अनुवाद: कनक अग्रवाल
‘खाना और खाना बनाना मेरे जीवन की कुछ सबसे महत्वपूर्ण चिंताओं का स्रोत रहा है।’
मार्गरेट ड्रेबल (लोव्स एंड विशेज: राइटर्स राइटिंग ऑन फूड, विरागो 1992)
दशकों पहले, मुझे विरागो ने भोजन पर लिखे जा रहे एक संकलन में योगदान करने के लिए आमंत्रित किया। योगदानकर्ता सभी महिलाएं थीं जिन में वर्जीनिया वूल्फ, डोरिस लेसिंग, मार्गरेट एटवुड, मार्गरेट ड्रेबल, जर्मेन ग्रीर और ऐसी कई चुनिंदा लेखिकाएं शामिल थीं। जब पुस्तक मेरे पास आई, तो सबसे पहले मुझे ऐसे महान लेखकों में अपना नाम देखकर बेहद प्रसन्नता हुई। मैं उस समय बस अपने लेखन के करियर में प्रवेश कर ही रही थी। दरअसल, जब मुझे निमंत्रण मिला, तो मैंने सुनिश्चित नहीं किया था कि किस बारे में लिखूं। मुझे खाने और पकाने में कभी दिलचस्पी नहीं रही। मेरी माँ, खाना बनाने की कला में निपुण एक माहिर गृहणी थीं, जो अपनी रसोई में अनाड़ी नौसिखियों का स्वागत नहीं करती थीं। बेशक, मुझे कुछ कार्य दे दिए जाते, लेकिन वे खाना पकाने के परिधीय होते, जैसे मसाला भूनना आदि। इन सबका परिणाम यह हुआ कि जब मेरी शादी हुई तो मुझे यह जानकर बहुत धक्का लगा कि अब से हम दो लोगों के परिवार का रसोइया मुझे ही बनना है; कि अगर हमें खाना है, तो मुझे ही बनाना है। मैं हर सुबह खाना पकाने की भयावह संभावना के साथ जागती, जब शुरू करती तो घबराती, और दिन ढले आख़िरकार, कुछ अस्त-व्यस्त सा तैयार कर पाती।
बाक़ी महिलाओं ने यह सब कैसे निभाया? मैंने अपने परिवार में सभी महिलाओं – माँ, मौसी और अन्य लोगों को देखा था – और इन सभी ने बड़े गर्व से ‘एक अच्छे रसोइए’ होने का खिताब हासिल कर रखा था। मेरी शादी भी ऐसे परिवार में हुई जहां की महिलाएं न केवल उत्कृष्ट रसोइया थीं, बल्कि पाक कला में इतनी सक्षम कि अगर अप्रत्याशित मेहमान रात के बीचों बीच उनके घर पधार जाते, तो वे झटपट कुछ स्वादिष्ट पका देती। यही नहीं, जिन नवविवाहित जोड़ों से मैं मिलती, वे अपने ‘उन’ के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाने के विचार से उत्साहित लगती। जबकि मैं…
इसमें कोई शक नहीं कि मैं असफल थी। मेरा विवाह ऐसे समय में हुआ जब भारत में ‘नारीवाद’ शब्द आम चलन में नहीं था, एक ऐसा समय जब पितृसत्ता का शासन था और पुरुष-वर्चस्व आम था। यह एक अखंडनीय सत्य माना जाता था कि महिलाओं की भूमिका घर पर रहना, बच्चे पैदा करना, बच्चों और घर की देखभाल एवं परिवार के लिए भोजन प्रदान करने तक सीमित है। यह माना जाता था कि महिलाएं स्वाभाविक रूप से खाना पकाने की प्रतिभा से संपन्न होती हैं। फिर मैं इतनी अनिच्छुक और बुरी रसोइया क्यों थी? और मेरे ‘उन’ को खाने में इतनी दिलचस्पी क्यों थी, वह खाना बनाने को लेकर इतना उत्साही क्यों थे? (मगर कभी-कभी ही, रोज़मर्रा के खाने को लेकर नहीं।) यदि खाना बनाना एक कला थी, वह एक मनमौजी और विलक्षण सी कला होगी, जो ज़रूरी न हो कि महिलाओं के हाथ ही आए। हाँ, कुछ पुरुष थे जिन्हें खाना बनाना अच्छा लगता था, लेकिन इस बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। और जो इसके प्रति गंभीर थे वे पेशेवर बन गए। रसोइया नहीं, बल्कि शेफ, चमकदार सफेद टोपी पहने, अच्छी तनख्वाह कमाने वाले, और कभी-कभी तो सेलेब्रिटी भी। मैं समझने लगी कि आदमी कोई भी काम करे, उसे एक उच्च स्तर दे दिया जाता। वहीं घरों में रोज़ खाना बनाने वाली महिलाओं के बारे में कोई बात नहीं करता, इस तथ्य के बावजूद कि वे युगों से परिवारों को खाना खिलाती आ रही हैं, शायद स्मृति के परे एक समय से। कितनी चौंका देने वाली बात है। फिर भी किसी ने महिलाओं के काम को सम्मान के लायक नहीं समझा। मामूली सराहना भी मिलना मुश्किल रहा। ‘अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो इसका मतलब है कि यह अच्छा है।’ ये शब्द आज तक कितनी महिलाओं ने सुने हैं?
इससे भी बड़ी मुश्किल यह कि एक अच्छी महिला की छवि को हमेशा से एक खाना पकाने वाली महिला की छवि के साथ जोड़ा गया। अगर आपने अपने परिवार को ठीक से न खिलाया, या खाना खिलाने की इस प्रक्रिया का आनंद न लिया, तो आप एक अच्छी महिला नहीं थीं। जिसने आत्म त्याग को गले लगाया, सिर्फ वही एक अच्छी महिला साबित हो सकती थी। उन दिनों औरतें सबसे बाद में खाती, पहले मर्दों और बच्चों को खिलाती, फिर जो बचता, उसे वे निपटाती। जब हमारा परिवार एक साथ भोजन करता, जैसे की मेरे मायके में, मेरी मां कुछ अपर्याप्त होने पर अक्सर बहाना बना देती और खुद को वंचित कर देती। हर जली हुई रोटी उसके हिस्से आती, हर टूटी हुई जवार की भाकरी, मुची हुई चाय की प्याली और घर में मौजूद सबसे छोटी, पुरानी थाली। मैंने तब ही फैसला कर लिया था कि मैं कभी भी अपने आप को ऐसी व्यक्ति नहीं बनने दूंगी जिसकी जरूरतों को दुनिया नज़रअंदाज़ कर दे। मैं खुद का सम्मान करूंगी और तभी दुनिया मेरा सम्मान करेगी। डॉ जॉनसन का यह कथन, ‘… एक दफा आप औरत का खाऊपन देख लें, फिर उससे कोई अवगुण की उम्मीद न करें,’ पूर्वाग्रह, लिंगवाद, दुराचार और पाखंड दर्शाता है, जिससे महिलाओं को डॉ जॉनसन के दोहरे मापदंडों के प्रति सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि खुद डॉ जॉनसन अपने खाऊपन का प्रदर्शन शान से करते थे। जहां तक मेरी बात है, मेरे उलझे हुए विचारों के बीच एक तथ्य स्पष्ट था: खाना पकाना और खाना मुझे सतत नारीवाद की ओर लिए जा रहा था।
इन सब के बीच मातृत्व ने मेरे जीवन में कदम रखा और मेरे सारे सिद्धांत जैसे हवा हो गए। जब तक मेरे बच्चों की अपनी पसंद-नापसंद समझने की उम्र हुई, तब तक मैंने वह सब बनाना सीख लिया जो वे चाहते थे: चकली और फ्रेंच टोस्ट, बटाटा और साबूदाना वड़ा, टोस्टेड सैंडविच, मोदक और फूले हुए ऑमलेट। लेकिन फिर चीजें बदल गईं; वे जैसे-जैसे बड़े हुए, घर से खाने का डिब्बा ले जाने के बजाय स्कूल के कैंटीन से भोजन खरीद कर खाना पसंद करने लगे।
भोजन के बारे में लिखा एक बेहद विचारशील बयान उस लेखक के नाम दर्ज है, जो खुद एक महिला थीं और 300 साल पहले रहती थीं। इस लेखक, जेन ऑस्टेन (मैं इनका नाम लिखते हुए अपने कानों को छू रही हूं। यदि संगीतकार अपने गुरुओं के लिए यह कर सकते हैं, तो एक लेखक क्यों नहीं?) ने अपनी बहन कैसेंड्रा को पत्र लिखते हुए कहा: ‘मैं हमेशा ध्यान रखती हूं कि ऐसी चीजें उपलब्ध रखूँ जो मेरी अपनी भूख को संतुष्ट करें, और इसे मैं गृह व्यवस्था का मुख्य गुण मानती हूं।’
आत्म-त्याग का नामों निशान तक नहीं।
लेकिन जिस लेखक से मैं सबसे ज्यादा ईर्ष्या करती हूं, वह हैं एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग, जिन्होंने लिखा (वह इटली में रह रही थीं):’हम ट्रटोरिया से भोजन मंगाते हैं, और यहां की वाइन में एक गज़ब का सस्तापन है। न परेशानी, न रसोइया, न रसोई।’
न परेशानी, न रसोइया, न रसोई। मानो स्वर्ग। लेकिन एलिज़ाबेथ ब्राउनिंग एक कवियित्री, अर्ध-अपंग और परमप्रिय पत्नी थीं; अन्य लेखकों को भी घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल के बाद बचे हुए घंटों में अपने लेखन को समायोजित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कई लेखकों को साथ ही नौकरियां भी संभालनी होती हैं।
विरागो संकलन के अपने निबंध में, बेनोइट ग्रूल्ट ज़िक्र करती हैं ‘एक छोटे वाक्यांश की, जिसने बाकी सारे नारीवादी प्रकरणों की तुलना में अकेले ही महिलाओं को खाना पकाने से दूर किया।’ वाक्यांश है: आज रात खाने में क्या है? यह वाक्य उस एकरसता, दोहराव का प्रतीक है, जिसमें दिखता है खाना पकाने का कभी न खत्म होने वाला क्रम, जो मुझे बिल्कुल नहीं सुहाता। मेरा उपन्यास दैट लॉन्ग साइलेंस, इसी विचार से प्रेरित हुआ। अपनी पुरानी डायरियों को पढ़ते हुए जया को एक ऐसी महिला मिलती है जिसके जीवन को इस प्रश्न से परिभाषित किया गया है: मैं नाश्ते/भोजन/रात्रिभोज में क्या बनाऊं। ग्रूल्ट कहती हैं कि महिलाओं को अहंभाव के लिए एक लंबे प्रशिक्षण से गुजरने की आवश्यकता है। मगर सदियों से ‘मेरा कोई मोल नहीं’ वाला रवैया अपनाने के बाद, यह वास्तव में एक काफी लंबा प्रशिक्षण साबित होगा।
जॉयस कैरल ओट्स के उपन्यास अमेरिकन ऐपेटाइट्स में ग्लाइनिस, जो एक जुनूनी, कुशल और लोकप्रिय खाद्य लेखक और कुक है, खुद को शौकिया कहती है। उसका मानना है कि परिवार में असली पेशेवर उसका पति है जो एक प्रतिष्ठित संस्थान में वरिष्ठ अध्येता है। फिर भी, उसके दिल में एक नासूर है कि उसका पति अपनी दुनिया को बेहतर मानता है, क्योंकि ग्लाइनिस की दुनिया महज़ खाना है।
महज़ खाना। हां, खाना और खाना बनाना मामूली बात है क्योंकि ये महिलाओं से जुड़े हैं। वर्जीनिया वूल्फ (कानों को फिर से छूती हूं) जो कोई सोचे कि ‘रसोई के तुच्छ दायरे’ में कभी नहीं उतरेंगी (लौरा शापिरो, व्हॉट शी एट) कहती हैं, ‘कोई व्यक्ति ना अच्छा सोच सकता, ना अच्छे से प्यार कर सकता, ना अच्छे से सो सकता, अगर उसने अच्छा भोजन ना किया हो’। लौरा शापिरो की व्हॉट शी एट में, वह छह महिलाओं के जीवन और व्यक्तित्व को उनके द्वारा पकाए, परोसे और खाए गए भोजन के माध्यम से देखती हैं। इनमें सबसे दिलचस्प कहानी राष्ट्रपति रूजवेल्ट (FDR) की पत्नी एलेनोर रूजवेल्ट की है। शापिरो उन्हें ‘एक भव्य राजनीतिक साझेदारी लेकिन पाक-कलह का एक संघ’ कहती हैं। भोजन के बारे में उनके विचार पूरी तरह से विपरीत थे। FDR को शानदार भोजन, बेहतरीन वाइन, और खुशमिज़ाज दावतों का शौक़ था। वहीं दूसरी ओर एलेनोर, खाने के मामले में संयमी और सख्त थीं, और अक्सर अकेले खाती थीं। शापिरो लिखती हैं, उस समय की हाउसकीपर व्हाइट हाउस के इतिहास की सबसे खराब हाउसकीपर थी। वह ऐसा बेस्वाद भोजन परोसती कि व्हाइट हाउस में आमंत्रित किए गए मेहमान आने से पहले भोजन खाकर ही आते। शापिरो मानती हैं कि एलेनोर ने बेस्वाद भोजन परोस कर एफडीआर से उनके विवाहेतर संबंधों का बदला लिया। रसोई को नियंत्रित करने वाली महिला की शक्ति की यह तस्वीर भयावह है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अगाथा क्रिस्टी के हरक्युल पोयरॉ ने हमेशा जीवनसाथी को ही पहला संदिग्ध माना।
क्या चीजें बदल रही हैं? हाल ही में स्टॉकहोम रह रहे मेरे पोते के साथ मेरी बातचीत हुई। इत्तेफाक से उस शाम हम दोनों ने भेल बनाई थी। मेरे पोते ने काफी अफसोस जताया कि मैंने हरी चटनी नहीं बनाई। मुझे धनिया नहीं मिला तो मैंने केवल इमली की चटनी बनाई थी। मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे। मैंने अपने जीवन में कभी कोई चटनी नहीं बनाई थी। सिर्फ भेल – वह भी बिना पूरियों की। मेरा पोता मुझसे बहुत आगे निकल चुका था। उसने एक दिन मुझसे ‘जैतून के तेल के छिड़काव’ का ज़िक्र किया, जिस से मैं अंजान होती अगर मास्टर शेफ ऑस्ट्रेलिया ने मुझे इससे अवगत ना कराया होता। मैं इस कार्यक्रम की सुंदर रसोई, चमचमाते उपकरण, उम्मीदवारों का उत्साह और प्रतिस्पर्धा को देखने का आनंद लेती हूं। यहीं पर मैंने ‘जैतून के तेल के छिड़काव’ के बारे में भी सीखा। इन कार्यक्रमों के बारे में मुझे एक बात खलती है और वह है गति पर ज़ोर। अच्छा खाना पकाने और शीघ्र पकाने में क्या संबंध है? मेरी सास के पास एक पत्थर का मर्तबान था जिसमें वे सारू बनाती थीं। पत्थर आंच से उतारे जाने पर भी लंबे समय तक गर्माहट संजोए रखता, और सारू लगातार उबलता रहा। मेरी सास मुझे बताती कि इस वजह से मसाले और दाल सारू में एक साथ अच्छे से घुल जाते।
सारू क्या है? यह मुझे एक ऐसे प्रश्न की ओर ले जाता है जिसने भारत के अंग्रेज़ी लेखकों को शुरू से ही परेशान किया है। सारू को अंग्रेजी में क्या कहते हैं? असल में, आप अंग्रेज़ी में भारतीय भोजन का वर्णन किस प्रकार कर सकते हैं? भारतीय पाठकों के लिए डंपलिंग्स और पैनकेक्स (इडली और दोसा को दिए गए अंग्रेज़ी शब्द) का क्या मतलब है? या, जैसा कि मैं अक्सर खुद से पूछती हूं, अंग्रेज़ी का शब्द ‘वॉक’ कढ़ाई की तुलना में अधिक क्यों प्रसिद्ध है? सौभाग्य से, वैश्वीकरण की बदौलत भारतीय भोजन ने सही मायनों में दुनिया की यात्रा शुरू कर दी है। समोसे, रोटियां, नान वगैरह देश-विदेश में हर जगह उपलब्ध हैं। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती। भारत एक विविध देश है जहां प्रत्येक क्षेत्र का अपना व्यंजन है, और हरेक क्षेत्र की भाषा से जुड़े भोजन के अपने नाम। अब सारू को ही ले लीजिए – यह एक तरह की दाल के लिए कन्नड़ शब्द है जो काफी तीखी, मसालेदार और पानी वाली होती है। सारू के शौकीन – जो कई हैं – इसे पीने का भरपूर आनंद लेते हैं, और इस प्रक्रिया में उन्हें अपनी जीभ और गले को जलाने में कोई आपत्ति नहीं होती। तमिल में, यह रसम के नाम से जाना जाता है, जो सारू से ज़्यादा प्रचलित शब्द है। कन्नड़ में दाल से बनने वाले विभिन्न व्यंजनों के लिए कई शब्द हैं – हुली, सांभर कुट्टू, तोव्वे। प्रत्येक अलग हैं। अब हम इसे गैर-कन्नड़ पाठकों को कैसे समझाएं? पाक कला की पुस्तकों में इनके बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है। लेकिन कल्पना में इनकी व्याख्या क्यों करें? शब्दों के उचित अर्थ को प्राप्त करने की जिम्मेदारी पाठक पर छोड़ दें। बहरहाल मैं शुक्रगुजार हूं कि मैंने भारतीय भोजन का अनुवाद करने के लिए ‘डंपलिंग्स एंड पैनकेक्स’ वाला रास्ता नहीं अपनाया।
मेरे भोजन की इस कहानी का अंत एक सुखद मोड़ पर होता है, ठीक उन कहानियों की तरह जिन्हें हम सब पसंद करते हैं। खाना पकाने से अब मेरा कोई बैर नहीं। मैं मसालों का जादू सीख रही हूं, सीख रही हूं कि कौन से मसाले आपस में सहज ही मिल जाते हैं, और किन्हें दरदरा पीसने से स्वाद निखर जाता है। मैने सीखा है कि जीरा, एक मामूली, विनम्र मसाला, किसी भी मसाले के मिश्रण का हीरो (मास्टर शेफ शब्द) हो सकता है। इन सबसे ऊपर, मैंने पाया है कि हमारे आस-पास बढ़ते रेस्तरां, होम डिलेवरी और तैयार रेडी- टू- ईट पैकेट्स की भरमार के बावजूद, आज भी वही भोजन सबसे बेहतरीन है जो आप घर पर पकाते हैं। आज भी, घी और नींबू के साथ परोसा गया साधारण वरण-भात, एक रेस्तरां में मिलने वाले महंगे व्यंजन से कहीं ज्यादा सुंदर और स्वादिष्ट है।