अनुवाद – वंदना राग
Saranya Ganguly, 2021
उन अंतिम दिनों में गायत्री ने बिल्कुल ही खाना छोड़ दिया था । मैं जब भी खाना खाते समय अपना सर ऊपर कर उसे देखता था तो पाता था वह मुझे ही अपलक ताक रही है। मैं अपने खाने को लेकर शर्मसार हो जाता था। यह सोच कि मैं अभी भी खाना खा पा रहा हूँ। यह सोच कि पूर्वी रेलवे द्वारा प्रदत्त इस छोटे से चौरस सरकारी आवास में पके भात की खुशबू हवा में देर तक टंगी रहती है और वह कुछ भी खा नहीं पा रही है । मैंने कविता के प्रेम की वजह से उससे शादी की थी और वह कहती थी कि उसने मेरे खाने को लेकर मुझसे शादी की है। उन तमाम लोकल ट्रेन से की गई यात्राओं के दौरान, जो हमने कॉलेज के दिनों में साथ-साथ तय की थीं वह यही बात बार बार कहा करती थी-मेरे खाने का डब्बा, मेरी दूसरी सबसे आकर्षित करने वाली बात थी उसके लिए; और पहली आकर्षित करने वाली बात तो निस्संदेह मेरा उस खाने को अपने हाथों से बनाना था!
गायत्री अपने घर के दबावों से मुक्त होकर खाना, खाना चाहती थी। उसके पिता बरसों से रोगग्रस्त रहे थे और उसने अपने मिडिल स्कूल के दिनों से पिता वाला खाना ही खाया था। उबला हुआ, फीका नीरस खाना। कभी–कभी थाली में तले हुए आलू के कुछ टुकड़े मिल जाते थे और बस! उसने अपने बड़े होने के वर्षों में अपनी माँ को काम पर जाते, लौट कर आते और फिर सीधे रसोईघर में घुसते हुए देखा था। उसके पिता को हर 2-3 घंटे पर खाने की जरूरत होती थी और हर बार उन्हें अलग रंगों का खाना, खाना होता था। चुकंदर के बाद लौकी, भिंडी के बाद बैगन और कद्दू के बाद गाजर । और वह भी बहुत कम मात्रा के भात के साथ ।
गायत्री बीमारियों से आक्रांत रहती थी। उसका कहना था, पिता की दो वर्षों से चल रही बीमारी के बाद उसके घर में सबकुछ बीमारी के इर्दगिर्द सिमट गया था और घर में रहने वाले उन तीन प्राणियों के बीच के ऊष्माजनित संबंध, गौण होकर रह गए थे। वे सब अब एक परिवार के बजाय दो सेवादारों और एक रोगी में बदल गए थे।
जब हम शहर में लोकल ट्रेन में घूमते थे तब वह अपनी लिखी कविताएं मुझे पढ़कर सुनाती थी। घर पर रहे खाने के अभाव के बावजूद उसकी कविताओं में भावनायें और शब्द प्रीतिभोज का आस्वाद उत्पन्न करते थे। वह हर वक्त अपनी कविताओं पर काम करती थी। अपने क्लास रूम में, कैन्टीन में और रेलवे स्टेशन पर मेरा इंतज़ार करती हुई। उसके पास सूक्ति, अष्टपदी और ग़ज़ल ही दिल बहलाने वाले आश्चर्य बचे थे जिनमें वह निरंतर उलझी रहती थी। उसने बीमारी की त्रासदी को अपने बचपन की बंगाली शिक्षिका की मदद से कविता की उत्फुल्लता में तब्दील करना सीख लिया था। उसी ने गायत्री को बताया था- कविता ही वह एकमात्र ज़रिया है जो मनुष्य को सुगंध की सीमाओं से पार ले जा सकता है। इसीकी मदद से गोली, दवा, कैपस्यूल, सिरप और बेडपैन की गंध से छुटकारा पाया जा सकता है। यह भी तर्क करने वाली बात है कि उस घर में खाना कैसे पकाया जा सकता है, जिसमें रोगी के बिस्तर और खाने की मेज के बीच कोई दरवाज़ा ही ना हो? गायत्री के घर में इस आवश्यक दूरी को बनाने के लिए कोई दरवाज़ा सचमुच नहीं था।
जब मैं पहली बार गायत्री से मिला था तो कॉलेज में इतिहास पढ़ रहा था और द्वितीय वर्ष का औसत सा छात्र था। मेरे पिता कोलकाता के बगल के ज़िले के स्कूल में हेडमास्टर थे। उन्होंने दो जोड़ी कपड़ों, 2500 की मासिक सहायता राशि और कवि जॉय गोस्वामी की कविताओं की शृंखला की तीन किताबों समेत मुझे कोलकाता के लिए विदा किया था। मैं जब 13 वर्ष का था तो मेरी माँ गुज़र गई थी। और तब से मेरे पिता मुझसे यूं ही खड़े–खड़े आदेशात्मक स्वर में बात करते थे या जॉय गोस्वामी की कविताओं की मार्फत संदेश देते थे। मैं जब भी शहर में घूमने जाता जॉय की कविता की किताब मेरे झोले में साथ घूमती थी। इस बड़े शहर में, मुझे लगता था हर इंसान को मुझसे अधिक स्पष्टता से चीजें मालूम हैं, इसीलिए जॉय दा (जैसा उनके पाठक उन्हें बुलाया करते थे) ही एक थे जो मुझे स्पष्टता देते थे और मेरे वजूद को इस दुनिया से जोड़े रखते थे। उनकी कविताओं ने मुझमें रहस्य की खोज, गहराई की तलाश और साधारणता से प्यार करने का शऊर सिखलाया था। मैं ऐसी दुनिया में ज़रूर था जहाँ सबको मुझसे अधिक जानकारी थी लेकिन साथ ही साथ यह भी सच था कि सबको जॉय दा से कम जानकारी थी। मैं उनसे प्यार करता था और उनकी कविताओं की मार्फत ही यह जानता था कि कवि से प्यार करना, उसकी हसरत रखना, वर्जित बातें नहीं थीं। और ज़िंदगी से बहिष्कृत लोग जैसे मेरे कॉलेज के शिक्षक, मेरे मकान मालिक, घर के नीचे बैठ चाय बेचनेवाला और मेरे पिता, ज़िंदा लोग थे और मेरे प्रिय कवि की कविताओं में जीवन पाते थे।
गायत्री और मैं ट्रेन में मिले थे। वह मेरे ऐन बगल में बैठी थी और अपनी कविताओं पर काम कर रही थी। मैं अपने खाने का डब्बा खोल रहा था। इस घटना के चार वर्षों बाद हमने शादी कर ली थी।
दिनाजपुर में छोटे से रेलवे द्वारा प्रदत्त आवास में हमने अपनी छोटी सी गृहस्थी बसाई थी। गायत्री ने डाक विभाग में मिडिल ग्रेड अधिकारी के पद पर काम शुरु किया था और मैंने रेल विभाग में लोअर डिविज़न क्लर्क बतौर। वह हर शाम अपनी कविताओं पर काम करती थी और मैं हर वह खाना पकाता था जिनका ज़िक्र कविताओं में हुआ करता था। सुकुमार राय, जीबानन्दा से लेकर समकालीन कवि अनिंदिता और श्रीजातो तक की कविताओं में जब भी हताशा, डर, कामुकता या विसंगति के क्षणों में जब भी किसी खाने का ज़िक्र होता तो वह खाना हमारी मेज पर ज़रूर उपलब्ध होता।
हर रात वह अपने लिखे गए ड्राफ्ट को पढ़कर सुनाती। उस दौरान जब भी वह अपने सोनेट्स, कीर्तन या सूक्तियाँ सुनाती मैं समझ जाता कि यह बीमार हो रही है। अपने पिता की तरह भूख के कम हो जाने का डर उसकी कविताओं के बीच के मौन से उभरता। उस मौन का स्वरूप तेज़ी से बदल रहा था। भरेपूरे घर में रोगी की सुश्रुशा से उपजे मौन से बढ़कर अब वह एक ऐसी लड़की का मौन बन रहा था जो हाथ में लगी ग्लूकोज़ की बोतल को तन्मय होकर निहार रही है। उसकी प्रेम कविताएं अब रोष में ढल रही थीं और ललक कड़वाहट में। नैसर्गिक जीवन अब जीवन संघर्ष बनता जा रहा था। वह अब मेरी तरफ ऐसे देखती थी जैसे मेरी कल्पनाओं में उसके पिता उसे देखा करते होंगे। वह दवाइयों से आजिज़ आ गई थी और अपनी गोलियों को चबा कर थूक दिया करती थी। एक रात उसने उबले मटर की फ़रमाइश की और जब मैं मटर उबालने के लिए स्टोव तक गया तो उसने कहा-“यह कितना घृणित है कि तुम यह भी नहीं जानते कि एक कवि क्या खाता है?”
उसकी बीमारी के बाद के एक वर्ष तक मैं खाना बनाता रहा था लेकिन उस एक वर्ष में उसने कविता का एक शब्द तक नहीं लिखा था। उसी दौरान मुझे यह बात समझ में आयी कि क्या–क्या बातें उसके प्राण ले लेंगी ! मैंने पाया कि जबसे उसने लिखना छोड़ा था तबसे मैंने उसे प्यार करना बंद कर दिया था। यह घटक था। दरअसल मैं खुद ऐसे शख्स का प्यार पाने को लालायित रहता था जो मेरी लघुता से मुझे मुक्त करता चले। उसकी बीमारी का नतीजा यह हुआ कि उसके शब्द और मेरा प्यार एक साथ रीत गए।
मैं यह जानता था कि वह कोई महान कवि नहीं है। उसका लेखन अप्रवीण था। उसके लिखने के पीछे उसकी अपनी उत्कंठा के बजाय मित्र समूह का दबाव भर था। लिहाज़ा जब हम दिनाजपुर पहुंचे वह बस मेरे हाथ का खाना खाने वाली इंसान बन कर रह गई थी। मेरे पिता ने मेरी कठोरता को बहुत बचपन में भांप लिया था इसीलिए शायद मुझे दूसरे के निर्देशों के संग विदा किया था। उन्होंने मुझसे किसी प्रकार का कोई वादा नहीं किया था और इसीलिए मैं उनको किसी चीज़ के लिए दोषी नहीं ठहरा सकता था। लेकिन यहाँ तो कविता मुझे जोड़ने वाला तत्व थी और उसी ने मुझसे पलट कर ताना मारा था, – “तुम्हें नहीं पता एक कवि क्या खाता है।”
मैंने चुपचाप उसके सामने मटर का कटोरा रख दिया और उसने खाने से भरी थाली परे सरकाकर चुपचाप से मटर खा लिए। मैंने भी चुपचाप खाना खा लिया। अब यह घर उसके लिए वैसा ही घर हो गया था जिससे वह भागना चाहती थी और मेरे लिए भी यह वैसा ही बचपन का समय हो गया था जिससे मैं खुद को बचाना चाहता था।
जॉय दा ने प्यार के बारे में बहुत लिखा है। उन प्रेमियों के बारे में जो छोटे कमरों और रेल की पटरियों पर मिला करते हैं और साथ कूद कर जान दे देते हैं। उन प्रेमियों के बारे में भी जिनकी शादी किसी और से हो जाती है और फिर वे एक दूसरे को मिलने के लिए अपने गाँव बुलाते हैं और जब प्रेमिका का पति अपने काम पर चला जाता है तो वे साथ भाग जाते हैं। एक युवा लड़की के बारे में भी जो बेनीमाधव नाम के एक शख्स से अपने स्कूल के दिनों से प्यार करती थी और जिसके प्रेम का किस्सा शुरु होने से पहले ही खत्म हो गया था। उन प्रेमियों के बारे में भी जो ज़िंदगी की अनिश्चितता और थोपी गई निर्ममताओं के बावजूद साथ बने रहते हैं। मैं उस रात किताबों में छान मारता रहा कि कहीं कोई सुराग उस क्षण के बारे में भी मिल जाए जब यह एहसास प्रस्फुटित होता है कि दो प्रेमियों का प्रेम खत्म हो गया है। उस रात के बाद तमाम रातें मैं यही खोजता रहा कि वे प्रेमी क्या करते हैं जब उन्हें यह एहसास होता है कि अंततः वे वही बन गए हैं जिससे मुक्त होने के लिए वे प्रेम में पड़े थे। जॉय दा ने यह कहीं नहीं लिखा है कि उन प्रेमियों का क्या होता है, जो कविताएं लिखा करते थे लेकिन कवि नहीं थे और जो काबिल रसोइये थे लेकिन अब सिर्फ मटर उबलाने लायक रह गए थे।
इस तरह अनेक रातों की खोजबीन के बाद और खाने की मेज़ पर किए गए अनेक दिनों के टूटे वादों के बाद गायत्री ने हर उस समय मुझे घूरना शुरु कर दिया था, जब मैं खाना खाने बैठता था।उसकी आँखें पीली पड़ गयीं थीं और उन्हें देख ऐसा लगता था मानो वे पिल्लुओं का घोंसला हों। और उसका जबड़ा भी ठीक वैसा ही लगता था जैसा उसके पिता का हो गया था, ठीक अंतिम संस्कार से पहले।
मटर के दानों का कटोरा उसके सामने था और वह उन्हें अपनी उंगलियों के बीच रख कर मसल रही थी। “ऐसा मत करो,” मैंने कहा। “मुझे ही सब साफ करना होगा।” “तुम मेरी माँ की तरह बात कर रहे हो,” उसने कहा और हमारे बीच एक चुप्पी पसर गई। यह चुप्पी मेरे पिता के साथ होने की चुप्पी जैसी थी।
उसे तेज़ बुखार हो रहा था। मैं उसके माथे पर ठंडी पट्टी रख रहा था और वह मेरा हाथ बार बार परे खिसका रही थी। मुझे लगता है, मेरे भीतर से उसके लिए प्यार खत्म हो जाने का संज्ञान उसे अपमानजनक लग रहा था। यह संज्ञान उस संज्ञान से कहीं अधिक अपमानजनक था जहाँ आप जान रहे होते हैं कि सामने वाले ने कभी आपको प्यार किया ही नहीं है।
दिनाजपुर का हमारा कमरा दवाइयों और पसीने की महक से गँधाता रहता था। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खुली रख पाता था। इसके अलावा मेरे भीतर अगले दिन ऑफिस जाना है इस खयाल को लेकर एक गुस्सा सिमसिमाता रहता था। सुबह उठना है, अपना खाना पकाना है,उसके लिए दोपहर का खाना तैयार करना है, घर साफ करना है, उसकी दवाइयों का सिलसिला जमाना है और फिर काम पर जाना है यह ख्याल बार-बार मुझे झकझोरता था। अलबत्ता ऑफिस में लोग मेरी तुलना आख्यानों के हीरो से किया करते थे। भारत में वैसे भी त्याग एक बड़ा मूल्य है। लेकिन सब चाहते हैं उसकी प्रतिमूर्ति कोई ओर हो।
मैं आख्यान पढ़ बड़ा नहीं हुआ था। कविता पढ़ी थी मैंने और कविता में अतार्किक चीजों को करने की छूट होती है। मुझे लगता है, तार्किक व्यथा मेलोड्रामा होती है। पुरातन, कपटी, घिसी पिटी, उबाऊ और तुच्छ।यकीन करने वाले व्यथा की अंतर्वस्तु पर न्योछावर रहते हैं लेकिन कवि उसके शिल्प पर। गायत्री एक कवि थी और उसने यह नादान सी गलती कर दी थी कि उसने अपने घर से मुक्त होने की अंतर्वस्तु को शिल्प समझ, प्यार कर लिया था। जिस दिन उसे अपनी वयस्क ज़िंदगी का न छुप सकने वाला आईना दिखलाई पड़ा था वह कविता की सीमाओं से रु बरु हो गई थी ।
धीरे–धीरे उसे जॉय दा से, कविता से, मुझसे नफरत होने लगी । हम सब दोहराव के प्रति उसकी चिरपरिचित घृणा के ही अवयव थे। लेकिन दोहराव तो कविता की सबसे नग्न सच्चाई है। कोई रुपक का प्रयोग न कर भी कवि हो सकता है लेकिन क्या वाक्यांशों के विनीत दोहराव के बिना भी क्या कोई कवि हो सकता है? कोई सा भी संगीत, कोई भी चित्र, कोई भी रिश्ता और कोई भी खाना इस साधारणता के बिना संभव है क्या? हम दोनों इस साधारणता को अपना नहीं पा रहे थे और इसीलिए हम कविता नहीं रच पा रहे थे।
दवाओं के पत्तों, सिरप के ढेर और ठंडी पत्तियों के बीच बिस्तर पर लेटे हुए पहली बार उस दिन गायत्री का पेशाब निकाल गया था। उसने मेरी तरफ अत्यंत लाचारी से देखा था। मैंने अपना बायाँ हाथ उसके दायें कंधे पर आस्वास्ति के लिए रखा था और उसे पलट दिया था। उस एक क्षण में हम एक हो गए थे। यही हमारी ज़िंदगी थी और हमने उसे स्वीकार कर लिया था।
मैंने उसे नर्मी से दोबारा पलट दिया और तब मेरे मस्तिष्क में एक विचार कौंधा–नहीं! यह मेरी ज़िंदगी नहीं हो सकती है!
मेरी अपनी ज़िंदगी में अनेक रिक्तताएं रहीं थीं। त्रासदी, हताशा और एक ऐसे पिता का साथ जिनके लिए मुझे ही उनका पिता होना होता था। और आज दोबारा उसी तरह का भविष्य मेरी आँखों के सामने घटने को तैयार हो रहा था। अब मैं गायत्री का पिता हो गया था। एक कृतघ्न का पिता जो ऐसा असामान्य रिश्ता कायम करना चाहता था जिसमें पिता कुछ भी करले वह असफल ही नज़र आएगा। मैंने कुछ नहीं कहा। मैंने अपने स्पर्श और अपनी नर्म निगाह को नहीं बदला। बस बहुत निजी और मानवीय ढंग से सोचता रहा। इतने निजी ढंग से कि कोई परिष्कृत मनुष्य बेध नहीं पाए। लेकिन गायत्री ने तिसपर अचानक ही मेरी बांह पकड़ ली, उसे अपनी पीठ से झटक दिया और पूरी रात रोती रही। मुझे लगा यह रुलाई उसके पिता की मरते वक्त की रुलाई के किस्म की थी, जिसके बारे में वह मुझे बताया करती थी। और मैं उसे रोता देखता हुआ वैसे ही निर्विकार भाव से बैठा रहा जैसे उसकी माँ बैठी रही होगी उसके पिता को रोता देख।
जॉय दा ने ने यह कभी नहीं कहा कि प्रेमी जोड़ों को अपने अतीत की सारी कहानियाँ नहीं साझा करनी चाहिए।कुछ समय बाद तो पता ही नहीं चलता किसकी कौन सी कहानी है। सब यादें आपस में इतनी घुलमिल जाती हैं कि पता ही नहीं चलता है कि कोई अपने लाचार बचपन को याद कर अपने भीतर नफरत सींच रहा है या यह सब दूसरी कहानियों के घालमेल का असर है।
मैं अगले ही दिन घर से निकल गया। फकत एक बैग पैक किया जिसमें कुछ कपड़े और कविताओं की पाँच किताबें रखीं और निकल गया। उस दिन कई दिनों के बाद गायत्री सो पाई थी। उसके नज़दीक मैंने दो कटोरों में भरकर उबले मटर रख दिए थे। एक दम गैरज़िम्मेदारी से। बिना चम्मच के। टेबल के मुहाने पर। गायत्री अंततः सो रही थी। मैंने अपना फोन बंद कर दिया। सेक्शन अफसर से दो शब्द कहे और कोलकाता लौट गया।कविता की एक किताब, मैं गायत्री के सिरहाने छोड़ आया था। मेरे पिता द्वारा दी गई नसीहत- जो छोड़ कर जाओ तो निशानियाँ और चुप्पीयां छोड़ कर जाओ।
Saranya Ganguly, 2021
एक वर्ष हो गए जबसे मैं रानाघाट में आकर रहने लगा हूँ। तीन, जबसे मैंने गायत्री को छोड़ा है। जब मैं कोलकाता में था तो रेल विभाग में काम करता रहा था। सुदूर स्थित एक छोटे से स्टेशन पर घंटों काम करता था। एक बड़े शहर में मुझे लगता था कि मैं जीते रहने के अपने अपराध बोध को कुछ कम कर पाऊँगा हालांकि मुझे गायत्री के बारे में भी पता नहीं था कि वह ज़िंदा भी है या मर गई।
मैंने अपने पिता को एक इन्लैन्ड पत्र पर लिख भेजा था कि अब वे मुझे दिनाजपुर के पते पर चिट्ठी न लिखा करें । उन्होंने जवाब में लिखा था कि अब वे एक नए सत्संग समूह से जुड़ गए हैं और उन्होंने अपने अकेलेपन की स्थिति को शांति से स्वीकार लिया है।
कितने सारे लोग होते हैं जो अपने अकेलेपन से भागने के लिए रेल डब्बे में बैठ यूंही यात्रा करते रहते हैं। एक ही ट्रैक पर प्रत्येक दिन ट्रेन चलने की की एकरसता उन्हें सुहाती है। शायद उन्ही घरों, पेड़ों और मुकामों का निरन्तरता से सामने से गुजरते जाना, उन्हें यह भ्रम देता है कि उनके गहन अकेलेपन के बावजूद वे ट्रेन की गति से आगे बढ़ते जा रहे हैं। समय एवं दूरी बड़े होने के मानक हैं। कितने दिनों से वे बचे हुए हैं। कितनी दूरी तक वे जा पाए हैं? यह सब कुछ लोगों के जीवन में चलता रहता है। हम जो नहीं देख पाते हैं वह लोगों को निगल जाने वाला अकेलेपन का समुंदर है। वर्ष दर वर्ष, रूट दर रूट, पिता से प्रेमी, प्रेमी से पत्नी और उनके ढेर सारे सहयात्रियों को निगलने वाला विशाल अकेलेपन का समुंदर। इन यात्राओं में सभी अकेलेपन से ग्रस्त यात्रियों को अन्य अकेलेपन से ग्रस्त यात्री मिल जाते थे, देखने के लिए। जो दो जोड़ी अकेलेपन का शिकार आँखें दो अन्य जोड़ी आँखों से टकराती हैं तो अकेलेपन की साझेदारी की माया रच जाती है। ट्रेन में यूं देखना उन आँखों को तलाशना भी है जो वापस तुम्हें देखती हैं। घरों में जिन लोगों को यूं देखने वाली आँखें नहीं मिलतीं वे ट्रेनों में चले आते हैं साझेदारी की तलाश में। इसका मतलब एक तरह की आश्वस्ति भी है कि हाँ हम हैं, हमें कोई देख रहा है। ट्रेनें इसीलिए भरी रहती हैं, इसलिए नहीं कि सबको कहीं जाना होता है, बल्कि इसलिए कि लोग देखे जाने की दबी इच्छा से भरे रहते हैं।
एक वर्ष बाद भी जब मुझे गायत्री की मृत्यु की खबर नहीं मिली तब मैंने कल्पना की शायद वह ज़िंदा होगी। इस तरह के सोचने के पीछे और भी वजहें थीं। उसकी माँ ने मुझे कभी फोन नहीं किया और मेरे दोस्तों ने भी मेरी कोई खोज खबर नहीं ली। किसी ने भी नहीं। मैं उसे छोड़ चला गया था और बस बात वहीं समाप्त हो गई थी। शायद उसके लिए सबकुछ समाप्त ही हो चुका था।
लेकिन इन सबके बावजूद मैं उसकी यादों में जानें क्यों उलझा रहता था। प्रत्येक दिन की यात्रा मुझे उसकी याद दिलाती थी। मेरे खाने का डब्बा उसकी याद दिलाता था। कविताएं मुझे उसकी याद दिलाती थीं। और टो और जब मैं खाना पकाता था तब उसकी याद बहुत अधिक सताती थी।
हो सकता है मैंने उससे कभी भी प्यार नहीं किया हो लेकिन मैंने उसके लिए खाना पकाया था। साधारण लोगों का साधारण प्यार मेरी ही तरह का होता है, जिसमें भावनाओं से अधिक हम अपने प्रिय के लिए क्या कर रहे होते हैं यह मानीखेज हो जाता है। किसी को दैनिक जीवन के साधारण कामों के अलावा यदि प्यार करना होता है तो बचपन की खुशगवार यादों के साथ साथ बचपन में मिले भरपूर प्यार की आवश्यकता होती है। चूंकि मेरे पास ऐसा कोई भी धन नहीं था तो मैं घर में किए गए कामों के अलावा और उससे कैसे प्यार जताता? उसने भी मेरे साथ यही किया।
जिस क्षण मैं रसोईघर में जाता था, प्याज़ काटता था, कढ़ाई में सरसों तेल डालता था, और मिर्ची का फोरन देता था, मेरा ध्यान गायत्री की ओर मुड़ जाता था। उसने हमारे बीच रिश्ता होने के बाद कविता करना छोड़ दिया था लेकिन मैंने पकाना नहीं छोड़ा था। हर बीतते दिन के साथ मुझे यह भय लगा रहता था कि कहीं किसी मोड़ पर मैं उससे टकरा न जाऊँ । मैं यह सोच-सोच कर मैं कांप जाता था कि यदि कभी वह किसी लोकल ट्रेन में मुझसे टकरा गई तो मैं क्या करूंगा? क्या करूंगा यदि कभी खाने का डब्बा खोलते वक्त वह मुझे किसी खिड़की से प्लेटफॉर्म पर खड़े-खड़े देखने लग जाएगी और सोचेगी, मैं इतना सब कुछ होने के बावजूद कैसे सहजता से खाना खा ले रहा हूँ? मैं पकड़े जाने के भय से हमेशा ही घबराता रहता था। ऐसी आँखों द्वारा देखे जाने से घबराता था जिन्होंने सबकुछ देखना ही बंद कर दिया था। ऐसी आँखों से, जिनमें लानत तो बेशुमार था लेकिन उम्मीद बिल्कुल नहीं।
मैं जॉय दा पर लौट गया। उनकी कविताएं मेरे जैसे लोगों की होती हैं, जो साधारण चीजें भी ठीक से निभा नहीं पाते हैं और फिर परिष्कृत अपराध बोध को सँजोये चलते हैं। कवि साधारण की अपूर्णता में फलते फूलते हैं। उनकी कविताओं में मेरे जैसे लोग चिरकालिक प्रेम का स्वप्न देखते हैं और जैसे ही वह सामने आता है वे उसे छोड़कर भाग जाते हैं। उनके पाठकों का यही भाग्य होता है।
हम इस ढाढ़ी वाले पागल द्वारा पोसे जाते हैं जो खुद एक पत्नी के साथ बहुत संतोष और खुशी से एक साधारण प्यार भरे घर में ही नहीं रहता बल्कि अपनी कल्पनाओं में उड़ान भर हमें शोषित करता है। एक दिन उनकी किताब मेरे बहुत नजदीक रखी थी और मैंने उसे खट से उठा लिया था। और जो गौर से देखने लगा तो पाया कि बैक कवर पर छपी उनकी तस्वीर के नीचे लिखा था कि वे रानाघाट में रहते हैं। कुछ ही दिनों पहले हमारे दफ्तर में पदस्थ सुपरवाईज़र बिनायक बाबू ने रानाघाट ही में मिडिल डिविज़न क्लर्क के रिक्त पद की बात बतलाई थी। मैं समझ गया अब मेरे दोबारा भागने की बारी आ चुकी है। मैं अपने पिता की निगाहों से भागा था फिर पत्नी की निगाहों से। अब मुझे फिर भागना था अपने कवि के पास।
मैं एक वर्ष पहले यहाँ आया था । फिर से दो जोड़ी कपड़ों और जॉय गोस्वामी की पाँच कविता किताबों के साथ। रानाघाट का रेलवे बाज़ार बिभूतिभूषण के उपन्यास आदर्श हिन्दू होटल द्वारा कालजयी हो चुका था। जो उसमें रसोइया है- हजारी, वह एक छोटे से होटल में काम करता है। और उपन्यास में आए उसके बनाए खाने के विवरणों की बदौलत, पाठक कई बार खाना खा सकता है। जब मैं यहाँ आया और जॉय दा के बारे पूछने लगा तो पाया कोई भी रेलवे विभाग का कर्मचारी उनके बारे जानकारी नहीं रखता था। वे मुझसे बार –बार कहते रहे मैं बिभूतिभूषण के बारे में ही पूछ रहा हूँ शायद और जॉय दा के बारे मुझे मतिभ्रम हो रहा है। वे कहते रहे बिभूतिभूषण ही तो वे शख्स हैं जिन्होंने इस नामाकूल से रानाघाट को विश्व प्रसिद्धि दिलवाई है। जो लोग साहित्य नहीं पढ़ते हैं वे साहित्यकारों को इन तुच्छ चीजों की वजह से याद रखते हैं। वे सोचते हैं (फर्जी ) कला, लोगों को वैधता दिलाने का काम करती है। ऐसे लोगों को कविता पसंद नहीं आती क्योंकि उसमें प्रत्यक्ष नायक नहीं होते। लिहाज़ा वे कहानियों की तस्दीक करते हैं खासतौर से उन कहानियों की जो उनसे जुड़ी हुई होती हैं। उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि थोड़ी भी प्रतिभा वाला लेखक ऐसे लोगों को ध्यान में रखकर रचता नहीं करता है।
मैं उनसे कहता रहा कि मैं महान बिभूतिभूषण की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि एक वास्तविक से कवि की बात कर रहा हूँ जिसका नाम जॉय गोस्वामी है लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ और कई दिनों तक कुछ भी पता नहीं चला।
लेकिन अचानक दो दिन पहले सुखोमोय मेरे पास आया और उसकी बात से साबित हो गया कि मेरे जीवन में आया एकमात्र सच्चा साथी, मेरा कवि ही है। दो दिन पहले शनिवार था और मैं दोपहर के खाने के लिए मछली खरीदने बाज़ार जा रहा था। जैसे ही मैं दरवाजे पर ताला लगा रहा था, एक इन्लैन्ड पत्र, लेटर बॉक्स से नीचे गिरा। मैंने उसे उठाया और पसीने में डूब गया। लिखावट जानी पहचानी थी। मैं दरवाज़े की सीढ़ियों पर धब्ब से बैठ गया और बहुत देर तक पत्थर की तरह बैठा ही रहा। उस वक़्त ना मैं पत्र खोल पा रहा था न उसे पढ़ने की चेष्टा कर रहा था। मुझे याद आया सुखोमोय मेरे लिए बाज़ार में इंतज़ार कर रहा होगा। हमें नाई के पास साथ-साथ जाना था फिर आकर खाना साथ ही खाना था। सुखोमोय को मेरा पकाया खाना पसंद है और वह प्रायः हर शनिवार मेरे घर आ जाया करता है। वह मालदा का है और मेरी ही तरह अकेले ही रानाघाट में रहता है।
मैंने उस इन्लैन्ड पत्र को जेब में रख लिया और साइकिल उठा बाज़ार चल दिया। सुखोमोय नाई की दुकान पर मेरा इंतज़ार कर रहा था। मुझे देखते ही उसने अपनी काँख में दबाए एक अखबार को निकाला और मुझे दिखाने लगा। अखबार में एक आलेख छपा था जिसमें लिखा था कि जॉय गोस्वामी अगले दिन रेलवे बाज़ार आ रहे थे, बिभूतिभूषण के उपन्यासकी शती मनाने और उसमें वर्णित खाने पर बात करने ।
सुखोमोय ने मुझसे कहा-“ यही अवसर है तुम कुछ पकाओ और अपने टिफ़िन डब्बे में ले आओ । आखिर तुम कोई साधारण प्रशंसक नहीं। मुझे पक्का विश्वास है कि वे जैसे ही तुम्हारे हाथ का पका खाना खाएंगे वे तुम्हारे मित्र बन जाएंगे।”
मैंने सुखोमोय से अखबार ले लिया। इसके बाद हमने बाल कटवाये और फिर मैंने उससे कहा-“तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है।” इसके बाद मैं अकेले घर पहुँचा और घर में रखी अपनी एकल कुर्सी पर, बंद इन्लैन्ड पत्र, अखबार और बाज़ार से लाए खाली झोले को पकड़े-पकड़े ही बैठ गया।
उसी के बाद मैंने धीरे से पत्र खोला । उसी की लिखावट थी। गायत्री की लिखावट। मुझे लगा मेरे ऊपर किसी ने जादू मंत्र फूँक दिया है। उसने पत्र में एक खास व्यंजन की विधि लिखकर भेजी थी।
वह अब खाना पकाती थी ।
खुद से।
मैंने गौर से अपने कमरे को देखा। एक साल हो गया था मुझे यहाँ आए और समान के नाम पर मेरे पास एक अदद कुर्सी ही थी, फिर जब सुखोमोय आता था तो हम साथ कैसे बैठते थे? कहाँ बैठते थे?
मैंने देखा रसोईघर में एक कुर्सी रखी थी। वह कुर्सी इस किराये के घर के साथ मिली थी। उस कुर्सी पर मैंने कच्ची सब्जियों की टोकरी रखी थी। मैंने उस टोकरी को ध्यान से देखा और बड़ी देर तक उसे देखता रहा, निहारता रहा और सोचता रहा। एक कवि आखिर खाता क्या है? अपने कवि की कविताओं में मैंने उसके बचपन, उसके स्कूल, उसके ऑफिस के तमाम विवरण पढ़े थे। जिन रास्तों पर वह चलता था, ट्राम पर चढ़ने, उतरने के उसके अनुभव, बस और ट्रेन की यात्राओं के ज़िक्र सभी उसकी कविताओं में जीवन पाते थे। लेकिन रसोईघर उसकी कविताओं से नदारद था।उसकी कविताओं में कभी भी बर्तनों की झंकार, प्याज काटने का रिदम और मछलियों के तले जाने की छन-छन नहीं उत्पन्न होती थी।
क्या वे पति-पत्नी, साथ खाना पकाते थे? क्या उस दौरान उनके बीच संतोष का कोई अद्भुत क्षण उपस्थित हो जाता था जो कवि के भीतर के अकेलेपन को नष्ट कर देता था और इसीलिए उसके बारे में वह लिख नहीं पाता था? या फिर यह भी तो हो सकता है कि कवि हमें बिना जतलाए, लिखा करता था जब वह भूखा हुआ करता था। कहीं कवि अपने को जानबूझ कर भूखा तो नहीं रखता था सिर्फ लिखने के लिए?मेरे दिमाग में हलचल मचने लगी।
मैंने रसोईघर से कुर्सी उठाकर बैठक में दूसरी कुर्सी के सामने रख दी। गायत्री को छोड़ने के बाद यह पहली बार था जब कुर्सियों की यह सज्जा, दो लोग आमने सामने बैठ एक दूसरे का सामना करने को उत्साहित हो रहे हैं, इसका भास दे रही थी।
दो भूखे लोग।
नाना प्रकार की भूख से ग्रस्त, भूखे लोग।
आमने सामने!
लेकिन इस अभ्यास के बावजूद मुझे अनुमान नहीं लग पा रहा था कि कवि आखिर खाता क्या है?मुझे इस बात का उत्तर भी नहीं मिल पा रहा था कि कवि से मिलने के बाद क्या मैं कम अकेला हो जाऊंगा? मैंने मदद के लिए गायत्री की भेजी विधि को देखा।
उसने सभी सामग्रियों का विस्तार से ज़िक्र किया था लेकिन कितने अनुपात में क्या सामग्री डालनी है इस बाबत पत्र में कहीं कोई उल्लेख नहीं था।