहा जाता है।
खाउ-लाम बनाने के लिए चावल को रात-भर भिगोया जाता है, फिर उसे बॉंस की नलियों में भर दिया जाता है, जिसमें चावल को पकाने लायक़ पानी भरा होता है। बॉंस की नलियों में उतनी जगह अवश्य छोड़ी जाती है, जितनी पकने के बाद चावल को फैलने के लिए ज़रूरी हो। नलियों को एक्कम के पत्ते के टुकड़े से सील कर दिया जाता है और फिर खुली आग पर रख दिया जाता है। इसके लिए एक ख़ास क़िस्म के बॉंस का प्रयोग किया जाता है, जिसे स्थानीय लोग खाऊलाम-बा कहते हैं। यह मुलायम होता है और इसके अंदर एक पतली परत होती है, जो चावल को लपेट लेती है। इससे चावल का पूरा स्वाद बना रहता है और पकने के बाद वह एकदम साफ़-सुथरे गोल टुकड़े के रूप में बाहर निकल आता है।
बॉंस में चावल पकाने के लिए बहुत ध्यान देने की ज़रूरत होती है, इतना कि चावल पूरी तरह पक जाए और जले भी नहीं। जब चावल पक जाता है, तो बॉंस की मुलायम परत को हटाकर या बॉंस को साफ़ हिस्सों में काटकर उसे खाया जा सकता है। यह व्यंजन आगंतुकों को अत्यंत प्रिय है। हालॉंकि, राज्य स्थापना दिवस के दौरान होने वाला फूड फेस्टिवल अब बंद हो गया है, लेकिन स्थानीय खान-पान को दिखाने और पर्यटकों को आकर्षित करने की जो शुरुआत उस समय हुई थी, वह अब नए ढाबों और जनजातीय फूड जॉइंट्स में विकसित होती देखी जा सकती है, जहाँ खाउलाम के साथ-साथ चावल के अन्य व्यंजन भी मिलते हैं, जैसे स्टिकी राइस रोल, चिकन स्टू विद ब्रोकन राइस ग्रेवी और एक्कम पत्ता में लिपटा हुआ सादा, भाप में पका चावल, जिसे ‘पिनपू’ कहा जाता है। आधुनिक समय के उत्सवों में भी स्थानीय फूड स्टॉल एक विशिष्ट पहचान रखते हैं, जैसे ज़ीरो म्यूजिक फेस्टिवल और दांबुक में ऑरेंज फेस्टिवल ऑफ़ एडवेंचर एंड म्यूजिक, और इसी तरह के अन्य उत्सव, जहॉं खाने के लिए एक विशाल भीड़ क़तार लगाए खड़ी रहती है।

खाना, यादें, संगीत, परिवर्तन… खानपान की बदलती पसंद और बदलती आदतों के बीच, एक स्थानीय विशिष्टता और है, जो समय और बदलाव की बयार को बख़ूबी झेलते हुए अब भी बची हुई है, वह है चावल की बीयर। अरुणाचल के लगभग सभी समुदाय इस मादक पेय को बनाते हैं और इसे अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। हालाँकि इसके लिए आगंतुकों और विभिन्न समुदायों के बीच आम बोलचाल में सबसे अधिक पहचाना जाने वाला शब्द है- ‘अपोंग’, जोकि आदि लोगों की भाषा से है। अपोंग समूचे अरुणाचल में मिलता है।
एक बार मेरे मन में अपोंग बनाने का विचार आया। अपोंग में लगने वाली मुख्य सामग्री है चावल, और मैंने ख़ूब मेहनत से बहुत सारा चावल बना दिया। यह बुरी तरह थकाने वाला काम था, क्योंकि मैं चावल की काली बीयर बनाना चाह रही थी, जिसे हम ‘एन्नोग’ कहते हैं, जोकि सफ़ेद, प्रेस्ड अपोंग से एकदम अलग होती है। काले अपोंग की रेसिपी में जले हुए धान की भूसी मिलानी पड़ती है, ताकि मिश्रण को छाना जा सके और खमीर मिलाने से पहले चावल का पूरी तरह ठंडा हो जाना ज़रूरी है, वरना अपोंग खट्टा हो सकता है। मेरी बहनों और मैंने धान की भूसी तैयार कर रखी थी, जिसे हम बड़ी मेहनत के साथ असम के राइस मिल से बोरों में भरकर लाए थे। रसोई में अव्यवस्था और अफ़रा-तफ़री का माहौल बन गया था। अगला क़दम था पके हुए चावल को बॉंस की चटाई पर फैलाकर ठंडा करना। अपोंग बनाने के निर्देश तो एकदम स्पष्ट थे, लेकिन मुझे लगता है कि इसमें सहज ज्ञान और अंतर्ज्ञान की भी थोड़ी-बहुत भूमिका होती है। यानी आपको इतना संवेदनशील होना चाहिए कि आप छूकर चावल की बनावट को समझ सकें और खमीरी पदार्थ, जिसे ‘सिये’ कहा जाता है, उसे चावल में मिलाते समय उसकी नरमी और टूटन को महसूस कर सकें। इस खमीर की उत्पत्ति और इसे बनाने का तरीक़ा, दोनों ही थोड़े रहस्यमयी हैं। अपोंग बनाने के अनुभवी लोग कहते हैं कि जब धरती पर पहला मनुष्य आया, तब ही सिये भी पहली बार प्रकट हुआ था। बाज़ार में यह सूखी, सफ़ेद गोल चकली की तरह मिलता है, कभी छोटे बिस्कुट जितना, तो कभी चपटे बड़े पैनकेक जितना। अगर सिये कम डाला जाए, तो चावल पर कोई असर ही नहीं पड़ेगा। अगर ज़्यादा डाल दिया जाए, तो मिश्रण कड़वा हो सकता है। अपोंग बनाने वाले हर कारीगर के पास एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिससे वह अपने प्रिय सिये की आपूर्ति मँगवा सके, या उसकी एक गुप्त रेसिपी होती है; जैसे वे पुराने सिये का एक छोटा-सा, बिस्कुट जितना टुकड़ा बचा कर रखते हैं, ताकि उससे नया सिये तैयार कर सकें। अंतिम क़दम होता है चावल और सिये के इस मिश्रण को बड़े टोकरों में भरना और उसे न छेड़ना, ताकि वह अपनी जादुई प्रक्रिया पूरी कर सके।
काला अपोंग सियांग घाटी की एक ख़ासियत है और गॉंवों में इसे आज भी रोज़ाना बनाया जाता है। मेरी बहनें कहती हैं कि यह कमर-तोड़ काम है, लेकिन उनके पास चावल भी है और धान भी; और संसार का सर्वोत्तम अपोंग बनाने का कौशल और ज्ञान भी। घर पर अपोंग बनाने की मेरी नाकाम कोशिश के बाद, अब हम बाज़ार से रेडीमेड अपोंग मिश्रण लाते हैं और घर पर ही उसे डिस्टिल करते हैं। अपोंग बोतलों में भी मिलता है, लेकिन वाइन की तरह यह उम्र के साथ बेहतर नहीं होता जाता। आधुनिक तकनीक और संरक्षण की विधियों के फलस्वरूप आगे चलकर शायद इसकी आयु और कीर्ति में वृद्धि हो जाए, कौन जाने! फ़िलहाल तो, यह जैसे ही तैयार होता है, इसे ताज़ा-ताज़ा ही परोसा जाता है। इसे चाहने वालों का कहना है, यह जानने की ज़रूरत नहीं कि अपोंग कितने दिन तक टिकेगा। बस, पहाड़ों और नदियों के बीच बैठकर, एक-दूसरे के साथ, एक प्याला उठाकर, तमाम अच्छी चीज़ों का जश्न मनाना ही काफ़ी है, क्योंकि अपोंग का आविष्कार एक ऐसा उपहार है, जो इंसानों को देवताओं के बराबर बना देता है।

