अनुवाद – कनक अग्रवाल
मेरी माँ असम से है. उन्हें ‘बिगौती’ से खासा प्रेम है, एक व्यंजन जो नवजात बछड़े के जन्म के तुरंत बाद भैंस और गाय के अतिरिक्त दूध से बनाया जाता है. खाने में यह छेना के तरह है, एक प्रकार का पनीर जो भारतीय उपमहाद्वीप से आता है, जिसका उपयोग मशहूर बंगाली मिठाई रसगुल्ला बनाने में किया जाता है. बिगौती मीठी होती है, लेकिन माँ इसमें थोड़ी-सी अधिक शक्कर मिलाना पसंद करती हैं ताकि यह थोड़ी और मीठी हो जाए. मुझे आज भी अपने दादाजी की बेचैनी याद आती है जब उनकी पालतू गाय के बछड़े देने का समय होता था. उसके प्रसव की ज़िम्मेदारी दादाजी पशु चिकित्सक की तरह निभाते थे. इस प्रक्रिया की हलचल से मैं अनजान रहती क्योंकि बच्चों को इन सब से दूर रखा जाता. मैं और मेरे चचेरे भाई-बहन बड़ी आस लगाए एक कोने में दुबके रहते, उस बिगौती की उम्मीद में जो बछड़े के पैदा होने पर माँ हमें तुरंत बना कर देती.
बचपन में मेरा ध्यान नहीं गया मगर अब मुझे एहसास होता है कि बिगौती बनाने का कार्य हमेशा माँ पर ही छोड़ दिया जाता था. माँ के हाथ से बनी मछली भी परिवार में सभी पसंद करते थे और ये पाक कला उन्होंने खुद ही सीखी थी. उन्हें क्या मालूम था कि एक दिन उनकी शादी उत्तर बंगाल में रहने वाले एक पुरुष से हो जाएगी.
मेरे पिता एक चाय बागान में काम करते थे, जहाँ मैं एक संकर संस्कृति के बीच बड़ी हुई, अपने नेपाली और बंगाली दोनों ही पड़ोसियों के बेहद निकट. यह केवल मेरे परिवार के लिए अद्वितीय नहीं है – इस प्रकार की मिली-जुली संस्कृति को उत्तर बंगाल के तराई दुआर क्षेत्र में आमतौर पर देखा जा सकता है. मुझे याद है वे दिन जब माँ के दोस्त हमारे परिवार को लक्ष्मी पूजा में आमंत्रित करते थे और मैं तुरंत योजना बनाना शुरु कर देती कि कौन से कपड़े पहन कर जाना है! हालाँकि मैंने दोस्तों को कभी नहीं बताया कि मेरा वास्तविक उत्साह पायेश के लिए होता. वह ख़ास किस्म की चावल वाली खीर है जो पूजा में खिचड़ी और लबरा के बाद परोसी जाती.
माँ दिवाली पर अपने देवताओं को खीर का भोग लगाती. खीर पायेश से थोड़ी अलग थी. माँ इसे सफ़ेद चीनी से बनाती थी, न की खजूर के गुड़ से. अंत में, अपने देवताओं को चढ़ाने से पहले वह हमेशा एक छोटा तुलसी का पत्ता उस पर रख देती. मैं फ्रिज में रख कर ठंडी खीर खाने का बेसब्री से इंतज़ार करती.
‘ढकने’ पायेश के समान है. यह वास्तव में मिठाई नहीं बल्कि एक तरह का मीठा चावल है जिसे विशेष रूप से त्योहारों में बनाया जाता है. जब मैंने पहली बार ढकने चखा, मुझे पसंद नहीं आया था. मेरी काकी ने कहा कि शायद उनके बनाने में कमी रह गयी और वादा किया कि अगली बार वह बेहतर ढकने बनाएंगी.
भारत और नेपाल की झिरझिरी सीमा ने नेपाल में पैदा और पले- बढ़े लोगों की तुलना में भारतीय मूल के नेपालियों से सम्बंधित कई भ्रांतियाँ पैदा की हैं. भारत में नेपाली खुद को गोरखा के रूप में पहचानते हैं – यह नेपाल के गण्डकी प्रान्त की नगरपालिका का नाम है और ऐतिहासिक रूप से महान गोरखा सैनिकों के नाम से जुड़ा हुआ है.
मैंने पहली बार गुड़ पाक का स्वाद अपने पड़ोसी के घर चखा था. काठमांडू की यात्रा पर उनकी चाची ने बिदाई के समय उन्हें गुड़ पाक के पैकेट भेंट दिए थे. मैं सोच में पड़ गयी थी कि ये कलाकंद है या सन्देश. तब मेरे दोस्त ने बताया कि ये कढ़ाए हुए दूध और गुड़ से बना है – इसलिए ‘गुड़’ और ‘पाक’ – उसे बनाने की विधि. जब मैंने उसे खाया तो चिपचिपा, नम और खूब मीठा पाया – पर अत्यधिक भी नहीं – फिर अपनी उँगलियों के बीच लगे गुड़ पाक को तसल्ली से चाटा और हाथ बढ़ा कर एक और माँगा.
कलिम्पोंग स्थित ‘मेरी छात्रावास’ जहाँ मैं बतौर पेइंग गेस्ट रहती थी, वहाँ अक्सर हमें कैंडी खाने मिलती. इन कैंडी में कुछ खास नहीं था सिवाय इसके कि वे चीनी से बनी थी और सीधे कोलकाता से आती थी. हमारी मैम के दोस्त शहर में रहते थे जो कैंडी भेजते थे. मैम बड़े चाव से इन्हे हमारे साथ बांटती थी, खास कर क्रिसमस पर.
कोलकाता की कैंडी के साथ नेपाली कैंडी का टुकड़ा चखना मेरे लिए एक अद्भुत क्षण था. इस मीठे को पुष्टकारी कहा जाता था. इसे मेरे फूफा लेकर आए थे जिनकी पत्नी नेपाल के बिर्तामोड नगरपालिका से थी. पुष्टकारी का कोई नियमित आकार नहीं था. ये दिखने में भूरे रंग की मध्यम, कठोर गोलियाँ थीं. इसे खा कर मुझे जल्द ही पता लग गया कि ये घी और दूध में पकी चाशनी से बनी है, जिसे मेवे, नारियल या खजूर से सजाया जाता है. पुष्टकारी का अनुस्वाद मुझे विशेष रूप से पसंद आया-शुरुआत में कठिन मगर खाते ही मुँह में पिघल जाने वाला. कुछ लोग इसके गहरे भूरे रंग की वजह से इसे चॉकलेट भी समझते हैं और इसे चखने के बाद यह बात ज़ाहिर थी कि नेपाल के स्थानीय लोग पुष्टकारी को चॉकलेट का स्थानीय संस्करण क्यों मानते थे.
हालाँकि न तो मुझे गुड़ पाक और न ही पुष्टकारी में अपनत्व का भाव मिला. क्या कोई ऐसी मिठाई थी जो खुद में मेरी नेपाली-भारतीय होने की पहचान संजोये थी? देखा जाए तो मुझे रसमलाई खाना बेहद पसंद है. यह मेरी पहचान के बारे में क्या बयान करती है?
दार्जिलिंग के बारे में कई कहानियाँ लिखी गयी हैं लेकिन कलिम्पोंग के बारे में बहुत कम, जहाँ मैंने अपने जीवन के नौ साल स्कूली छात्र के रूप में बिताए. मुझे वहाँ के क्लासिक कलिम्पोंग लॉलीपॉप याद आते हैं. ऐसा कहा जाता है कि स्विस जेसुइट पादरी फादर आंद्रे बटी ने 1950 में पहली दफा कलिम्पोंग से इन का परिचय कराया था. ये आधुनिक कैंडी स्टोर वाले लॉलीपॉप की तरह नहीं दिखते. गहरे भूरे रंग के कलिम्पोंग लॉलीपॉप देखने में सिगार की तरह होते हैं क्योंकि इन्हे लम्बी आकृतियों में बेल कर तैयार किया जाता है. इनका भरपूर स्वाद खालिस दूध, मक्खन और चीनी के मिश्रण से आता है. मुझे इस छोटे, पहाड़ी शहर को छोड़े कई साल हो गए मगर जब भी वापस लौटती हूँ, अपने लिए एक पैकेट ज़रूर खरीद लेती हूँ जहाँ पहाड़ी से धीमे-धीमे उतरते हुए, इसके मीठे स्वाद में घुलते हुए, स्विस पादरियों के भूले हुए इतिहास को याद करती हूँ.
नेपाली डायस्पोरा के लिए यह एक विश्वव्यापी तथ्य है कि सेल रोटी के बिना हर त्यौहार अधूरा है. मैंने सेल रोटी के कई प्रकार देखे लेकिन जो मुझे ख़ासतौर से पसंद है वह मेरी फुफु बनाती हैं. सबसे पहले वह घोल तैयार करती हैं जिसके लिए वह भीगे हुए चावलों को पीसती है. इसके लिए वह एक बड़ी से नेपाली ओखली का इस्तेमाल करती हैं जो लकड़ी से बनी होती है. फिर वह इस दानेदार, कुटे चावल में दूध, चीनी, घी, पानी और अपने कुछ ख़ास, रहस्यमयी मसाले मिलाती हैं. फुफु के पास एक विशेष लोहे की बनी ‘करई तई’ है जिसे वे मिट्टी के चूल्हे पर रख सेल रोटी बनाती हैं. जब मैं बच्ची थी, मुझे इस चूल्हे के पास भी नहीं फटकने देती क्योंकि सेल रोटी गर्म, धुआंदार तेल में तली जाती और इस जोखिम को फुफु जैसे विशेषज्ञ हाथ ही संभाल सकते हैं.
गर्म तेल में घोल तुरंत अपना रंग बदल, हल्का भूरा हो जाता और इसे पलटने के लिए एक झिर, यानी नुकीली, पतली लकड़ी की छड़ी का उपयोग किया जाता है. दोनों तरफ से सिकने पर सेल रोटियों को थोड़ी-थोड़ी कर एक साथ निकाल लिया जाता है. मेरी फुफु इस प्रक्रिया में निपुण हैं. तेल की अतिरिक्त गर्मी और धुंए से नाक सिकोड़ें, वह सेल रोटियों को एक पुराने अखबार से ढकी बेंत की टोकरी में जंचाती जाती हैं. उन्हें देख कर लगता है यह सब कितना आसान है, लेकिन मैं आज तक गोल सेल रोटियों की रिंग बनाने में असफल रही हूँ.
सेल रोटी सबसे स्वादिष्ट तब लगती है सब इसे गरमा गरम परोसा जाए, नेपाली आलू दम के साथ, जिसका जीवंत लाल रंग, लहसुन और मिर्च का स्वाद इसमें चार चाँद लगा देता है. फुफु इसे ‘पक्कु’ यानी धीमी आंच पर सूखे मसालों में पके बकरी के गोश्त के साथ परोसती हैं. सेल रोटी थोड़ी-बहुत अमरीकी डोनट के समान लगती है, मगर उसका आकार डोनट के मुकाबले बड़ा और फूला हुआ होता है. स्वाद इतना भिन्न कि हर कौर में उमड़ती एक सुनहरी मिठास और मैं विस्मित हो उठती हूँ इस आठ सौ साल पुरानी जादूगरी पर जो अब तक बरकरार है.
सेल रोटी को सामान्य तापमान पर कई दिनों तक स्टोर किया और खाया जा सकता है. मैं इसे गैस स्टोव की मद्धम आंच पर गर्म और थोड़ी-सी कुरकुरी करके खाना पसंद करती हूँ. उदास सर्दियों की सुबह एक कप काली चाय के साथ सेल रोटी का ज़ायका कुछ और ही है. मैं पहाड़ों को निहारती हूँ, एक और सेल रोटी की तरफ हाथ बढ़ाती हूँ.