उर्दू शाइरी में खाना-पीना
Volume 3 | Issue 3 [July 2023]

उर्दू शाइरी में खाना-पीना <br>Volume 3 | Issue 3 [July 2023]

उर्दू शाइरी में खाना-पीना

डॉ रख्शंदा जलील

वर्ष 3 | अंक 3 [जुलाई 2023 ]

उर्दू साहित्य में शायद ही कोई होगा जिसने खाने पीने पे इतना लिखा हो जितना आगरा में रहने वाले नज़ीर अकबराबादी ने लिखा है। रोटी पे लिखा हुआ उनका लम्बा गीत “रोटिनामा” आज भी पढ़ा और सराहा जाता है। उनकी अन्य रचनाएँ जैसे की “आगरा की ककड़ियाँ” (जहाँ ककड़ियों को लैला की उँगलियों की तुलना दी गयी थी), “तरबूज़”, “ख़रबूज़े”, “संतरे”, “नारंगी” और “जलेबियाँ” मौसम के फलों और चटखारे-दार ज़ायक़े का बखूबी बयान करती है। ये सुनिए नज़ीर किस तरह  क़लिये का ज़िक्र करते हैं (जो एक प्रकार का गोश्त का पतले शोरबे का सालन होता है जो अक्सर पुलाओ के साथ खाया जाता है।) ये भी ग़ौर कीजिये के कैसे मसालेदार, चटखारेदार बिरयानी किस तरह हमारे दस्तरख्वान पे हावी हो गयी है और  हम पुलाओ की नज़ाकत को भूलते जा रहे हैं:

नज़ीर यार की हम ने कल जो ज़ियाफ़त की
पकाया क़र्ज़ मांग कर पुलाओ और क़लिया

नज़ीर की तरह अन्य शायरों ने भी मौसम के खानों का, ख़ासतौर पर मौसम के फलों का, ज़िक्र किया है। और यह सही भी है। भारत जैसे देश में जहाँ तीन भिन्न और विशिष्ट मौसम होते हैं – जाड़ा, गर्मी और  बरसात-भिन्न प्रकार के व्यंजन इन् मौसमों में पकाये और खाये जाते है। इन खानो के साथ जुडी बहुत सी कहानियां हैं, बहुत से लोक-गीत हैं और नानी-दादी के समय से चली आ रहे रीति रिवाज है। फलों में सबसे अधिक मान्यता आम को दी गयी है और क्यों न हो ? ये देश के विभिन्न भागों में उगता है और छोटे बड़े सभी इसे प्यार से फलों का राजा मानते है। ग़ालिब को आम बे-इंतिहा पसंद थे। गर्मी के मौसम में आम खाना, और बहुत से आम खाना, उनका शौक़ था। ग़ालिब की तररह, अकबर इलाहाबादी भी मित्र-गनों से आम भेजने की ही फरमाइश करते: ‘इस फसल में जो भेजिए बस आम भेजिए’! शाहीन इक़बाल असर ने तो आम की शान में क़सीदा ही लिख डाला:

इक फ़क़त मैं ही नहीं शैदा ‘असर’
शैदा है आलम का आलम आम का

बशीर बद्र खाने को एक मेटाफर की तरह प्रयोग करते हैं यानी जैसे पेड़ पे फल पकते हैं वैसे ही एक दिन उनकी भी कोशिशों का नतीजा, यानी फल ,निकलेगा:

कुछ फल ज़रूरआएंगे रोटी के पढ़ में
जिस दिन मेरा मुतालबा मंज़ूर हो गया

राहत इन्दोरी भी लगभग उसी तरह फल शब्द का प्रयोग करते हैं:

फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं लेकिन
इतनी कमज़ोर हैं शाखें की हिला भी न सकूँ

शायद इरफ़ान खालिद का ये शेर बा-खूबी बयान करता है कैसे खाना पीना — और उससे जुडी हुई हमारी खाने पीने के तौर तरीके — वक़्त के साथ बदले हैं:

कागज़ की पलेटों में खाने का तक़ाज़ा है
हालात के शाने पे कल्चर का जनाज़ा है

मजीद लाहोरी का ये शेर भुने तीतर का ज़िक्र कर के हमें याद दिलाता है कैसे बहुत से ऐसे व्यंजन जो एक समय में बड़े चाव से खाये और पकाये जाते थे आज के इस ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ दौर में एक भूली बिसरी याद बन के रह गए हैं और अब हम इनका ज़िक्र सिर्फ क़िस्से कहानियों में ही सुन पाएंगे:

मुर्ग़ियां कोफ्ते मछली भुने तीतर अंडे
किस के घर जाएगा सैलाब-इ-ग़िज़ा मेरे बाद

‘वह कैसी औरते थीं’ नामक नज़्म में  असना बद्र रे हमें उस वक़्त की याद दिलाती हैं जब खाना पकाना बड़ी मेहनत और मशक़्क़त का काम था और कैसे घर की औरतें इस काम में पूरा दिन जुटी रहती थी।  शहयाद उनकी इसी मेहनत का नतीजा था की उनके हाथ के खाने का स्वाद ही कुछ और होता था:

जो सिल पर सुर्ख मिर्चें पीस कर सालन पकाती थीं
सहर से शाम तक मसरूफ लेकिन मुस्कुराती थीं

आज जब मटन के दाम आसमान को छू रहे हैं तो साग़र ख़य्यामि के ये शेर दोहराने को जी चाहता है:

एक महीना हो गया है बंद है हम पर मटन
दावतों में खा रहे हैं भिंडियां अहल-ए-सुख़न

और:

खा के घुइंयाँ क्या दिखलाएं शाइरी का बांकपन
हो गए पालक का पत्ता नाज़ुकी से गुलबदन

और दिलावर फिगार की ये दिल से निकली हुई दुआ भी याद आती है और दिल में अजीब सी टीस उठती हैं:

या रब मेरे नसीब में अक्ल-ए-हलाल हो
खाने को कोरमा हो खिलाने को दाल हो

***

बड़े (यानी बड़ा जानवर) और छोटे (यानी बकरी या भेड) के मीट के बारे में हंसी-मज़ाक़ और नोक-झोंक भारत के हर उस प्रांत में होता है जहाँ इनका मीट खाया जाता ह।  एक समय था जब अशराफ (शरीफ की जमा यानी ऊँची जाती के लोग) और अजलाफ (यानी नीची या पिछड़ी जाती के लोग) के बीच का अंतर बहुत साफ़ और स्पष्ट थ।  ज़ाहिर है उनका रेहन-सेहन, उनका खान-पान, उनके तौर तरीके भी एक दुसरे से सुभिन्न थे। खान-पान की बात की जाए तो अशराफ केवल मटन खाते थे; मुर्ग, या यूँ कहिये मुर्ग़ी, भी उनके लिए शराफत की सीमा से बाहर समझा जाता था अलबत्ता देसी मुर्गी  ज़रूर शौक़ से खा ली जाती थी। बाकी की जनता बड़े से ही काम चला लेती थी। आम लोग उसी को अफ़्फोर्ड कर सकते थे।  बड़े और छोटे के फरक में हंसी मज़ाक़ आम था जैसे के अक्सर गाँव देहात या क़स्बाती शहरों में सड़क पे कबाब बेचने वाले कबाबी साइन बोर्ड लगा के रखते जिसपे लिखा होता: “अल्लाह क़सम छोटे का है” ! ये एक आसान तरीक़ा था अपनी वरिष्टता और अपने कबाबों के मीट की उच्चता बतलाने की। लिंचिंग के इस दौर में ये बता देना ज़रूरी है के जब मैं बड़ा कहती हूँ तो मेरा मतलब भैंस के मीट से है — गऐ के मीट से नही। कलकत्ता और करेला के कुछ शहरों को छोढ़ कर, और गोवा के कुछ रेस्टोरेंट के इलावा मुझे याद नहीं के मैंने भारतवर्ष में किसी भी रेस्टोरेंट या पब्लिक में बीफ कह कर भैंस के अलावा कोई और प्रकार का मीट सर्व  होते देखा हो।

यह अलग बात है — और अनकही भी — के कुछ मीट के व्यंजन बड़े के मीट से अधिक स्वादिष्ट बनते है। अशरफ घरों की बीवियां भले ही इस बात को आम तौर से स्वीकार न करें किन्तु निहारी और कुछ हद्द तक शामी कबाब और बिरयानी भी बड़े (यानी भैंस के मीट) से ही ज़्यादा स्वादिष्ट बनते हैं और ख़ास कर इन् व्यंजनों में मीट का असली ज़ायक़ा बड़े के साथ ही उभर कर आता ह। लेकिन अब ऐसा कहाँ रहा! बीफ बैन, लिंचिंग का भय, अपने फ्रिज में रखे मीट का प्रमाण देना — ज़रूरत पड़े तो डीएनए टेस्टिंगके द्वारा — इन सभी मिलेजुले कारणों से भैंस के मीट (जिससे अब बुफ़ कहा जाने लगा है ) के दाम बढ़ते जा रहे हैं। अब तो बुफ़ भी बहुत महंगा हो गया है (मुर्गी से भी ज़्यादा दाम का) और अशराफ क्या अजलाफ क्या सभी की पहुँच से बाहर है।

भेस बदलने और ठुग्गी की प्रथा हमारे देश में बहुत पुरानी है। लेकिन क्या आपने खाद्य पद्यार्थों के सन्दर्भ में ठग्गी सुनी है? यानी मटन के भेस में कटहल यदि आपके सामने आजाये तो आप क्या करेंगे? और वह भी कटहल की सब्ज़ी के रूप में नही बल्कि बिरयानी, कबाब या फिर इस्टु (अंग्रेज़ों के ज़माने के खानसामा मेम साहब के सिखाये हुवे स्टू को हमेशा इस्टु ही कहा करते थे और पुराने शहरों में आज भी इसे इसी तरह पुकारा जाता है)। अब करें भी तो क्या करें? ज़माना ही कुछ ऐसा आ गया है। भेस बदलने की प्रथा इतनी आम हो गयी है। जो है वह नहीं है और जो नहीं है वह है — यही ज़माने का दस्तूर है।

यहाँ बात बेचारी फीकी फाकी लौकी की नहीं हो रही ना ही बे-मज़ा अरबी/अरवी की —  जिसके कबाब और कोफ्ते आम तौर से बनाये जाते हैं या फिर फिश कटलेट जैसे स्वाद के अरबी के कटलेट।  हम बात कर रहे हैं कटहल की जो अपने आप में एक निराला बहरूपिया है।  इसकी टक्कर की  सब्ज़ियों की दुनिया में शायद ही कोई दूसरी सब्ज़ी होग। यक़ीन नहीं आता? अच्छा चलिए, कटहल के टुकड़े लीजिये, उन्हें थोड़े से तेल या घी में तल लीजिये — बस इतना के वह लिजलिजा न रहें और हलके गुलाबी से रंग का हो जाये। अब उसे चने की दाल के साथ उबाल लीजिए।  सिर्फ इतना पानी डालिये के दाल भी गल जाए और कटहल भी और पानी बिलकुल बचा न रहे। उबलते समय  नमक, मिर्च, गरम मसाले और पीसी हुवी दाल चीनी ज़रूर दाल दे।  यदि प्रेशर कुकर में उबालें तो बेहतर है। ठंडा होने पे इसे पीस लीजिये। अब बारीक कटा हरा धनिया, हरी  मिर्च, प्याज़,अदरक मिला कर इनकी कबाब की शकल की pattis बना के तल लीजिय।  कटहल के शामी कबाब तैयार हैं। यदि इनका और भी आनंद उठाना चाहते हो तो बगीचे से कुछ पत्ते तोड़ कर इन कटहल के कबाबों को यूँ परोसे और किसी अनजान उर्दू के शायर का यह शेर पढ़ें :

मैख़ाना-ए-हस्ती का जब दौर खऱाब आया
कुल्लड़ह में शराब आई पत्ते पे कबाब आया

बहरूपिया कटहल अपना असली जलवा दिखता हैं जब आप इसे इस्टू की शकल में पका। काफी अधिक मात्रा में मोटी कटी हुइ प्याज़, खड़े मसाले (यानी सब कुछ मोटा कटा हुआ:अदरक, लस्सान, साबुत धनिया, साबुत बड़ी इलाइची, साबुत छोटी इलाइची, काली मिर्च, साबुत लाल मिर्च, दो चार दालचीनी के टुकड़े, और नमक।  किसी भारी पेंदे की पतीली में तेल या घी गरम कीजिये, मोटे कटे कटहल के टुकड़ों के हल्का सा ताल लीजिये और फिर ऊपर बताये सभी साबुत मसाले, अदरक, लस्सान, प्याज़ दाल कर थोड़ी देर भून लीजिए। दो-चार चम्मज भिटा हुआ  दही डाल के ढक दीजिये। धीमी आंच पे तब तक पकाइये जब तक कठहल गल नहीं जाता और मसाले घी/तेल नहीं छोड़ देते। हुसैन मीर कश्मीरी के इस शेर के साथ कटहल के इस्टू को नोश फरमाइए:

क्या ख़बर थी इंक़लाब आस्मां हो जाएगा
क़ोरमा क़लिया नसीब-ए-अहमक़ान हो जाएगा

अरबी, जिसे घुँइयाँ भी कहा जाता हैं, मछली जैसा स्वाद इख़्तियार कर सकती हैं अगर उसे  कडु के तेल में सरसों के दाने के छौंक में बनाया जाए साथ ही बहुत सा फिटा हुआ दही भी सालन में डाला जाय। लेकिन ये छिपाने-छुपाने की अदा अक्सर कामयाब नहीं होती जैसा के शौक़ बहराइची के इस शेर से ज़ाहिर हैं :

रहज़न लिबास-ए-रहबरी में न छुप सका
आलू ने लाख चाहा पर घुइयां न हो सका

***

आइये अब बात करते हैं उन खानों की जो त्योहारों के साथ जुड़े है। इन में सेवइयां-कबाब-बिरयानी सबसे मशहूर ‘कॉम्बो’ (combo) हैं। साल में आने वाली दो बड़ी ईद के मौक़ों पर — ईद उल फ़ित्र और ईद उल जुहा — पर इन्ही को खोजते हुए भारी तादात में मेहमान आ पहुँचते है। मुर्तज़ा साहिल तस्लीमी ईद के दिन के माहौल की मंज़रकशी इस तरह करते हैं:

थीं सेवइयां क़ोरमा शीर और बिरयानी कबाब
हम उठे खुश-ज़ायक़ा खानो से हो कर फ़ैज़याब

अब सुख के मौक़े से दुःख के मौक़े की तरफ चलते है। हमेशा सटीक बोलने वाले अकबर इलाहाबादी मौत के बाद फातिहा के मौक़े पे जो खाने पकते हैं — और मोहल्ले पड़ोस में बांटे जाते हैं — उनका ज़िक्र इस तरह बयां करते हैं:

बताऊँ आप को मरने के बाद क्या होगा
पुलाओ खाएंगे अहबाब फातिहा होगा

पुलाओ और बिरयानी के अपने अपने कैंप (खेमे) बन गायें हैं और दोनों के मेंबर अपनी पसंदीदा डिश की बड़ाई में लगे रहते है। लेकिन कवी को दोनों प्रिय हैं। दिलवार फ़िगार देखिये कैसे बयां करते हैं वलीमे की दावत का जहाँ पुलाओ परोसा जायेगा:

उस शोख के वलीमे में खा कर चिकन पुलाओ
कनकी के चावलों का मज़ा याद आ गया

वही दिलावर फ़िगार इस नए ज़माने के नए दस्तूर का भी ज़िक्र करते हैं जहाँ लोग घरों पे दावत करते हैं, कवियों को आमंत्रित करते हैं और मिनी-मुशायरे की मफ़िलें सजाते हैं:

क़ोरमा, इस्टु, पसंदा, कोफ्ता, शामी कबाब
जाने क्या क्या खा गया ये शायर-ए-मैदा-खऱाब

उर्दू शायरी में दो जुड़वाँ भाई — शराब-कबाब — का ज़िक्र अक्सर आता है। इब्राहिम ज़ौक़ जैसा उस्ताद शायर जो बादशाह बहादुर शाह ज़फर का भी उस्ताद था, यह ऐलान करता हैं:

वाईज़ छोढ़ ज़िक्र-ए-नेमत-ए-खुल्द
कह शराब-ओ-कबाब की बातें

कभी कभी कबाब मेटाफर बन जाता हैं भूने जाने का, जैसे के आशिक़ का दिल जो जलन और हसद से भुन जाता है। सुनिए मीर तक़ी मीर क्या फरमाते हैं:

आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद
देर से बू कबाब की सी हैं

अब्दुल हामिद अदम भी कबाब को अलंकार या मेटाफर की तरह इस्तेमाल करते हुए यह शेर लिखते हैं:

क्या ज़रूरत हैं बहस करने की
क्यूँ कलेजा कबाब करते हो

और अमीर मीनाई भी उसी बात को इस तरह कहते हैं:

कबाब-ए-सीख हैं हम करवटें हर-सू बदलते हैं
जल उठता हैं जो ये पहलू तो वह पहलू बदलते हैं

कबाब की ही तरह, शर्बत भी अक्सर एक मेटाफर की तरह इस्तेमाल किया जाता हैं। देखिये यह शेर यगाना चंगेज़ी का:

शरबत का घूँट जान के पीता हूँ खून-ए-दिल
ग़म खाते खाते मुंह का मज़ा तक बिगढ़ गया

***

अब आती हैं बारी पान की।  पान एक कल्चरल मोटिफ (सांस्कृतिक अलंकार) है जो प्रान्त और मज़हब की चार दीवारियों को लांघता है और एक मिली-जुली तहज़ीब की तरफ इशारा करता है सो सभ्य  है,सौम्य है, सुशील है, सब को साथ ले के चलती है। पान को भोजन के बाद खाया जा सकता है क्यूंकि इसमे पाचक तत्व भी होते हैं और इसे मुखवास के तौर पे भी खाया जाता है। कभी कभी इसमें प्रेरक पड्यार्थ (stimulants) या  कामोत्तेजक पड्यार्थ (aphrodisiacs) भी मिला दिए जाते  हैं। घर पे आये अतिथियों को श्रद्धा भाव से भेंट किया जाता है, माला में पिरो कर घर के द्वार सजाये जाते हैं क्यूंकि पान के पत्तों को शुभ माना जाता है। इसी कारण इसे नव-व्याहित दुल्हनों को भी दिया जाता है। कई प्रांतो में दुल्हन के हाथ में मेहँदी पहले पान पे रखी जाती हैं या फिर पान के दो पत्तों के पीछे दुल्हन अपना मुँह दूल्हा से छिपाती हैं। इस प्रकार से यह निनम्र पत्ता — जो न ही भोजन है न ही स्नैक (snack) — अपनी छाप देश के कोने कोने में छोढ़ चुका है।

दैनिक जीवन में हर जगह पाया जाने वाला पान — सड़क किनारे के खोके पे बिकने से ताश के पत्तों  पे पाया जाने वाला, कढ़ाई के नमूनों और आभूषणों के डिज़ाइन में लिप्त हुआ — हमारी शायरी में भी पाया जाता है। उर्दू के शायर ने तो इसे ख़ास तवज्जे दी है। याद रहे की आज हम जिस शक्ल में पान को देखने और खाने के आदि हो चुके हैं — एक मोटा पत्ता जिसमे ढेरों गुलकंद, सुपारी, मेवा, सूखी गिरी, अत्यधिक मीठी चाशनी और न जाने क्या क्या अला बला  ठुसे होते हैं — पहले ये ऐसे नहीं बनाया जाता था। इसके बनाने के तरीक़े में नफासत होती थी और बहुत कम मात्रा में सुपारी, कत्था, चूना का प्रयोग होता था। बड़े से बड़े शायरों  ने इस पे शायरी की है। यूँ कहिये कत्थे और पान का मिल के जो लहू के जैसा लाल रस निकलता है जिस से होंठ लाल हो जाते हैं वह एक शायर के ख्वाब से कम नहीं।

मर्दाने में पान बना के भेजने की खूबसूरत रस्म का ज़िक्र ज़हीर देहलवी अपने एक शेर में करते हैं। घर की औरतें पान बनाती थीं और बड़ी नफासत से तश्तरी में रख के ये पान मर्दाने में भेजे जाते थे। पान का भेजना घर आये मेहमान को इज़्ज़त देना था; वैसे ही जैसे पान का ना भेजना एक तरह इज़्ज़त ना दना या अपमान करना या मेहमान को नीचे दिखाने के बराबर समझा जाता था:

पान बन बन के मिरी जान कहाँ जाते हैं
ये मेरे क़त्ल के सामान कहाँ जाते हैं

प्रेम की व्यथा और उसका परम आनंद मुसहफ़ी घुलाम हमदानी का ये शेर बयान करता हैं:

गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरोते से मेरा
तुम सुपारी की डली रखते हो नाहक़ पान में

एक अनजान शायर का ये शेर भी सुनते चलिए:

छा लिया ग़म ने तेरे वरना तो मैं ऐसा कथा
मुश्किलें लाख आएं पर मैं चूना किया

पान का रस जो ताज़ा खून की तरह लाल है प्रेमी के दिल की तरह भी हैं जिसमे से ताज़ा रक्त बहता हैं — जैसा के हातिम की इस शेर में बताया जाता है:

तेरे होंठों के ताईंन पान से लाल
देख कर ख़ून-ए-जिगर खाता हूँ

आज के दौर के शायर गुलज़ार ने भी पान पे बहुत कुछ लिखा हैं, जैसे नज़्म की ये पंक्तियाँ:

की जैसे पान में महंगा किमाम घुलता हैं
ये कैसा इश्क़ हैं उर्दू ज़बान का ….

आज के भारतवर्ष में जहाँ वेश-भूषा धर्म या मज़हब से जोड़ी जाती हैं तो खान-पान कैसे पीछे छूट जाएं? आपको याद होगा कुछ समय पहले, दिवाली के अवसर पर, एक लोक सभा मेंबर ने बड़ा बवाल खड़ा किया था और बैन की बात की थी क्यूंकि कपड़ों की एक प्रसिद्ध ब्रांड ने ‘जश्न’ शब्द का प्रयोग किया थे और साथ ही विज्ञापन में हरे कपडे पहने हुए महिलाओं को दिखाया गया था। बात उठी थी भारत में ‘Abrahamisation’ के प्रचार की और वह विज्ञापन शिग्र्हता से दबा दिआ गया था। समय समय पे रंगों को ले कर भी कुछ न कुछ बवाल उठता हैं, ख़ास कर हरे रंग को ले कर। छब्बीस जनवरी की झांकियों में कुछ प्रांतों की झांकियों में हरा रंग क्यों हैं? होर्डिंग्स या पोस्टर्स में हरा रंग क्यों हैं? ये मुद्दे साल दर साल उठाये जाते हैं। क्यों? क्यूंकि हरा रंग मुसलमानो से संयुक्त माना जाता हैं वैसे ही जैसे गेरुआ रंग हिन्दुओं के साथ। इन सब stereotypes को फैलाने में सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है — जैसे के समोसे, जलेबी, गुलाब जामुन ‘म’ हैं किन्तु खीर, पायसम ‘ह’। तो ऐसे में प्रशन उठता केक क्या हैं?वह तो केवल ईसाई ही हो सकता है। ऐसी सोच बहुत आगे तक पहुँच गयी है — पालक तो केवल ‘म’ ही हो सकता है और कद्दू ‘ह’ के अतिरिक्त और कुछ भी नही। और बिचारे फूलों का क्या? गुलाब तो आवश्यक तौर पे ‘म’ ही है, कमल तो ‘ह’ के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता, आदि, अत्याआदि।

शायद साग़र ख़य्यामि बहुत पहले भांप गए थे के आने वाले अच्छे दिनों में ‘नए भारत’ में क्या होने वाला है जब उन्होने लिखा था:

नफरतों की जंग में देखो तो क्या क्या हो गया
सब्ज़ियां हिन्दू हुईं बकरा मुस्लमान हो गया

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