अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
अगर किसी मलयाली लेखक से कहा जाए कि वह खान-पान के बारे में लिखे, तो वह क्या सोचेगा? अनिवार्यतः इसका उत्तर है, ओणम का त्योहार और उसका सबसे प्रसिद्ध भोज- सद्या !
Artwork – Vaishnavi Ramesh, 2024
ओणम आने वाला है, यह अहसास होते ही मन में जो सबसे ख़ास छवि बनती है, वह है केले के ताज़ा पत्ते पर बिछा हुआ शानदार मलयाली सद्या, जिसमें इतने विविध रंग होते हैं, जितने किसी कथकली कलाकार के अलंकृत परिधान और मेक-अप में होते होंगे। यह छवि एक ही समय में दो बातें दिखा देती है- खाने की प्राकृतिक सादगी और बेहतरीन पाक-कला, जिसमें औषधीय गुणों वाला नवारा चावल और साम्बर और परिप्पु या फिर सर्वव्यापी अवियल (अब तो इस नाम से एक रॉक बैंड भी है) और पचड़ी शामिल होते हैं। आप केरल के जिस हिस्से में हों, उसके अनुसार, आपके सामने एक ही बार में, एक के बाद एक, लगभग 30 स्वादिष्ट व्यंजन परोस दिए जाएँगे, और सबसे अंत में दिया जाएगा मीठा पायसम, जो सीधे आपके पत्ते पर ही परोस दिया जाएगा और हम जैसे लोग, जिन्हें तरल मिठाइयों को उँगलियों से उठाकर खाने की आदत नहीं, उन्हें इसका ख़ामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा, क्योंकि वह चीज़ आहिस्ता से, कभी फिसल कर इस तरफ़ हो जाएगी तो कभी लुढ़क कर उस तरफ़, और अगर हमने पत्ती के कोने को उठाने में एक पल की भी देरी की, तो सीधे नीचे गिर जाएगी।
जैसा कि मेरे पूर्व सहयोगी मनु एस पिल्लई ने इतिहास की अपनी प्रामाणिक किताब द आइवरी थ्रोन में बताया है, केरल के खान-पान की मुख्य प्रयोगशालाएँ, ऐतिहासिक तौर पर, राजमहलों या कोविलकम में हुआ करती थीं, जो तटीय क्षेत्रों पर शासन करते थे और ओणम के दौरान नए-नए तरह के व्यंजन बना कर नए पैमाने तय करने में एक-दूसरे से होड़ लगाया करते थे। साथ ही, इस क्षेत्र के महान मंदिर भी थे, जिनमें से हर कोई, एक न एक विशिष्ट खाद्य-पदार्थ (वह भी दिव्य स्वाद वाला) परोसा करता था। उदाहरण के तौर पर, अम्बालापुजा के मंदिर में श्रीकृष्ण द्वारा पवित्र किया गया पायसम दिया जाता था या सबरीमाला में अप्पम या अरावन, जो कि वहाँ के अविवाहित देवता अय्यपन को बेहद पसंद है। अधिकांश साधारण नश्वर मलयालियों की तरह ही, हमारे देवताओं को भी साल के ये दिन बेहद पसंद हैं, और ओणम की भावना को व्यक्त करने का सबसे सुंदर तरीक़ा था— न केवल अधिक भोजन बल्कि बेहतर भोजन!
आज़ादी से पहले, 1930 के दशक में, त्रावणकोर की वरिष्ठ महारानी सेतु लक्ष्मी बाई, ओणम की विशाल दावत की सदारत करती थीं, जिसमें न केवल उनके परिजन बल्कि महल के 300 कर्मचारियों को भी भोजन कराया जाता था। जैसा कि मनु एस पिल्लई बताते हैं : वह सभा में हरे संगमरमर वाले विशाल हॉल में एक रेशमी क़ालीन पर बैठती थीं, चाँदी की एक बड़ी तश्तरी पर केले का एक पत्ता बिछा कर उनके सामने परोसा जाता था, उसके बाद ही ब्राह्मण-गण उत्सव के आरंभ की घोषणा करते थे। इसके बाद एक दिलकश शाही जुलूस निकलता। महारानी के महल में 24 रसोइए नियुक्त थे और दोपहर के खाने के दौरान बाक़ायदा पूरी पोशाक पहने उनके शाही नौकर, गर्म और ताज़ा भोजन से भरे ताम्बे के विशाल बर्तनों को अपने पगड़ीदार सिरों पर लाद, अनुशासित तरीके़ से क़तार बना कर भोजन-कक्ष में पहुँचाते थे।
किसे क्या परोसा जाएगा, इसके लिए नियम बने हुए थे। केरल अपनी मातृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध है, जिसके तहत महारानी के बेचारे पति की हैसियत महज़ एक आम आदमी-सी होती थी, और जहाँ ओणम की शाही दावत के अंत में उसकी राजसी पत्नी के सामने चार तरह के पायसम परोसे जाते थे, पति महोदय को सिर्फ़ दो तरह के पायसम से संतोष करना पड़ता था। बेशक, बाक़ी लोगों को तो सिर्फ़ एक ही पायसम मिलता था, जोकि अपने आप में बहुत बड़ी बात होती थी क्योंकि राजसी रसोइए को समूचे केरल का सर्वश्रेष्ठ रसोइया माना जाता था।
Artwork – Vaishnavi Ramesh, 2024
भव्य पाक-कला और उत्कृष्ट खान-पान भले राजमहल के लिए रोज़मर्रा की बात हो, लेकिन एक आम मलयाली तो हर साल पूरे उत्साह के साथ ओणम पर्व की प्रतीक्षा करता था, जब वह भी राजाओं और रानियों की तरह दावतों में हिस्सा ले सके। 1960 और 1970 के दशक का वह समय मुझे अब भी याद है, जब ओणम (या परिवार की किसी वरिष्ठ सदस्य या कुलमाता के जन्मदिन) के अवसर पर पलक्कड़ ज़िले में स्थित गाँव के हमारे पुश्तैनी घर में हमें ख़ूब सारा खाना खिलाया जाता था, उस दौरान हम बच्चे विशाल आँगन के चारों ओर बैठते थे और रसोईघर में उत्साह-भरी चहलक़दमी चलती रहती थी।
ओणम न केवल फसल-कटाई के उत्सव के रूप में, बल्कि राजा महाबली (जिनके बारे में लोग अंदाज़ा लगाते हैं कि वह ‘महा-बेली’ यानी विशाल पेट वाले थे) की याद में भी मनाया जाता है। इस कारण यह कई मायनों में ख़ास त्योहार था। किंवदंती है कि एक समय पूरे केरल पर उनका राज था, जिसमें इतनी शांति और समृद्धि थी (शायद खाने के लिए बेशुमार सद्या उपलब्ध था) कि देवताओं तक को उनसे ईर्ष्या होने लगी थी। यह सिर्फ़ खाने के बारे में नहीं, बल्कि समूचे सांस्कृतिक अनुभव से जुड़ा हुआ था, जहाँ किसानों और किराएदारों को ‘बड़ी हवेली’ में बुलाया जाता, उन्हें तोहफ़े में कपड़े और पैसे दिए जाते, और सामंती ज़मींदारों की तरफ़ से उन्हें दावत खिलाई जाती, जो इसे आभार और कृतज्ञता व्यक्त करने के अवसर की तरह भी मनाते थे।
यक़ीनन, उत्सव का सबसे महत्वपूर्ण अंग होता था- प्रीतिभोज। आज भी आप केरल के किसी भी हिस्से में किसी विवाह-समारोह में चले जाइए और वहाँ उपस्थित सम्माननीय बुज़ुर्गों की आपसी ख़ुसर-पुसर सुन लीजिए, वे अक्सर सद्या की गुणवत्ता के बारे में चर्चा करते मिल जाएँगे कि इसमें ‘अब वो पुराने दिनों वाली बात नहीं’ रही। प्रीतिभोज का इतना महत्व था कि त्रावणकोर में सरकारी आयोजनों में सब्ज़ियों के काटने का काम तब शुरू होता था, जब दीवान साहब या प्रधानमंत्री अपनी पालकी, या बाद के दिनों में लिमोज़ीन, में बैठ वहाँ पधारते, फिर अपनी गरिमा के अनुकूल ककड़ी या कोई अन्य सब्ज़ी चुनते, फिर उत्सवपूर्वक उसकी कटाई का शुभारंभ करते।
ज़ाहिर है, मलयाली लोगों के लिए खाना हमेशा से बहुत मायने रखता आया है।
लेकिन मैंने ये जो सारी बातें बताईं, ये शाकाहारी मामला है- सड़क किनारे एक ऐसा ओणम भी मनाया जाता है, जिसमें अद्भुत तरह के माँसाहारी खाने शामिल होते हैं, विभिन्न क़िस्म की मछलियों की करी से लेकर अनुमानतः (क्योंकि मैं शाकाहारी हूँ) माँस के कई स्वादिष्ट व्यंजन! भले आप केरल के सबसे अंदरूनी गाँव में पहुँच जाएँ, नीचे मैदान में या ऊपर पहाड़ पर, उत्तर या दक्षिण या मध्य में, हर जगह आपका स्वागत होगा सर्वव्यापी थट्टु कड़ाई से, जिसमें मुख्य रूप से शामिल होता है परोटा (पराठा नहीं) और बीफ़ करी। केरल के स्ट्रीट-फूड की अपनी एक अलग पहचान और प्रतिष्ठा है। कई पीढ़ियाँ पुट्टू और कडाला से दिलोजान से प्यार करती बड़ी हुई हैं, या फिर स्टू के साथ मिलने वाले अप्पम (शुक्र है कि मेरे जैसों के लिए यह शाकाहारी रूप में भी मिल जाता है), या नूडल्स के हमारे स्थानीय रूप इडियप्पम, या मछली से बने करीमीन पोलीचाटू, झींगा करी या कोझी वारूथडू के साथ (भले ही आप इन नामों का उच्चारण नहीं कर सकते)! या फिर बेशक, सबसे सादा और बेहद स्वादिष्ट दही-चावल और उसके साथ नारियल की साधारण चटनी!
ओणम को एक शाकाहारी त्योहार के रूप में देखना आसान है, लेकिन मुख्य रूप से हिंदुओं के लिए। केरल के ईसाई और मुसलमान, महाबली की स्मृति को अपनी तरह से मनाते हैं, कप्पा और फिश करी के साथ। टैपिओका या कप्पा आज केरल के खान-पान का अभिन्न अंग बन चुका है- भाप में पका कर या तल कर या चिप्स बना कर, आमतौर पर मसालेदार चटनी के साथ खाया जाता है। आज यह बेहद प्रसिद्ध है। हालाँकि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भले यह मलयाली रसोई के एक अभिन्न और विशिष्ट अंग की तरह मशहूर हो, केरल में कप्पा का आगमन ज़्यादा पुरानी बात नहीं, यह 1880 के दशक में यहाँ आया। जब राज्य अकाल से त्रस्त था, तब ग़रीबों के लिए चावल का एक सस्ता विकल्प तलाशने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ, त्रावणकोर के महाराजा पहली बार इसे लातिन अमेरिका के तटीय क्षेत्रों से लाए थे, जोकि अब समूचे मलयाली समाज का पसंदीदा व्यंजन बन चुका है।
इस तरह का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव कोई नई बात नहीं। हमारे मछुआरे मछली पकड़ने के लिए सदियों से चीनी जाल का इस्तेमाल करते आए हैं। कोचीन के पास समुद्र-तट पर एक नज़र डालते ही यह नज़ारा दिख जाएगा। पकड़ी गई मछलियों को वे चीना-चट्टी या चीनी कड़ाही में तलते हैं। यहाँ उगे मसालों को अरब व्यापारी पूरी दुनिया में ले गए, वहीं दूसरी तरफ़ मलाबार के मुस्लिम मोपला समुदाय ने अपनी पाक-कला में अरबी प्रभावों को शामिल किया। चाहे फ़ोनीशियों और रोमन लोगों का समय रहा हो या बाद में यूरोपीयों का, पूरे इतिहास में, केरल ने दुनिया-भर के साथ व्यापार किया और हर उस सांस्कृतिक अनुभव का स्वागत किया जो बरास्ते समुद्र उस तक आया। यहाँ आए हर व्यापारी ने यहाँ के स्थानीय खान-पान पर अपना प्रभाव छोड़ा, जो अपनी विशिष्टता में जितना मलयाली है, विविधता में उतना ही अंतरराष्ट्रीय। ओणम के सद्या के विविध रंग, दरअसल केरल की वैश्विक विरासत के विविध रंग भी हैं।
शायद इसी से यह बात समझ में आ जाती है कि आख़िर क्यों, यहाँ आने के बाद पर्यटक न केवल यहाँ के तटों पर घूमने और यहाँ की आयुर्वेदिक परंपराओं का लाभ उठाने पर ध्यान देते हैं, बल्कि यहाँ के स्थानीय खान-पान का आनंद लेने को भी तरजीह देते हैं। यह स्थानीय खान-पान, अक्सर आयुर्वेद से अभिन्न रूप से जुड़ा होता है। हाल ही में किसी ने मुझे बताया कि भारत में ही, मिसाल के तौर पर मुंबई में, उपनगरों में रहने वाली कई मलयाली गृहिणियाँ अतिथियों के लिए अपने फ्लैट के दरवाज़े खोल देती हैं ताकि वे आएँ और घर में बने स्वादिष्ट सद्या का आनंद उठा सकें। इस तरह उनकी आमदनी भी हो जाती है और कई लोगों को केले के पत्ते और उस पर सजे लज़ीज़ खानों का सुख भी मिल जाता है, जिससे उनके भीतर दुबारा आने की तलब भी बढ़ जाती है। और यह तो आम दिनों की बात है, ओणम के अवसर पर इन अतिथियों की संख्या दर्जनों में पहुँच जाती है।
केरल का खाना तृप्त कर देता है, और साथ ही यह भी कहना चाहिए कि यदि केरलाई उदर या केरलाई तोंद जैसी कोई चीज़ होती हो, तो उसके आकार का मुख्य रिश्ता उस बेहद शानदार खान-पान से है, जिसके हम मलयाली आदी हैं। जैसे कि इस समय मैं अफ़सोसनाक अंदाज़ में सोच रहा हूँ अपने बढ़ते हुए घेरे के बारे में, जिसके कारण मैं ‘महा-बेली’ होता जा रहा हूँ, जोकि ओणम और महाबली के साथ जुड़ा हुआ है, तो मैं एक संकल्प कर रहा हूँ कि अगर संभव हुआ, तो इस साल मैं ओणम सद्या नहीं खाऊँगा- सद्या जोकि खाने वाले को समृद्ध स्वादिष्ट अनुभव तो देता है, लेकिन साथ ही साथ उसकी कमर के घेर को भी विशाल बना देता है।
Artwork – Vaishnavi Ramesh, 2024