अनुवाद – वंदना राग
यह उन दिनों की बात है जब रॉक एण्ड रोल रिवाइवल बैंड शोवड्डीवड्डी, संगीत के सारे चार्ट्स में अव्वल चल रहा था। मुझे गर्व था कि मेरे पास उस बैंड का अन्डर द मून ऑफ लव, रिकार्ड था और वह मेरे ज़ेहन में अंदर तक धंसा हुआ था। यह सबकुछ, इस परेशान करने वाली सच्चाई के बावजूद था जब यदा कदा ईंट के टुकड़े हमारे लीड्स स्थित सीक्रॉफ्ट अस्पताल, वाले मामूली से घर की खिड़की के कांच को तोड़ने के लिए फेंके जाते थे ।
यह 1970 के दशक का बीतता हुआ वक्त था और कॉन्सर्वेटिव ब्रिटिश एमपी एनॉक पॉवेल का कुख्यात भाषण, रिवर्स ऑफ ब्लड प्रवासियों और ठगों के मन में बराबरी से बसा हुआ था। इससे उत्तरी इंग्लैंड के कामगार मोहल्ले हमेशा शंका और डर से भरे रहते थे। मुझे जितना याद पड़ता है उसके हिसाब से उन दिनों फिर हमने अपनी टूटी खिड़कियों को दोबारा बनवाया था, नालिश की थी और फिर अत्यंत सामान्य भाव से पॉप संगीत और प्राइमेरी स्कूल की पढ़ाई में, मैं मशगूल हो गया था।
इन सब घटनाओं, दुर्घटनाओं के बीच माँ प्रवासियों के मिज़ाज के अनुरूप छोड़ आए देश के आस्वादों को यहाँ विदेश में पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगी रहती थी और प्रभावशाली संवेदी आस्वाद, सचमुच रहस्यमय ढंग से दूरियाँ मिटा देते। वे कुछ पलों के लिए नस्लभेद के तनाव की कड़वाहट को और अनिश्चित भविष्य की चिंताओं को भी भुला देते थे । हमारी आंध्रप्रदेशी जड़ों वाले नए घर को, छोड़ आए देशी घर जैसी सामग्रियों और मसालों के लिए उतना ही संघर्ष करना पड़ता जितना ढंग के कपड़ों और अपने कामचलाऊ उच्चारण के लिए । ऐसे में ऊरागाई (एक तरह का अचार) और पचडी (एक तरह की ताज़ी चटनी) हमारे खाने की मेज़ पर हमेशा शोभायमान रहते । अचार तो हैदराबाद से शीशियों में लाया जा सकता था लेकिन सही सामग्री नहीं मिलने की वजह से माँ को पचडी स्थानीय सामग्रियों से बनानी पड़ती थी। वह अक्सर प्रसिद्ध ब्रामले के सेबों से ही पचडी बना डालती। सेबों को छीलकर, किसकर, वह मेथी दाना, लाल और हरी मिर्च, उड़द दाल, चुटकी भर हींग, नमक, चीनी और गाढ़े, अलमस्त स्वाद वाले इमली के गूदे से छौंक देती। कभी कभी पचडी में इमली के बजाय नींबू की कुछ बूंदें निचोड़ दी जातीं मनमुताबिक खटास पैदा करने के वास्ते। कुछ भी हो, रंग बिरंगी, मादक गंधों वाली, मसालेदार पचडी हमेशा ही टेबल की शान बढ़ाती और हमें छोड़ आए देश की प्यारभरी यादों से जोड़ती । वह हमें एक तरह का सुकून भी देती और हमारी नई जड़ों को खाद पानी भी ।
यह हाल ही की बात है, जब बाल्टीमोर के उपनगरीय क्षेत्र में रहने वाली मेरी बुआ के किचन गार्डन में मैंने, बीतती गर्मियों में पैदा होने वाले गोंगूरा –जिसे एशियाई खट्टा (sour) या रोसेल भी कहा जाता है, काटने में मदद की । न्यू यॉर्क में रहने वाले एक कज़िन को फसल का एक हिस्सा भिजवाना था। खट्टी, मसालेदार गोंगूरा पचडी आंध्र पाककला की शनदार राजदूत है और घरों, होटलों में समान भाव से पाई और पसंद की जाती है। शादी के उत्सवों में तो इसकी बहार आ जाती है। मेरी माँ की तरह मेरी बुआ के पास भी पचडी बनाने की अनेक प्रायोगिक विधियाँ थीं जिनमें क्रैन्बेरी पचडी अद्भुत स्वाद वाली थी। इन विविध महाद्वीपीय गरूरों के अलावा जीभ को झनझना देने वाली चटखारेदार, आंध्र, तेलंगाना, दक्षिणी मध्यवर्ती क्षेत्र और दक्षिणी भारत की पचडी के बारे में क्या-क्या कहूँ? तेलगु का पुलूपु (खट्टा, खट्टापन), क्षेत्र का मुख्य आस्वाद है जो इस क्षेत्र के लोगों की विशेष पहचान है । उत्तर भारतीय लोगों का दक्षिण भारतीय क्षेत्र के लोगों के बारे में, उनकी संस्कृति के बारे में पारंपरिक अज्ञान और पक्षपातपूर्ण रवैया रहा है लेकिन इसके बावजूद दक्षिण भारतीयों की भिन्नता की यह पहचान, सुंदर पहचान है । दक्षिण भारत की संश्लिष्ट संस्कृति की सुंदरता से परिपूर्ण और आकर्षक पहचान!
जैसा कि कला समीक्षक एस, कृषणस्वामी आइएंगर अपनी महत्वपूर्ण किताब –तिरुपति का इतिहास में कहते हैं,- “तमिल और संस्कृत के स्त्रोत वेंगडम का ज़िक्र करते हैं जो तिरुपति का पारंपरिक नाम है। तमिल प्रदेश के उत्तर में स्थित इस क्षेत्र में वदुकू रहा करते थे जो तेलगु लोग थे।”
आइएंगर कहते हैं कि प्राचीन तमिल व्याकरण की किताब तोलकापपईयम में कहा गया है कि वेंगडम के उत्तर और कुमारी के दक्षिण में तमिल क्षेत्र की सीमा लगती है। वे बताते हैं कि संगम काल के कवि मामूनालार ने 311 वीं कविता में-, “पुल्ली (छोटा राजा) के सुंदर देश के बारे में लिखा है। उसके आगे रेगिस्तान है। यहाँ के लोग चावल और इमली साल पत्तों पर रखकर संग संग खाते थे”।
जैसा कि हम सब जानते हैं तिरुपति में अन्य खाद्य पदार्थों के साथ पुलिहारा (इमली चावल) देवता को अर्पण किया जाता है। दक्षिण भारत में इमली चावल की सर्वव्यापकता है, जिससे हम सब परिचित ही हैं। जो क्षेत्रीय भिन्नताएं हैं वे चावल के प्रकार, मसालों आदि से उपजते हैं। तेलगु इमली चावल के प्रकार, बहुत तीखे मसालों से बनाए जाते हैं जो इससमुद्री क्षेत्र की विशेषता है। लेकिन मसालों के बावजूद इनके मर्म में वह अद्भुत खट्टापन ही है जो मनभावन ढंग से बसा रहता है। यह खट्टा पवित्र खाना, सिर्फ मंदिर में अर्पण के लिए नहीं होता यह पारिवारिक उत्सवों में भी उत्साह से परोसा जाता है। पूली शब्द अनेक मायनों से बना है – इमली का फल, गूदा और खटास। तीनों का अद्भुत मेल है इस शब्द में।
अम्लरस आयुर्वेदिक किताबों में खट्टे का पर्याय है। अनेक बार कही जाने वाली कहावत –“अमलम हृदयम”, जो चरक संहिता में नियोजित है अपने आप में बहुत मनीखेज़ बात कहती है-“खट्टा स्वाद, हृदय एवं मस्तिष्क के लिए बहुत आनंदायी होता है”। खट्टे के लिए दूसरा शब्द जो क्लासिकी संस्कृत किताबों में मिलता है, वह कुक्रा है, जो कई अर्थों वाला है-डंडा, फलों का सिरका, हॉग प्लम, इमली का फल या इमली का पेड़ भी। शोध के हवाले से यह पता चलता है कि जिस आंवले का ज़िक्र क्लासिकी साहित्य में है वह इमली हो भी सकता है और नहीं भी। खटास पैदा करने वाला वह फल कोकम भी हो सकता है। अमरकोश में टिनटीडी, चिंचा और अम्लिका का ज़िक्र है । कोकम भी टिनटीडी, टिंटडिक और वृक्ष आमला के नाम से जाना जा रहा है और इमली भी । इनमें से कुछ नाम भारत के कई क्षेत्रों में प्रयुक्त होते हैं। हिन्दी की इमली, मराठी की चिंचा है, कन्नड की हूली, हुनासे–हन्नु, मलयालम और तमिल की पूली और तेलगु की चिंता है । इसका अंग्रेज़ी नाम अलबत्ता अरबी से उपजा है-तमार-इ–हिन्द, उर्फ भारतीय खजूर।
इमली संभवतः भारत में समुद्री व्यापार से लाई गई। यह अफ्रीका से आयी थी। यह जानना दिलचस्प है कि सेनेगल की राजधानी दकार का अर्थ इमली का पेड़ है। इमली फल में अनेक सद्गुण होते हैं। इसे अरबी और इथोपियाई व्यापारी गूदे की शक्ल (तोमार) में रखा करते थे। 1300 बी सी में चालकोलिथिक समय के कुछ इमली के कोयले रूपी अवशेष, नरहन जो घाघरा नदी के पास है, में पाए गए हैं । उस अवशेष का वहाँ पाया जाना, सभ्यता के विकास की कहानी का प्रकाशित होना है। मनुष्य के घुमंतू होने, फिर ठहर कर सामुदायिक जीवन जीने और फिर एक दूसरे से मिलने जुलने की सुंदर कहानी है यह ।
दक्कन में इंडो मुस्लिम मिलाप ने सिर्फ उत्कृष्ट कला और स्थापत्य ही नहीं दिया बल्कि उसने शानदार दक्खनी साहित्य को भी जन्म दिया। भाषा का यह स्वर्ण काल लगभग 350 वर्ष चला। वह तो जब औरंगजेब ने 17 वीं शताब्दी में आक्रमण किया, उसके बाद भाषा और संस्कृति का फ़ारसिकरण होने लगा। लेकिन इससे पहले मिलिजुली संस्कृति का एक सुंदर नमूना खानपान था। क्या अमीर दक्खनी भाषा (जो आज लोकभाषा बन कर रह गई है) के समकक्ष खब्ती, सुमधुर, मिलाजुला दक्खनी खाना रखा जा सकेगा? यह सवाल मन में कौंधता है।
कुछ आधुनिक दक्खनी कवियों ने इसका प्रमुखता से वर्णन किया है। महान कवि सरवर दंडा का संकलन ,“ इमलिबन ”, कहलाता है और ऐजाज़ हुसैन जो विभाजन के बाद पाकस्तान चले गए, ने अपने नाम के आगे बतौर तक्ख्लुस ‘खट्टा’ जोड़ लिया। इसके पीछे मंशा शायद एंटी हीरो होने की थी बरक्स एक सुशील हीरो के। खट्टापन वही दर्शाता था। एक अजीब सा तीखापन । दक्कन के लोगों की तीखी, खुरदुरी पहचान को ऐजाज़ हुसैन खट्टा इन पंक्तियों से बखूबी उजागर करते हैं, –खट्टे की लाश खड्डे में नंगी-इच गाड़ दो; उसके कफन को ग़ैर की चद्दर नक्को–इच नक्को ।
हैदराबादी पाककला पर प्रतिभा करण की किताब की भूमिका को लिखने वाले उनके पति, भारतीय पुलिस अफसर, सेंट्रल ब्युरो ऑफ इंवेस्टिगेशन के डायरेक्टर, विजय करण के पुरखे, राजा सागर मल, मीर कमरुद्दीन निजाम उल मुल्क आसफ जा 1, (जो क्षेत्र के पहले निजाम हुए) संग दक्कन के प्रवासी हो गए थे। वे लिखते हैं,-“हैदराबादी खाने की विशिष्टता उसके खट्टेपन में बसती है। यह तेलुगु प्रभाव है। कोई भी हैदराबादियों की तरह अपने खाने में उस अद्भुत खट्टेपन को नहीं बसा सकता। यह अपने आप में विशिष्ट हुनर है”।
दक्खनी पाककला की संश्लिष्टता और खब्त चिगुर का सालन या जिसे चिगुर गोश्त कहा जाता है, उसमें खूब मज़ेदार ढंग से दिखलाई पड़ते हैं। इसमें मटन को इमली के मुलायम पत्तों और कोमल टहनियों के साथ पकाया जाता है। अप्रैल में मुलायम पत्तियों को तोड़ लिया जाता है और उससे तरह–तरह के पकवान बनाए जाते हैं। एक मज़ेदार विधि तुअर यानि अरहर दाल के साथ की भी है। वैसे इस क्षेत्र में खट्टे पत्तों को माँस और दालों के साथ पकाना आम बात है। ऊपर जिस गोंगूरा की बात मैंने की है (उसे दक्खन और मराठी में अंबाडा भी कहते हैं) खाने में प्रचुरता से इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ का पारंपरिक खाना – “ज्वार की रोटी और अंबड की भाजी”(ज्वार, सॉरघुम रोटी और रसेदार खट्टी हरी भाजी) है। इस खाने का ज़िक्र दक्खनी लोक गीतों में भी मिलता है। और अति लोकप्रिय हैदराबादी खाने–मिर्ची का सालन, बघारे बैंगन और टमाटर कट इस बात की तसदीक करते हैं कि पारंपरिक दक्खनी खानों में लोगों ने इमली का बहुत उत्साह से समावेश किया है।
एक दिलचस्प लेकिन संदिग्ध कहानी सांबार को लेकर भी है। कहा जाता है कि तंजावुर के मराठा राजा, शाहजी ने मराठा राज के शीर्ष, शिवाजी के पुत्र संभाजी के तंजावुर आने पर, उनके सम्मान में सांबार की ईजाद की। इस कहानी से इस क्षेत्र के लोगों का खट्टे के प्रति लगाव खूब इंगित होता है। विजयनगर के राजा, कृष्ण देव राया के संश्लिष्ट महाकाव्य–अमुक्तमलयदा में सांबार, उसके पदार्थों और इमली के बारे में ज़िक्र पाया जाता है। यह विद्वान विचारक श्रीनिवास सिस्तला लिखते हैं। वे कहते हैं इससे पहले, तेलगु कवि श्रीनाथा जो प्रबंध काव्य के लिए प्रसिद्ध थे और भक्त कवि तल्लपाका अन्नामाचार्या की 15 वीं शताब्दी में लिखी कविताओं में भी खाने में खटास का महत्व और इमली का ज़िक्र आता है। सिस्तला कहते हैं,“तेलगु के एक कीर्तन में खट्टे और मीठे भाव को शब्दों में पिरोया गया है। यह मनुष्य के भीतर के अच्छे और बुरे को एक साथ थामे रहने की बात है-,”पुलउसू-टीपू–नऊ-कलापी-भुजीची–नातलू”, (खट्टे मीठे को एक साथ मिलाकर खाने की बात) ।
खट्टा और खटास शब्दों को अमूमन बहुत नकारात्मक ढंग से प्रयुक्त किया जाता है। इनसे हमारे मनोभाव जुड़े हैं। अनेक भाषाई प्रचलनों में खट्टापन ईर्ष्या और द्वेष इंगित करता है। खट्टे अंगूर, खटाई जैसा चेहरा, सिरके जैसा खट्टा, रिश्तों में खटास, संबंधों का खटास के साथ समाप्त होना, मुँह में खटास छोड़ देना आदि कहावतें और मुहावरे अंग्रेज़ी भाषा में भी बहुतायत से इस्तेमाल किए जाते हैं और खट्टेपन को इतने नकारात्मक रंगों से रंग देते हैं कि खट्टे के मज़ेदार, लज़्ज़तदार आस्वादों के ब्योरे विलुप्त हो जाते हैं।
खटास वाले खानों की बढ़ती अनिवार्यता के विकासक्रम को समझना बहुत दिलचस्प है। वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि आदि मानव को खट्टे/अम्लीय फल खाने का अभ्यास था क्योंकि वे उन्हें सुरक्षित मानते थे।संभवतः वे लैक्टिक ऐसिड के प्रभाव को समझते थे अर्थात खट्टे खानों के फायदेमंद अंतर्ग्रहण के बारे में मनुष्य को बरसों से जानकारी रही है। दक्खन की अर्ध शुष्क उष्णकटिबंधीय आबोहवा शायद इमली और अन्य खट्टे फलों के लिए माकूल घर है। यह जानना भी दिलचस्प है कि फूजी सेब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अब खट्टे होने लगे हैं। भारतीय किसान भी अपने बागानों के सेब में यह फ़र्क महसूस कर रहे हैं।
हैदराबाद के तेलुगु घर में बड़े होने की वजह से खट्टे की विशिष्टता को लेकर मेरा पूर्वाग्रह बना रहा । लेकिन अब जब मुंबई में मेरी रिहाइश की लंबी अवधि बीत रही है तो मैं अचार और पचडी के सेवन को लेकर थोड़ा सावधान हो गया हूँ। लेकिन आज भी उनकी बुनावट का कौशल और स्वाद की ऐंद्रिकता मुझे अपनी ओर प्रबलता से खींचती है। दक्खन में अनेक खट्टे पदार्थ हैं जो खाने में इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे -कोकम, नींबू के कई प्रकार, टमाटर, कच्चे आम, सिरका, और सदाबहार दही । हैदराबाद के कुछ ईरानी परिवार खट्टे अंगूरों का भी इस्तेमाल भी खाना पकाने में करते हैं। दरअसल, दक्खन में खटास वाले खानों की सूची ऐश्वर्य और विविधताओं से भरी है जैसे – रायलसीमा का छेपला पुलउसू अपनी बानगी में अनूठा है, तो पश्चिमी दक्कन की सोल कड़ी और तमिल प्रदेश का वथल कोज़ंबू भी अपनी बनक में अनूठे हैं। यदि कृष्णा गोदावरी क्षेत्र का दप्पलम अद्भुत है तो केरल का उत्सवी इंजीपुली भी कम नहीं। सब अपने आस्वादों में एक से बढ़कर एक ।
खट्टे को लेकर मेरा अपना अतीन्द्रिय अनुभव रोजमर्रा खाई जाने वाली दाल से निर्मित हुआ है।रोजमर्रा खाई जाने वाली दाल को पप्पू पुलउसू (खट्टी दाल) कहा जाता है। एक अन्य प्रकार की दाल की विधि में पहले इमली के गूदे को पानी में कुछ मसालों के संग छौंक कर पकाया जाता फिर उसमें घी में भुनी हुई लाल लाल लहसुन की मोटी कलियों को छोड़ दिया जाता है । अंत में पकी हुई दाल-तुअर या मूंग को इस धीमे पकते हुए रस में डाल दिया जाता है । उस वक्त एक ऐसे तीखे आस्वाद की खुशबू हवा में तिरती जिसको ठीक–ठीक बताने में मैं खुद को असमर्थ पाता हूँ। वह इतनी अद्भुत, इतनी अवर्णनीय होती है। इस असमर्थता के बाद मैं बस इसे यूंही समझा सकता हूँ कि यह विलासी आनंद से भरपूर, अस्पष्ट खुशबुओं से भरी अनुभूति होती है । ठीक जैसे लंबे, बेसुध बुखार के टूटने के बाद महसूस होती है। एक भ्रांतचित्त स्पेस से जाग और चेतना के स्पेस में दोबारा कदम रखने जैसी, जिसमें 1970 के पॉप गानों का तीखा तड़का झन्नाता है।
खट्टा आस्वादों की धारा का मस्त छैला है। और वह हर वक्त मस्त, दमदार, ज़िंदा बना रहता है। जैसा कि एक पुरानी तेलगु कहावत में कहा गया है-, “चिंता चच्च्छिना पुलूपु चावदु” अर्थात, “इमली का पेड़ मर सकता है लेकिन खट्टेपन का स्वाद कभी नहीं”।
कई सुंदर वर्णन मिले, पढ़कर खुशी हुई. कुछ हिन्दी के शब्दों का प्रयोग ठीक नहीं लगा.