अनुवाद –वंदना राग
बंगलुरु में – ‘गौरी लंकेश का अत्यावश्यक सारू’ के प्रदर्शन के बाद प्रसिद्ध कलाविद एन राज्यलक्ष्मी ने बहुचर्चित कलाकार पुष्पमाला एन का इंटरव्यू किया, जो अविकल रूप से यहाँ प्रस्तुत है।
एन आर –पुष्पमाला जी ,यह आपका खाने को लेकर दूसरा काम है न? मुझे याद आ रहा है कि लघु फिल्म राष्ट्रीय खीर और देसी सलाद जो 2004 में बनी थी उसके बारे में मैंने आपका इंटरव्यू किया था। आपने बताया था कि वह फिल्म आपकी पारिवारिक व्यंजन विधियों की किताब पर आधारित थी। आप यह बताइए, खाना और उसे पकाने को लेकर आपकी क्या राय है? क्या सचमुच यह एक कला है?
पी एन- (हँसती हैं) – राज्यलक्ष्मी जैसा कि आप जानती हैं मेरा काम औरतों की जीवनियों पर आधारित है। बहुत साल पहले चेन्नई में पोषण विज्ञानी, थिलका भास्करन ने 1898 में प्रकाशित, किसी रामचन्द्र राव द्वारा तमिल में लिखी हुई ,पहली व्यंजन विधियों की किताब मुझे दिखलाई थी। मैंने तुरंत ही उसकी फोटोकॉपी करवा ली थी। वह किताब महारानी विक्टोरिया को समर्पित है। उसके अंग्रेज़ी भाषा में लिखे प्राक्कथन में लेखक कहता है कि यह किताब देशी (नेटिव) औरतों के लिए है, जिसे पढ़कर वे अपने पतियों और बच्चों को पौष्टिक खाना पकाकर खिलाना सीखेंगी। ज़रा इस पितृसत्तात्मक तेवर पर गौर तो कीजिए ! वैसे बाकी की पूरी किताब तमिल में लिखी हुई है और उसमें लकड़ी के चूल्हों, रसोईघर के डिज़ाइन और खाना पकाने के बर्तनों की सुंदर तस्वीरें हैं। ज़ाहिर है यह किताब भी व्यंजन विधियों की किताबों के मेरे संकलन में शामिल हो गयी है। दरअसल मुझे आधुनिकता और सामाजिक बदलावों को व्यंजन विधियों की मार्फत देखना बहुत आकर्षित करता है। मैं स्त्रीवाद के इतिहास को भी रसोईघर के सुरागों से, पकाने के तरीकों से और घरेलूपने की गहनता से मापते हुए जानना चाहती हूँ। देखिए, डिनर पार्टी नाम के इंस्टालेशन में 39 मिथकीय और ऐतिहासिक औरतें अपने योगदान को तिकोनी टेबल पर, योनि की शक्ल की प्लेटों के माध्यम से संप्रेषित करती हैं। है ना अनोखी बात? उसको बनाने वाली कलाकार का कहना है कि उसने अपनी कलाकृति को ऐसा इसलिए बनाया क्योंकि इतिहास की निर्मिती में औरतों के योगदान को जानबूझकर अनदेखा किया गया है। लेकिन अब यह बात यूं दर्ज हो रही है लिहाज़ा वह उपेक्षा समाप्त होने की राह पर है ।
एन आर – क्या डिनर पार्टी विवादास्पद पचड़ों में नहीं उलझ गयी थी?
पी एन– हाँ यह तो है। लेकिन देखिए ना, वह कितना प्रभावशाली काम है।अपने ढंग का अग्रणी, पथ प्रदर्शक।यह स्त्रीवादी कला आंदोलन के आरंभिक चरण का काम है।अनेक साथियों ने मिलकर सेरामिक्स, सिलाई और कढ़ाई की विशिष्ट शिल्पकारी के माध्यम से उसे निर्मित किया। इसे अपने ढंग से तात्विक कहा जा सकता है, क्योंकि इस कलाकृति में स्त्री को उसके जनांगों में सिमटा दिया गया है। इसे यूरो-केंद्रित सम्प्रेषण मान, इसकी तीखी आलोचना हुई है और इसे पोर्नोग्राफ़िक भी करार दिया गया है। लेकिन इससे क्या ? हमें याद रखना होगा कि यह समय सापेक्ष काम है और इसका ऐतिहासिक महत्व है। आरंभिक स्त्री कलाकार अपने रचनात्मक हुनर को इस तरह पहले पहल प्रदर्शित कर रही थीं,निचले स्तर की कला और स्त्रीपने से भरी कला का आक्षेप सहती हुई। वे स्त्री देह और यौनिकता को कला के विषय और सामग्री के रूप में इस्तेमाल कर रही थीं और उच्च स्तर की कला को प्रदर्शित कर रही थीं।इसके साथ ही वे स्थापित पुरुष कलाकारों के आधिपत्य को चुनौती भी दे रही थीं। यह कितनी बड़ी बात है! अपने वितान में विस्तृत, खूबसूरती से उकेरी हुई यह स्त्रीवाद की पहली आधिकारिक कृति के रूप में जानी जाती है।दरअसल इसे महकाव्यात्मक कृति कहा जा सकता है। इसे मैंने अमेरिका के ब्रुकलिन संग्रहालय में देखा था और बयान नहीं कर सकती हूँ कि वह कितना रोमांचकारी अनुभव था।
एन आर- लेकिन राष्ट्रीय खीर तो व्यंजन विधियों का लेखा जोखा नहीं लगता, न ही वह पकाने के बारे में लगता है, मैं ठीक समझ रही हूँ न?
पी एन -हाँ ठीक समझा आपने, राष्ट्रीय खीर राष्ट्र की परिकल्पना पर आधारित है। राष्ट्र क्या होता है, क्या होना चाहिए, नहीं होना चाहिए इस विचार को लेकर है।इसे राष्ट्र की परिकल्पना की व्यंजन विधी मानिए आप। बरसों पहले गुज़र गई माँ और सास के पास दर्जनों व्यंजन विधियों की किताबें थीं, जो आज फटी-चिटी अवस्था में मेरे पास धरोहर स्वरूप पड़ी हैं। वे डायरी जैसी हैं, उनके जीवन के दस्तावेज जैसी। मैं इस घरेलू दस्तावेज के आधार पर उस दौर की बातों को रेखांकित करना चाहती थी। मेरी माँ की किताबें व्यंजन विधियों से भरी थीं, जिनमें घरेलू व्यवस्था को दुरुस्त करने वाली अखबारी कतरनें भी चिपका दी गयीं थीं।मेरी सास की डाइरियाँ मूलतः कर्नल पति की सेना से मिली नोट बुक्स थीं जिनके हाशियों को भी हर जगह व्यंजन विधियों, जन्मदिन की कविताओं , पैकिंग के सामानों की सूचियों और गर्भावस्था और बच्चे की पैदाइश से जुड़े व्यक्तिगत अनुभवों की टिप्पणियों से भर दिया गया था।सेना से जुड़े परिवार की अधिकांशतः बातें उनमें दर्ज थीं।दस साल पुरानी बातें। जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो गया और उन्हें स्कूल की रफ़ कॉपी और कार्टून बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं करने लगा तब तक वे मेरी सास की जीवनियां थीं। ये डाइरियाँ 1950,और 60 के दशक की थीं, देश को आज़ादी मिलने के तुरंत बाद की।ये उस दौर का आकर्षक सबालटर्न टेक्स्ट प्रतीत होती हैं। याद रखिए इसी दौर में 3 युद्ध हुए थे और खाने की कटौती हुआ करती थी। स्त्रीवादी विदुषी सूजी थारु का गुजराती लेखक सरोज पाठक पर लिखा आलेख आधुनिक भारतीय परिवार को आधुनिक भारतीय राष्ट्र के मेटाफॉर के सदृश्य देखता है। यह भी एक नज़रिया है, इस तरह के टेक्स्ट को पढ़ने का। मैंने इन्ही नोट्स के बदौलत अपनी स्क्रिप्ट लिखी। मैंने सुनियोजन के लिए खामोश कार्टून फिल्मों और आईसेनस्टाइन के मॉनताज (संग्रथन) सिद्धांत का पालन किया। सारे किरदार चॉक से ब्लैक्बोर्ड पर लिखते हैं, मिटाते हैं फिर लिखते हैं और ऐसी पांडुलिपि तैयार करते हैं जिसमें पहले लिखे हुए के ऊपर नया लिखा हुआ दिखलाई पड़ता है। हर किरदार एक नए बने देश के रूढ़िवादी नागरिक की तरह व्यवहार करता है। पिता के युद्ध विषयक ज़रूरी नोट्स, माँ की व्यंजन विधियाँ और बच्चे की शैतानियों से भरी घिसाई सब मौजूद है यहाँ । मज़ेदार बात यह है कि पिता जो कर्नल थे, अंदर से अभिनय के जुनूनी थे और अपने रिटायर होने के बाद एक घूमन्तू थिएटर कंपनी से जुड़ गए थे। माँ ने ऑल इंडिया रेडियो में काम किया था और फिर शिक्षा में मास्टर्स कर वे एक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान में पढ़ाने लग गयी थीं । माता -पिता कॉलेज में थिएटर करते हुए आपस में टकराए थे और गहरे इश्क में डूबने के बाद अन्तर्जातीय विवाह बंधन में बंध गए थे।माँ शाकाहारी थीं लेकिन पिता के परिवार के लिए मछली-मीट बनाना सीख गयी थीं। लेकिन इन नोटबुक्स में ये संश्लिष्टताएं विलीन हैं और सारी कहानी जेन्डर रूढ़िवादिता को दर्शाती है। इसीलिए मैं यह सवाल करती हूँ कि क्या सारे आदर्श नागरिक रूढ़िवादी होते हैं और एक स्टीरीयोटाइप का लगातार पोषण करते रहते हैं ?
Stills from Rashtriy Kheer and Desiy Salad (2004)
Photo Courtesy – Pushpamala N
एन आर – और आपको यह शीर्षक कैसे सूझा? कितनी अनोखी शब्द रचना है इसकी?
पी एन (हँसते हुए) – स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 2 व्यंजन विधियाँ 1950 की एक पत्रिका में छपी थीं जिसे मेरी माँ ने काट कर डायरी में चिपका दिया था। विधियाँ राष्ट्रीय झंडे के रंगों की हैं और जब लेख –जोखा समाप्त होता है तो ताकीद होती है- तैयार खाने को खाने से पहले, देश के नाम सलाम ठोंकिए। मुझे लगता है कि दोनों व्यंजन विधियाँ भारत को अतुलनीय ढंग से दर्शाती हैं। बहुआयामी संस्कृति वाला हमारा देश कितने समुदायों और नस्लों को अपने में समोने वाला एक बड़ा पात्र है जिसमें पुडिंग पक रही है या फिर सलाद की अलग-अलग सामग्रियाँ एक साथ फेंट कर, मिलाकर पेश कर दी जा रही हैं ।
एन आर – आप ज़्यादातर कैमरे के सामने प्रदर्शन करती हैं, अपने फोटोग्राफ़्स और विडीओ द्वरा। आप लाइव प्रदर्शन नहीं करतीं। इसके बावजूद 2004 में एक प्रयोगवादी फिल्म बनाने के बाद 2018 में आपने पकाने को लेकर एक लाइव प्रस्तुति दी?
पी एन – 2018 में मुझे हैदराबाद लिटरेरी फेस्टिवल में बुलाया गया था,गौरी लंकेश पर कुछ प्रदर्शित करने के लिए। गौरी मेरी करीबी दोस्त और पड़ोसी थी। उस साल लिट फ़ेस्ट वाले स्त्री पत्रकारों को सम्मानित कर रहे थे। 2017 में उसकी हत्या के बाद प्रकाशित आलेखों से उसकी छवि एकरेखीय,गंभीर, प्रतिबद्ध पत्रकार जैसी बनती दिखलाई पड़ती है। लेकिन जिस गौरी को मैं जानती थी वह एक आकर्षक, ज़िंदादिल,खुली स्त्री थी जिसका मज़ाक करने का अंदाज़ बेजोड़ था। वह खूब बड़ी पार्टियां करती थी और बढ़िया खाना बनाती थी। उसने मुझे बहुत सारी व्यंजन विधियाँ बताई थीं जिनका उपयोग मैं आज भी करती हूँ। इसलिए उसे याद करने के लिए मैंने परंपरागत ढंग के प्रदर्शन के बजाए कुछ अनोखा करना तय किया। मैंने सार्वजनिक मंच से उसकी बताई हुई एक व्यंजन विधि से खाना पकाया। यह प्रदर्शन पूरे अनुष्ठान से किया गया। ठीक जैसे हिन्दू अनुष्ठान किए जाते हैं और जिसमें प्रसाद की भी व्यवस्था होती है ; यह क्रिश्चियन युकारिस्ट की तरह भी है -जब वाइन के घूंट लेना और ब्रेड तोड़ना- खाना, यीशु के आशीर्वाद को पाना होता है, यीशु के शरीर के हिस्से को ही भोगना होता है। मैंने इस खास विधि को चुना और उसे अत्यावश्यक सारू कहा जो चमकीला लाल टमाटर का शोरबा है, एकदम ताज़े रक्त जैसा। इस दौर के लिए एकदम सटीक-अत्यावश्यक! इसके साथ ही लेकिन इसका रोचक शीर्षक, खाना पकाने का प्यारा घरेलू काम और गौरी की याद –कि वह यह व्यंजन पकाती थी ,(जो शायद उसकी माँ की इजाद हो,) जो वो तुरत-फुरत अपने आकस्मिक अतिथियों के लिए बनाया करती होगी, गौरी को मेरे सामने ज़िंदा कर देते हैं। इस प्रस्तुति में भारत माता जो अन्नपूर्णा उर्फ खाने की देवी बन जाती हैं, अनुष्ठान को सम्पन्न करती हैं। लोगों ने मुझसे पूछा है कि मैं क्यों अपने नैरेटिव में भारत माता की हिन्दुत्व वाली छवि का प्रयोग करती हूँ,जब गौरी की हत्या उसी विचारधारा के पैरोकारों ने की ? मैंने बहुत एहतियात से इस बारे में सोचा है और इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि मैंने इस शब्द को लोकप्रिय क्लीशै की वजह से चुना है। यह मेरा एक सांकेतिक जवाब भी है उन ट्रोलर्स को जो गौरी को ‘राष्ट्र विरोधी’ – एंटी नैशनल कहते थे।
एन आर – मैंने देखा कि ब्लैक्बोर्ड आपकी दोनों प्रस्तुतियों में प्रयुक्त होता है,राष्ट्रीय खीर में ब्लैक्बोर्ड की आखिर ऐसी क्या ज़रूरत है क्योंकि उसका टेक्स्ट तो नोटबुक्स से लिया गया है। खाना पकाने का ब्लैक्बोर्ड से क्या नाता है?
पी एन –ब्लैक्बोर्ड, पेडागोजी का एक महत्वपूर्ण औजार है। राष्ट्रीय खीर में ब्लैक्बोर्ड, नोट्स को सार्वजनिक करता है। यह व्यक्तिगत घिसपिट से अलग हुआ। यह अधिक शारीरिक सक्रियता और ड्रामा पैदा करता है। फिर वह स्पेस एक क्लास रूम बन जाता है। राष्ट्र का क्लासरूम। 2018 के अपने अत्यावश्यक सारू की प्रस्तुति में मैंने इसका प्रयोग नहीं किया था। वह प्रस्तुति अत्यंत सादा थी और वहाँ मैंने सिर्फ एक खाना पकाने की टेबल का उपयोग किया था। 2021 की प्रस्तुति में ब्लैक्बोर्ड था, रंगा हुआ बैक्ड्राप था, मास्क था,पूरा पी. पी. ई. किट पहने हुए सहायक था और मखमल का कुशन भी था।
इसके उपरांत रिलाइबल कॉपी प्रकाशन द्वारा –‘मील्स रेडी’ योजना बनी जिसके तहत मैंने प्रदर्शन किया । वहीं पर ब्लैक्बोर्ड के इस्तेमाल से शुरू किया। ब्लैक्बोर्ड पर व्यंजन विधि लिखी जिससे दर्शकों को यह अंदाज़ा हो गया कि गतिविधि की शुरुआत होने वाली है। अब कुछ सिखाया –पढ़ाया जाएगा।
Still from Rashtriy Kheer and Desiy Salad (2004)
Photo Courtesy – Pushpamala N
एन आर – खाना पकाने की क्रिया तो निहायत व्यक्तिगत क्रिया है।फिर खाना पकाना कैसे एक सार्वजनिक प्रस्तुति के रूप में पेश होता है?
पी एन (मुसकुराती हैं) – दर्शकों के सामने खाना पकाना अब एक बहुप्रशंसित क्रिया है।आप टेलीविज़न पर खाना पकाने के शोज़ और शेफ़्स की लोकप्रियता नहीं देख रही हैं?हैदराबाद के लिट फ़ेस्ट में मैंने अत्यावश्यक सारू का प्रदर्शन खुले मैदान में किया था। लगभग डेढ़ सौ दर्शकों की मौजूदगी में।उनमें बच्चे भी शामिल थे। पकाने के लिए बस एक टेबल रख दी गई थी और मैं अपनी भारत माता वाली कास्ट्यूम में थी। टेलीविज़न के कार्यक्रमों में लोग खाना पकाने की पूरी प्रक्रिया नहीं देखते हैं। उसकी एडिटिंग होती है। लेकिन यहाँ मैं सूरज की रोशनी से दीप्त ,अपने शानदार लिबास, चमचमाते मुकुट और ज़ेवरों समेत प्रस्तुति दे रही थी। पेपरमेषी से बने नकली हाथों और झंडों से काट रही थी, पीस रही थी ,तड़का दे रही थी और दर्शक सम्मोहन से भरे मुझे निहार रहे थे, सबकुछ करते हुए देख रहे थे।सारी क्रियाओं की आवाज़ें, पकते खाने से निकलती भाप और खुशबू अलग किस्म का जादू रच रहे थे। अंततः जब खाना पक गया और दर्शकों को छोटे हिस्सों में भात और शोरबा दिया जाने लगा तो लगा एक पूरा समुदाय प्रस्तुति का हिस्सा हो गया है। प्रस्तुति के हर अवयव को धीमे-धीमे – ही महसूस कियाजा सकता है।
2018 की प्रस्तुति लिट फ़ेस्ट में दी गई प्रस्तुति थी लेकिन बंगलुरु में जो प्रस्तुति मैंने दी थी वह भोजन परियोजना “मील्स रेडी”के तहत हुई थी। नए प्रकाशक , रिलाइअबल कॉपी ने कलाकारों द्वारा रची व्यंजन विधियों का एक संकलन हाल ही में प्रकाशित किया था। इस प्रस्तुति से पहले के कार्यक्रम खाना पकाने की कला सीखने वाली कक्षाएं थीं। कोविड की वजह से हमें अंतिम क्षण में ज़ूम तकनीक द्वारा प्रस्तुति देनी पड़ी। इसका सर्वथा अलग प्रभाव पड़ा। इस बार मैंने थिएटर की तरह अग्रमंच पर एक सेट तैयार किया जो झांकी जैसा था। 1 शांति पथ बंगलुरु की एक बंद आर्ट गैलरी का मैंने इसके लिए उपयोग किया।ज़ूम पर दर्शक गंध और आवाज़ का आस्वाद नहीं ले पा रहे थे।फिर भी वे जुड़े हुए थे। न्यू यॉर्क से जुड़े एक दर्शक ने बाद में कहा कि उसे लगा कि वह एक जादुई पोर्टल पर सुदूर कहीं, एक स्वप्न सरीखा दृश्य देख रहा है, जहां वह जाना चाहता है लेकिन जहाँ उसे जाने की मनाही है। यह अनुभव एक गोपनीय घरेलू क्रिया को देखने जैसा था, जिसे वास्तविक समय में एक खिड़की के माध्यम से देखा जा रहा था। कुछ –कुछ – रतिक(वॉयएर) जैसा महसूस हो रहा था।
Still from Gauri Lankesh’ Urgent Saaru live performance by Pushpamala N organized by Reliable Copy at 1. Shanthi Road, Bengaluru (2021)
Photo Courtesy – Pushpamala N
Zoom Recording of the performance
Gauri Lankesh’s Urgent Saaru – Pushpamala N from Reliable Copy on Vimeo.
एन आर – आपकी प्रस्तुतियाँ खामोश क्यों होती हैं?
पी एन – मुझे प्रारम्भिक दौर का साइलन्ट सिनेमा बहुत प्रिय है।उसमें आवाज़ के इस्तेमाल के बजाय टाइटल कार्ड्स होते थे।
राष्ट्रीय खीर के लिए मैं व्यंजन विधियों की किताबों से ही टेक्स्ट उठाना चाह रही थी लेकिन उसे स्क्रिप्ट में कैसे ढाला जाए यह सोच ही रही थी कि खयाल आया – साइलन्ट सिनेमा वाला फ़ॉर्म सही रहेगा। अगर बातचीत या डायलॉग डालती हूँ तो एक तर्कसंगत नैरेटिव तैयार करना होगा लेकिन सब- टाइटल्स में किसी भी डायलॉग के सत्व को समाहित किया जा सकता है और बात भी चुस्ती से प्रेषित हो जाती है। लोगों को समझाने वाला तरीका नहीं अख्तियार करना पड़ता है। बतौर उदाहरण देखिए, फिल्म बच्चे के दौड़ने और ब्लैक्बोर्ड पर ‘गृह कार्य’ लिखने से शुरू होती है। फिर दृश्य में पिता का प्रवेश होता है और बोर्ड पर पुराना लिखा हुआ मिटा कर वे सेना से सम्बद्ध एक प्राथमिकता सूची लिख देते हैं। जो इस प्रकार से है: 1. हथियारों के लिए गड्ढे खोदना और आग से बचाव के खंदक तैयार करना, 2. धरती के भीतर बारूद बिछाना, 3. उन्हें तारों से जोड़ना, 4. उन्हें घनीभूत करना । फिर लगभग पूरे दिनों वाली गर्भावस्था वाली स्थिति में माँ आती है और आम का संरक्षण कैसे किया जाये इसकी विधि लिखने लगती है: 1. पके आमों को काटिए, 2. 30 ग्राम चीनी 70 ग्राम पानी में मिलाइए 3. आंच पर तब तक खदकाइए जब तक चीनी घुल ना जाए, 4. आम के टुकड़ों पर इस घोल को डाल दीजिए इत्यादि -इत्यादि। यहाँ फ़ॉर्म और पार्श्व संगीत बहुत महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक किरदार के पास विशिष्ट हरकतें हैं और खास संगीत जो उन्हें रेखांकित करता है। पिता हमेशा बाएं से प्रवेश करते और लौटते हैं। उनके आने और जाने पर सेना की परेड में बजने वाला संगीत बजता है। माँ अपनी भारी काया लिए हुए हिलती डुलती आती है मंच पर सितार के पार्श्व संगीत के साथ और जब बेटा दौड़ता है तो कार्टून संगीत बजता रहता है। कार्टून फ़ॉर्म में पैरोडी के संग गांभीर्य भी गुँथा रहता है। यह मुझे प्रभावित करता है। आईसेनस्टाइन के मॉनताज सिद्धांत के अनुसार जब दो भिन्न चीजों को एक साथ कर दिया जाता है तो वे एक तीसरा आशय गढ़ सकती हैं।घरेलू व्यंजन विधियाँ, युद्ध की विभीषिका से मिलकर एक नया आख्यान रचती हैं। गृह कार्य से दोनों अर्थ इंगित होते हैं, बच्चे के स्कूल से मिला गृह कार्य और माँ के घरेलू कार्य। इतिहासकार पार्थ चटर्जी कहते हैं कि औपनिवेशिक काल में पुरुषों को बाहरी दुनिया में जब समझौतावादी रुख अख्तियार करना पड़ता था तब औरतों को घर की पवित्रता सँजोने की जिम्मेदारी सौंपी गई । ऐसा लगता है जैसे मेरे ये किरदार बिना किसी इलहाम के, इसी फलसफे को जिए जा रहे हैं। व्यंजन विधियों की किताबों में जो सबसे चौंकाने वाली बात है वह सभी किरदारों का अपनी बातों को सूची के माध्यम से व्यक्त करना है। यह जो क्रमबद्ध तरीकों से लिखने का सलीका है यह ज़िंदगी को आधुनिक तरीकों से विन्यसित करने का तरीका ही है। ढांचागत करने का आधुनिक तरीका।
एन आर और अत्यावश्यक सारू ? उसमें आपने बोला क्यों नहीं?
पी एन – अत्यावश्यक सारू प्रदर्शनकारी कला है, थिएटर नहीं । यह एक अति सूक्ष्म फ़ॉर्म है जिसमें सादे, अवधि में बंधे क्रियाकलाप होते हैं । मैं तो बस खाना पकाने की आम क्रिया को अंजाम देना चाहती थी। लेकिन इसी भव्य आडंबरी कास्ट्यूम को पहन कर जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि अनुष्ठान होने वाला है। एक दर्शक ने कहा –उसे आलीशान के साथ साधारण का यह संसर्ग बहुत पसंद आया। कुछ लोगों ने मुझसे पूछा भी-आपने क्यों नहीं बोला? जिसके बारे में कभी –कभी सोचने पर लगता है, किसी राजनेता के साथ कुछ चर्चा को प्रस्तुति में शामिल किया जा सकता है। लेकिन फिर लगता है धीरे- धीरे पकाने की साधारण क्रिया को देखना और मामूली डिटेल्स को जज़्ब करना अपने आप में बेहद चिंतनशील प्रक्रिया है। एकदम मेडिटेशन जैसी। मैं समझाने वाली चीजें नहीं करना चाहती थी। अमेरिका के एक दोस्त को यह बहुत खूबसूरत और भावुक कर देने वाली प्रस्तुति लगी। उसे दुख हुआ कि गौरी की दिल दहला देने वाली कहानी को वह नहीं जानती थी। यह प्रस्तुति उस कहानी की याद दिलाने के लिए ज़रूरी है। इसके लिए यह सांकेतिक, स्पर्शीय और मानवीय बोध जगाने वाला तरीका ही मुझे ठीक लगता है।
एन आर – आपकी प्रस्तुतियाँ इतनी परिहासपूर्ण होती हैं तब भी जब वे एक गंभीर बात कह रही होती हैं। आप हास्य का इतना अच्छा प्रयोग कैसे करती हैं?
पी एन -मैंने हाल ही में आर्थर कोएस्टलेर का ‘ऐक्ट ऑफ क्रीऐशन’ दोबारा पढ़ना शुरू किया है। 1970 के दशक में कोएस्टलेर को एक जाने –माने बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त थी। लेकिन आज देखिए वह कैसे भुला दिया गया है? जब मैं युवा कलाकार थी तब इस किताब का मेरे लिए बहुत महत्व था। कोएस्टलेर लिखता है – कला, विज्ञान और हास्य मनुष्य की रचनात्मकता से जुड़े हैं और जुड़कर वे अनेक नए संबंध बनाते हैं, जिससे एकदम नई अंतर्दृष्टि विकसित होती है और आविष्कार होते हैं। मैं अनेक आयामों पर काम करना चाहती हूँ। मैं जिस भाषा का प्रयोग अपनी प्रस्तुतियों में करती हूँ वह बोलचाल की भाषा होती है स्लैंग समेत। हास, प्रदर्शन में हैरत और मनोरंजन उत्पन्न करता है और दर्शक को जोड़ता है। वह जो स्थापित फ़ॉर्म की रूढ़िवादिता होती है न, उसे हास भंग करता है। विट, प्रहसन, द्विअर्थी संवाद,पैरोडी और बेतुकापन- ऐब्सर्डडीटी को, निचले स्तर का कला व्यवहार माना जाता रहा है। तथाकथित उच्च स्तर की कला में इन अवयवों का प्रयोग वर्जित है।उच्च स्तर की कला को गांभीर्य भरा दर्शाया जाना अवश्यंभावी माना जाता है। स्त्रियों को वैसे भी हंसने से रोका गया है क्योंकि ज़ोर से हँसना आक्रामक व्यवहार माना जाता है। शायद इसीलिए मुझे हास अच्छा लगता है। ऐब्सर्डडीटी पसंद आती है। टिप्पणी करने के लिए, स्थापित मनुष्य विरोधी मान्यताओं को ध्वस्त करने के लिए, कुंठाओं पर वज्रपात करने के लिए, मुक्त होने के लिए मुझे ये औज़ार बहुत अपने लगते हैं।और खूबी यह है कि इस तरह के संदेश में चुपके से रूढ़िवादिता को मसलने का अंतर्निहित भाव भी छिपा रहता है, जो मुझे अत्यंत प्रिय लगता है।
परिचय
एन राज्यलक्ष्मी, जानी मानी कला संस्कृति विचारक हैं। बैंगलुरु के आइडीअल टाइम्स में निचली पायदान से अपना सफर शुरू करने वाली राज्यलक्ष्मी आज महत्वपूर्ण कला समीक्षक, संस्कृति विचारक और पुष्पमाला एन के काम की विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
पुष्पमाला एन, लब्धप्रतिष्ठित फोटो,-विडिओ प्रदर्शनकारी कलाकार,संगतराश, क्युरेटर और लेखक हैं। उनके तीक्ष्ण परिहासपूर्ण प्रदर्शन और लेखन में क्रांतिकारी स्त्रीवाद की उत्कट आवाज़ सुनाई पड़ती है। वे यथास्थितिवाद को धड़ल्ले से प्रशनांकित करती हैं। उनका काम करने और रहने का ठिकाना बंगलुरु है।