अनुवाद: संचित तूर
ओ लाइफ इज़ बिगर
इट्ज़ बिगर दैन यू
एंड यू आर नॉट मी
(ज़िंदगी बड़ी है
तुमसे भी बड़ी
और तुम मैं नहीं हो)
– माइकल स्टाइप, आर.ई.एम.
एक ‘पाक सूत्रधार’ की तरह, मेरी माँ अपनी कला का इस्तेमाल प्रखर सटीकता और कौशल के साथ अडिग सुरुचिपूर्ण तरीके से करती है। इतने बरसों के बाद भी, उसका बेशकीमती नॉरिटाके चाइना सेट, जिसे उसने अपनी मेहनत की कमाई से ख़रीदा था, अभी भी ज्यों का त्यों है, ऐसा कि शोरबे के बर्तन पर तुड़क का नाम तक नहीं। इसका विरासती क्रॉकरी की विलासिता या पीढ़ीगत व्यंगोक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि, यह है एक लड़की और उसके सपनों के परिदृश्य के बारे में।
शायद मुझे शुरू से शुरुआत करनी चाहिए, जैसा कि मारिया वॉन ट्रैप सुझाती हैं।
मेरे नाना, बैंगलोर वेंकट बालमूर्ति, तेलंगाना के एक साधारण परिवार से आए थे – जो तब अविभाजित आंध्र प्रदेश था; उनकी मातृभाषा थी तेलुगु। उन्हें छोटी उम्र से ही परिवार का भरण-पोषण करना पड़ा और कभी औपचारिक शिक्षा न पा सके। उन्होंने मेरी नानी सुशीला से शादी की, जो तटीय कर्नाटक में ब्रह्मावर के एक तुलू भाषी स्कूल शिक्षक की बेटी थी। बालमूर्ति ने सुनिश्चित किया कि सुशीला कॉलेज जाए और डॉक्टर बने। वह शहर में अप्रवासी युवाओं के लिए एक संस्थान चलाते थे, जहाँ उन्हें कुश्ती, योग, और अन्य पारंपरिक शारीरिक शिक्षाएँ देते। यह थी नवजीवन व्यायामशाला और यह बैंगलोर के बसवनगुडी में कंज़र्वेंसी रोड पर मेरी नानी के नवजीवन क्लिनिक से सटी खड़ी थी। उनकी चार बेटियाँ थीं – मेरी माँ सबसे बड़ी – और एक बेटा। हर एक बच्चे ने जाति या भाषा से बाहर शादी रचाई। यूँ, तमिल, हेब्बार तमिल, मराठी, कोंकणी और कन्नड़ उस परिवार में शामिल हुईं जो पहले से ही तेलुगु, तुलू और अंग्रेज़ी भाषाएँ बोलता था। ये 1940 के दशक और उसके बाद के वर्ष रहे होंगे।
मेरे दादा भगत राम कुमार सिंध से थे, जो अब पाकिस्तान में है, और बलोचिस्तान के क्वैटा में पले-बढ़े थे। वह संभवतः जाति से कुम्हार थे, पर हमारे पास निश्चित रूप से यह जानने का कोई तरीका नहीं है, क्योंकि उन्होंने कभी इसका ज़िक्र नहीं किया, और आज़ादी-पूर्व के उन आदर्शवादी दिनों में भारत के कुछ वर्गों में जाति को कोई पुरातन बात माना जाता था। राष्ट्रवाद की धारा, एनी बेसेंट और नवोदित थियोसॉफिकल आंदोलन के प्रभाव में, भगत बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी आ पहुँचे। जो लड़की भविष्य में उनकी पत्नी बनने वाली थी उसे भी पढ़ने के लिए बनारस भेज दिया गया था। मगर वह दक्षिण से बनारस आई थी। और यह हुआ कि बलोचिस्तान के भगत की शादी मेरी दादी जयलक्ष्मी से हो गई, जो आर्कोट रंगनाथ मुदलियार की बेटी थी और मद्रास में रहती थी। उनके तीन बेटे हुए – मेरे पिता उनमें सबसे छोटे थे – और एक बेटी। इनमें से एक एक ने, आगे बढ़ कर, जाति और कुछ ने तो राष्ट्रीयता के बाहर भी उसी से शादी की जिससे वे करना चाहते थे। मेरी माँ इस विशेष वर्ग का हिस्सा बनी और साथ बने एक ऑस्ट्रेलियाई, एक ऐंग्लो-इंडियन और एक चीनी-मलेशियाई।
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फ्लैश फॉरवर्ड: सीधे आते हैं नंदीदुर्गा रोड, बैंगलोर पर स्थित मेरे माता-पिता के छोटे से घर पर, जहाँ मैं और मेरा भाई पले-बढ़े। संकीर्ण, अंधियारी रसोई में एक लाल ऑक्साइड स्लैब और सीमेंट से बना सिंक था। मुझे याद है रसोई में फर्श पर बैठना जब मेरी माँ हमारे लिए घर में बने घी से चुपड़ी गर्म रोटियाँ बनाती। वह 1960 का दशक था – दूधवाला पन्नी से सीलबंद काँच की दूध की बोतलें दे जाता, और अंडे-वाला हमारे लिए एक छड़ी पर लटकी हुई ताज़ा अंडों की टोकरियाँ लाता; वह टोकरियों को अपने कंधों पर बैलेंस करता था। कभी-कभी टोकरियों में बटेर भी होते। ‘कैंची-चैंची’ वाला, जो चाकूओं और कैंचीओं की धार पैनी करने के लिए अपना पत्थर का पहिया साइकिल पर ले पड़ोस में घूमता, उसकी आवाज़ तो ख़ूब परिचित थी।
रविवार को मेरे माता-पिता रसेल मार्केट में खरीदारी करते थे, और जहाँ मेरी माँ सब्ज़ियाँ और मांस या मछली घर लाती थी, मेरे पिता सजावटी मछली – जैसे टाइगर बार्ब, नियॉन टेट्रा, गौरामी – को प्लास्टिक पैकेट में ले आते, और आते ही उन्हें उस सीमेंट के सिंक में छोड़ देते थे जब तक मछली टैंक को उनके स्थानांतरण के लिए तैयार करते। इस रसोई में, एक सुमीत मिक्सी और एक टिन के काले स्टोव-टॉप ओवन का साथ, मेरी माँ ने न केवल हम चारों के लिए घर को परिभाषित करने वाला खाना पकाना कभी बंद नहीं किया, बल्कि बाकी परिवार के बहुविध इतिहास को भी वह इसमें परस्पर मिलाती रही। उसने वह सब खाना पकाया जो उसके बचपन के घर में पकाया जाता था – रागी मुद्दे; और सब्बाक्की सोप्पू (सोया का साग), मूली, आलू के बड़े टुकड़ों और नारियल के दूध से प्रचुर मटन सारू, जो उसके पिता को पसंद था; देंजी आजादिना (सूखा तला केकड़ा); येट्टी द गस्सी (झींगा करी); और उसकी माँ के मूल स्थान मैंगलोर के नारियल के तेल में तली हुई मैकेरल (बांगड़ा) और सार्डीन (पेड़वे) मछली। पर वह हमें स्कूल के हर दिन अंडे और मक्खनयुक्त टोस्ट भी देती थी क्योंकि इंग्लैंड से शिक्षा-प्राप्त मेरे पिता को यही नाश्ता पसंद था।
‘यह अंडा किसका?’ वह रसोई से पुकारती।
‘मुर्गी का!’ मेरे पिता जवाब में कहते और अपने ही घटिया मज़ाक पर ज़ोर से ठहाके लगाते, वहीँ हम अपनी प्लेटों के साथ सीधे तवे से एक तला हुआ अंडा पाने के लिए जम जाते थे।
वह हमारे स्कूल के डिब्बों को फुल्के – जो उसके उत्तर भारतीय ससुर के प्रिय थे – एक सूखी सब्ज़ी (‘बीटरूट पल्या? छी!’ उसके अकृतज्ञ बच्चों का कहना होता) और दही के किफ़ायती व स्वस्थ लंच के साथ पैक करती, जबकि हम नाराज़ होते, कराहते और हैम सैंडविच की चाह करते ठीक वैसे जैसे एनिड ब्लाईटन की किताबों में। निरुत्साही शनिवार को, जब उसे नौकरी पर जाना होता और हम घर पर होते थे, वह हमारे लिए लाल चावल और सूखी झींगा करी हरी सब्ज़ियों के साथ पकाकर छोड़ जाती थी, जिससे मुझे तब नफ़रत थी, लेकिन अब, किसी तरह, उसकी लालसा करती हूँ।
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वह 70 के दशक के वे शानदार मीठे व्यंजन बनाने में माहिर थी जिनके बारे में आजकल शायद ही कोई सुनता है – पीच पोच, जिसमें केक, कस्टर्ड और क्रीम की सतह पर डिब्बाबंद आड़ूओं को लगाया जाता है, जो कि तले हुए अंडों की एक ट्रे के सदृश दिखता। एक उत्तम एप्रीकॉट क्रीम पाई, यूँ तो लगभग खुबानी के मीठे के बतौर लेकिन क्रैकजैक बिस्कुट की परत के साथ। शहदी रंग के कटोरों में सजी कॉफी क्रीम मूस। एक मैगपाई पक्षी की तरह, वह भांति-भांति के व्यंजनों को उन लोकों से बटोर लेती थी जिन्हें वह जानती थी तो केवल सहकर्मियों, यात्राऐं कर चुके दोस्तों, और एक बड़ी नीली खाना पकाने की किताब के माध्यम से, जिसका नाम मुझे फ़िलहाल ध्यान नहीं। यूरोप से लौटे एक वैज्ञानिक से बोलोन्येज़े और गैज़्पाचो सूप, किर्श ब्रांडी के बदले रम से सिक्त ब्लैक फॉरेस्ट केक, पोर्क चॉप अनानास के साथ, चीज़ और मशरूम के साथ क्रेप, और अंगूर की चटनी के साथ भाप से पकी पुडिंग की उसकी भाभी मेनका की रेसिपी। लेकिन सबसे बढ़कर था कि वह लुभाना चाहती थी मेरे पिता की स्वाद रूचि को, वही मज़ाकिया पिता जिनका मुँह तारीफ़ में दो मीठे बोल के लिए आसानी से नहीं खुलता था। अगर वह टमाटर का सूप बनाती, तो उन्हें नींबू रसम चाहिए होता, और वह मछली बना देती, तो वह दाल, चावल और घी की बात करते। हालाँकि उन्हें उसकी इडली और पनीयारम पसंद थे, पर उन्हें उसकी अक्की रोट्टी और सूखी मछली की चटनी नहीं भाती थीं। वह गोज्जु पकाती, तो उन्हें पुली कोलंबु याद आता। लेकिन उसकी बीफ कीमा भरवां करेला फ्राई तो वह आँख मूंद खा जाते। माँ ने तो मार्माइट का स्वाद लेना भी सीख लिया था – जिससे शुरू में उसे उबकाई आती थी – सिर्फ इसलिए क्योंकि मद्रास में उसके पति का परिवार ब्रिटिश मसालों में अव्वल इस स्वाद का आदि था।
हमारे पास कभी कोई रसोइया और दिन भर का काम-काज सहायक नहीं था। थी तो सिर्फ 9 से 5 की नौकरी वाली मेरी माँ और उसकी सार्वलौकिक इच्छुकता। मुझे उसकी रसोई की महक तत्क्षण याद है कि आज भी बैज़िल (अंग्रेज़ी तुलसी) की ख़ुशबू आह्वान कर देती है 70 के दशक के उत्तरार्ध की उस एक शाम का जब उसने उस छोटे से ओवन में हमारे लिए पिज़्ज़ा पकाया था और मेरी क़रीबी दोस्त का भाई बारिश से हो चला आया था। खमीरयुक्त आटा, घर की बनी टमाटर की चटनी, अमूल चीज़, द बैंगलोर हैम शॉप से लिये सॉसेज मीट के टुकड़े और तोड़ी हुई बैज़िल की पत्तियाँ। महीने में एक रविवार को, एक औरत जिसे हम सईदा-बी कहते थे, ताज़े इडिअप्पम का एक बड़ा बर्तन लेकर घर आती थी, जिन्हें मेरी माँ ख़रीदती और मीठे नारियल के दूध के साथ हमें परोसती थी। जब वह अप्पम पकाना चाहती तो मेरे पिता को टॉडी की एक बोतल लाने के लिए टॉडी का संग्रहण करने वाला मुत्तु की झोपड़ी भेज दिया जाता था। हालाँकि, मेरे दो पसंदीदा व्यंजन, दोनों मीठे थे – पूरी के साथ गसगसे या खसखस का पायस – जो कहने को हमें सुस्पष्ट अफ़ीम-प्रेरित सपनों से भरपूर दुपहरी आराम देते, और घर का सुखकर केसरी भात। गसगसे का पायस पिसी हुई खसखस, ताज़ा नारियल के दूध, गुड़ और पिसी हुई इलायची का एक उत्कृष्ट और सुगंधित मिश्रण है। इसे कुरकुरी मैदा पूरी के साथ खाना, जिसे आप पायस में तोड़ते हैं और फिर अव्यवस्थित ढंग से खा जाते हैं, मैं आज भी पाक प्रवीणता मानती हूँ।
लेकिन अम्मा के खाने के हमारे सालाना कैलेंडर में, दीपावली से पहले का पक्ष विशेष रूप से महत था: अमित उत्साह और उन्मत्त लालच की समान मात्रा। मेरी माँ बौराहत से खाना पकाती थी, डिब्बों को मिठाइयों से भरती हुई – कज्जाया, कोब्री मिठाई, गुलाब जामुन – और नमकीन से – कोडबले, चक्कली, खरा कड्डी – और अवलक्की, तली हुई लहसुन, लाल मिर्च, गरी के टुकड़ों, किशमिश, काजू और करी पत्ते के उत्तम मिश्रण से तैयार किया गया चिवड़ा। और फिर हमसे वादा लिया जाता, दरअसल यातना दी जाती, कि हम अपने मैले पंजों को तेल स्नान करने और दीपावली की सुबह उसके दीप जलाने के बाद तक इस इनाम से दूर रखेंगे।
खाने से जुड़ी एक विशेष स्मृति जो उसके असह्य हल्केपन और प्रणय के कारण मेरे पास रहती है वह है मेरे माता-पिता का थोक में बैंगलोर ब्लूज़ या फॉक्स अंगूर (वितिस लैबरुस्का) खरीदना और वाइन बनाना। वे अपनी पीले और सफ़ेद रंग की स्टैंडर्ड हेराल्ड कार में एक लाल प्लास्टिक का बाथटब लादते और नंदी दुर्ग के पास के अंगूर बागानों की ओर जाते और बैंगलोर ब्लूज़ से भरे टब के साथ वापस आते थे। वे उन अंगूरों को उस सीमेंट सिंक में भिगोते, फिर उन्हें पीसते और किण्वन के लिए दो बड़े चीनी मिट्टी के मर्तबान में भरते थे। क्रिसमस का समय आते ही, वाइन को छान लिया जाता और छोटे-छोटे गिलासों में परोसा जाता।
यदि आप खाने के इस संगम का मानचित्र बनाते हैं तो आपको क्वैटा से बनारस से मद्रास तक एक धारा प्रवाहित होती दिखाई देगी। हैदराबाद से मैंगलोर तक और फिर आगे बैंगलोर तक एक अन्य धारा। मद्रास से बैंगलोर छावनी तक एक तीसरी धारा। और आपको मिलेंगे मौसमी प्रवाह जैसे मद्रास में रोयापेट्टा से रेलवे चिकन करी और डेविल्स चटनी को साथ लेता एक। और कुआला लम्पुर से यू.के. से होते हुए समुद्री यात्रा की कहानियाँ, रोमांच और जैम बनाने का कौशल लेकर आता एक अन्य। फिर एक और ऑस्ट्रेलिया में पोर्ट फेयरी से जिसने हमें कोयले पर डैम्पर ब्रेड बनाने का तरीका दिखलाया और वही शायद मेरे पिता के तैयार किये बारबेक्यू के लिए प्रेरणा रहा, जिस पर मेरी माँ ने सॉसेज ग्रिल किये। बंबई से हमें मिलीं थालीपीठ, श्रीखंड और लहसुन के अंकुर की चटनी की कहानियाँ, वहीँ मल्लेश्वरम से मिले अयंगर स्टाइल के सारु और लाल मिर्च व हींग के साथ बनी प्याज़-रहित अक्की रोट्टी। जब मेरी माँ की सबसे छोटी बहन अमरीका जा बसी, तो हमें खाने की वे ख़बरें मिलीं जो हम केवल कॉमिक किताबों से जानते थे – जैसे फिलाडेल्फिया चीज़केक और ब्राउनी – जिन्हें फिर मेरी माँ ने सीमेंट सिंक वाली अपनी संकीर्ण रसोई में बनाया।
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हम यहाँ खाने से कहीं बढ़कर बात कर रहे हैं। हाँ, यह आज़ादी के बाद की युगचेतना है, पर यह एक ऐसे फ़ूड कल्चर यानि खाद्य संस्कृति के बारे में भी है जो जातिय रूढ़िवाद और इसके आधिपत्यिक शुद्धता और दूषण के सिद्धांतों की बेड़ियों को तोड़ने का साहस करती है। निश्चित ही इन दिनों भारतीय महानगरों में लगभग हर किसी के पास विभिन्न वीथियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीयता तक पहुँच है, जिनमें से एक है खाद्य सेवाओं का धमाका, लेकिन यह उपभोक्तावाद और वैश्वीकृत राज्य के अन्य खंडहरों के ढांचे में जकड़ा हुआ है। इसके विपरीत, अज्ञात सामग्री और परायी पाक प्रक्रिया की मटेरिअलिटी के साथ व्यावहारिक जुड़ाव का मूलसिद्धांत – जो जीभ की जिज्ञासा, प्राप्त पाक विधियों, और अंतःपारिवारिक परंपराओं से प्रेरित होता है – खाने, खाना पकाने वाले, और खाना खाने वाले द्वारा साझा किए गए रिश्ते में बढ़ती इन्वेस्टमेंट अपेक्षित करता है। चे ग्वेरा की छाप की टी-शर्ट पहनने से कोई क्रांतिकारी नहीं बन जाएगा, है न? खून, पसीने और आँसुओं से अपना बकाया चुकाना होगा। मांस की राजनीति इसे और जटिल बना देती है। मांस तक किसकी पहुंच है? कौन किस जानवर को खाता है, और जानवर के कौन से हिस्से खाता है? मेरे पिता के माँ-बाप शाकाहारी थे, जन्म से नहीं बल्कि विचारधारा से। मेरी माँ का परिवार मांस खाने वाला था, लेकिन सूअर और गोमांस ने उनकी रसोई को नहीं छुआ। मगर जब मेरी माँ और मेरे पिता की शादी हुई, तो उनकी रसोई कई हिस्सों का जोड़ बन गई। एक ऐसी रसोई जो थी आज़ाद और नए अनुभव के विस्मयों के लिए खुली हुई, ठीक वैसे जिस तरह देश था हाल ही में आज़ाद हुआ। एक रसोईघर जो कर सकता था चुनाव।
समकालीन भारत में खाना पकाने की किताबों के बारे में लिखते हुए, एंथ्रोपोलॉजिस्ट अर्जुन अप्पादुरई कहते हैं, ‘वे पात्रता की सीमाओं, पाक प्रक्रिया की उपयुक्तता, भोजन के तर्क, घरेलू बजट की अनिवार्यताओं, बाज़ार की अनिश्चितताओं और आन्तरिक विचारधाराओं की संरचनाओं में बदलाव को दर्शाती हैं।’ मैं इसे अपनी माँ और उसकी पाक-कला पर भी लागू करती हूँ। अपनी शादी के पाँच दशकों में, उसने अपनी सीमाएँ और चिह्न बदले और स्वयं के बनाए गए जीवन और विचारधारा की ओर अपना रुख़ किया।
उसके खाने की तारीफ़ न करने के लिए मेरे पिता अब नहीं हैं, पर 78 साल की उम्र में मेरी माँ अभी भी ऐसे खाना पकाती है जैसे वह उनके लिए खाना लगा रही हो। ‘पापा को शुक्रवार को पिज़्ज़ा खाना पसंद था,’ एक दिन उसने कहा, ‘सो वह मेरा बेकिंग डे था।’ उस दिन वह स्प्राउट या बीजों या शकरकंद से भरे तरीके-तरीके के ब्रेड के टुकड़े, मसाला बन, या स्पेनिश संतरा और बादाम केक बनाती। जब उसे मेरे आने की ख़बर होती है, वह पक्का करती है कि उसकी मछली-भक्षी बेटी के लिए घर पर कुछ सी-फूड हो। हाल ही के दिन मैं वहाँ थी और उसने अपनी मेज़ पर मेरे लिए यह सब परोसा था:
येट्टी द उपकरी – ताज़ा नारियल की कतरनों और कटे हुए प्याज़, लहसुन और करी पत्ते के साथ पकाए गए झींगे
तऔते कोद्देल – गर्म चावल के साथ खाने के लिए मैंगलोर की ककड़ी की सब्ज़ी
लत्तण्डे उपकरी – सरसों के तड़के, पिसे लहसुन और नारियल की कतरनों के साथ तलकर भुनी गईं लंबी फलियाँ
सलाद में टमाटर, ककड़ी, एवाकाडो, शिमला मिर्च, कटी बैज़िल, स्प्राउट और विनेग्रैट
और नाश्ते में कॉफी के साथ उसने मेरे लिए बनाये सिनेमन रोल।
आप निबंध को अनुवादक संचित तूर की आवाज़ में सुन सकते हैं –