दादरी में खाने की खोज में: परंपरा से जीविका तक
Volume 3 | Issue 12 [April 2024]

दादरी में खाने की खोज में: परंपरा से जीविका तक <br>Volume 3 | Issue 12 [April 2024]

दादरी में खाने की खोज में: परंपरा से जीविका तक

तनिष्का वैश

Volume 3 | Issue 12 [April 2024]

अनुवाद: संचित तूर

“अब मक्का में वो स्वाद कहाँ, सब दवाई लगा के उगाते हैं।”

2000 के दशक में जब मैं पल-बढ़ रही थी तो जाड़े के मौसम में मेरी माँ के बनाये हुए साग और मक्की की रोटी को लेकर मेरी दादी की शिकायतें मुझे खास समझ नहीं आती थीं। मेरे लिए तो साग में भर-भर कर डाला गया मक्खन स्वर्ग-सा था। दालों और सब्जियों के स्वाद में मैं कोई फर्क नहीं जान पाती थी, और अब कहीं जाकर ही अपने खाने का जायका ले पा रही हूँ। जाड़े में, घर पर सुनने को पड़ता था तो सिर्फ अनाज में कथित मिलावट का किस्सा, कीटनाशकों का कहर, और मेरी दादी की यादों भरी रट कि ग्राम्य जीवन ही सारे उम्दा स्वादों की कुंजी है। वह सुनाती कि कैसे वह पड़ोसियों के साथ निकल जाती थी पास की झीलों से ताजी-ताजी उपज जुटाने के लिए, जिससे साग भी इतना स्वादिष्ट बनता कि उसे “एक टन मसालों” की जरूरत न पड़ती। एक शहरी लड़की के बतौर, ये किस्से-कहानी मुझे अनजान पड़ते, और यह सारा मसला मुझे तब तक ठीक मालूम नहीं पड़ा जब तक कि तरबूज जैसे फलों के बारे मैंने खुद यह नहीं जाना, मसलन तरबूज अब बाजार में साल-भर मिलता है और उसमें मिलती है एक नकली मिठास।

जब मैं अपनी अंडर-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ़ एमिनेंस आयी, तब मैंने बिलकुल नहीं सोचा था कि यूनिवर्सिटी की दीवारों के भीतर और बाहर की दुनिया में जमीन-आसमान का फर्क होगा। यूँ कहूँ तो दादरी नाम के गाँव में ही बसी मेरी यूनिवर्सिटी बेहतरीन सुविधाओं से लैस और हरियाली से घिरी है। दादरी उत्तर प्रदेश राज्य का एक छोटा-सा गाँव है और दिल्ली एन.सी.आर. (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के छोर पर टिका है, और यहाँ मुख्य रूप से गुर्जर समुदाय रहता है। यह एक आर्द्रभूमि (वेटलैंड) क्षेत्र है, इसलिए आस पास के शहरों के लिए अधिकतर उपज यहीं पर की जाती है। और पिछले कुछ सालों में, जब से मैं यहाँ एक स्टूडेंट के तौर पर रह रही हूँ, उपज को लेकर तौर-तरीकों में बहुत बदलाव आ गया है। वे सब्जियाँ जो उत्तर-भारतीय थाली और डाइट में मुख्य रूप से रहती हैं यहाँ पर उगायी जाती हैं। और इस गाँव का नाम है तो इसकी रसीले संतरों और गाजरों की उपज के लिए। आस-पास के ढाबों में बड़े-बड़े परांठों के साथ आपको पत्तेदार पौधों, ताजा टमाटरों, और पके फलों से बनी हुईं तरह-तरह की चटनियाँ भी मिल जाएँगी। यहाँ का प्रमुख व्यवसाय खेती होने के नाते, यहाँ की उपज ताजा और पौष्टिक गुणों से भरपूर थी। हालाँकि, पिछले एक दशक से बदलाव की बहती हवाओं ने इस जमीन-ओ-जीवन को पलट, दादरी को जैविक (ऑर्गेनिक) खेती के केंद्र से बदल कर पास के महानगरों की कभी न खत्म होने वाली माँगें पूरा करने वाला एक व्यावसायिक खेती केंद्र बना दिया है। दादरी में अब उग रही उपज या तो कीटनाशकों से लदी होती है या फिर संकरण (हाइब्रिडाइजेशन) का उत्पादन होती है। इसका सीधा असर गाँव के लोगों पर पड़ा है, जो शुद्ध-साफ और शरीर को स्वस्थ रखने वाली उपज खाने के आदी थे। पीढ़ियों से गाँव में रह रहे परिवारों ने इसे भांप लिया है, और वे या तो अपने ही घरों में सब्जियाँ उगाने लगे हैं या फिर उनके आस-पास मिलने वाली उपज ढूँढ़ने लगे हैं।

शुद्ध-साफ जीवन जीने की इस जद्दोजहद में, अपने आस-पास से खाना खोजना-जुटाना — जिसे अंग्रेजी में फॉरेजिंग कहते हैं — दादरी की औरतों के लिए परंपरा और पोषण का एक प्रतीक बन कर उभरा है। जबकि सोशल मीडिया खाना जुटाने की इस प्रक्रिया को आज का नया चलन मान कर इसका मंडन करता है, यह तो दरअसल भारतीय संस्कृति से जुड़ा परंपरागत प्रचलन रहा है। दादरी की औरतों के लिए यूँ खाना ढूँढ़ना केवल खाना पाने का साधन नहीं है। यह एक परंपरा है, एक जुड़े होने का अनुभव है, और रसोई की तपती दीवारों के परे प्रकृति के साथ एक संबंध है, एक रिश्ता है। एक बार, दादरी जाने पर मैंने पाया कि औरतें जमीन से कुछ खरपतवार निकाल रही थीं। देखने पर ऐसा नहीं लगा कि मैंने कभी ऐसी किसी सब्जी को खाया हो, पर मुझे और जानने का मन हुआ। गाँव की औरतों से बात हुई तो जान पड़ा कि यह लाल-हरा पत्तेदार पौधा लहसुआ है। मैंने इस खरपतवार को अपने यूनिवर्सिटी कैंपस के आस-पास बहुतायत में उगते देखा था, लेकिन कभी न सोचा था कि इसे खाया जा सकता है। एक साधारण-सा खरपतवार, लहसुआ दादरी में पौष्टिक व मिलावट रहित खाने की कमी से जूझती औरतों के लिए एक “जुटाया सोना” बन गया है। बढ़ती हाइब्रिड सब्जियों के बीच, लहसुआ एक प्रोटीन से भरपूर विकल्प के रूप में उभरता है, जिसे उसकी खास लाल-हरी पत्तियों के कारण आसानी से ढूँढ़ा जा सकता है। दादरी की औरतों के लिए, लहसुआ स्वादिष्ट साग तैयार करने की एक बेशकीमती सामग्री है — साग, एक ऐसा व्यंजन जो दैनिक खाने से बढ़कर परंपरा का एक प्रतीक बन गया है। रविवार की दोपहर को, जब पूरा परिवार घर पर होता है, तो घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें मिल-जुट कर लहसुआ (अमेरेन्थस विरिडिस), बथुआ (चेनोपोडियम एल्बम), और चौलाई (अमेरेन्थस) को जुटाने-बटोरने के लिए आस-पास के जंगलों या झीलों को निकल जाती हैं — इन्हें वे “फ्री की सब्जी” कहती हैं। दादरी की औरतों के साथ, अपने ऐसे ही एक खाना जुटाने के सफर के दौरान, मैंने देखा कि कैसे यूँ खाना जुटाना औरतों के बीच संबंध बनाने-बढ़ाने के तौर पर उभरा है। इसके साथ कईं तरह की संस्कृति व लिंग से संबंधित धारणाएँ भी जुड़ी हुई हैं, जिनके चलते केवल परिवार की बड़ी-बूढ़ी औरतें ही खाना जुटाने-बटोरने के लिए जाती हैं। नयी-नवेली बहुएँ इसमें हिस्सा नहीं लेती हैं, क्योंकि इसे एक ‘बाहरी काम’ माना जाता है: “बहुओं के पीछे हम हैं, उन्हें जाने की कोई जरुरत है!”

आमतौर पर, लहसुआ जैसी सब्जियों को तोड़ने का समय मानसून या जाड़े में होता है। गाँव की औरतों ने मुझे बताया कि कैसे वे काम से लौटते समय यूँ खाना जुटाने की और जगहों की तलाश में रहती हैं। तोड़ी-बटोरी गयी उपज को बड़ी-बूढ़ी औरतें अपने शाल या अपनी साड़ियों के पल्लों में लपेट कर घर ले आती हैं, और उसका साग पकाने के लिए उसे घर की बहू-बेटियों को सौंप देती हैं। लहसुआ को तैयार करने में लगभग दो से तीन घंटे का समय लगता है, जिस दौरान साग को साफ किया जाता है, काटा जाता है, और चूल्हे या गैस पर कम से कम एक घंटे के लिए पकाया जाता है। औरतों को इस साग में लहसुआ, चौलाई, पालक और बथुआ जैसी पत्तेदार सब्जियाँ, जो भी उनके पास उपलब्ध हों, डालना पसंद है। साग खूब हरा और भरा होता है, जिसे गरम तेल, जीरे, और प्याज के तड़के के साथ तैयार किया जाता। मैंने जो साग चखा, उसमें प्रकृति का अपनापन था, और वह मेरी माँ के साग से बहुत अलग था। वह जायकेदार था, जमीनी था, और उसमें डाली गए कईं तरह की खरपतवारों से उसमें चुटकी-भर मिठास और चिकनाई मिली थीं। औरतों ने लहसुआ के लिए अपनी प्यार-पसंद जाहिर की है, क्योंकि एक तो यह आसानी से मिल जाता है और दूसरा परिवार के लिए भी एक स्वस्थ और पौष्टिक खाने के बतौर बनता है। “बहुत सही लगता है, स्वाद होता है, पौष्टिक होता है।” लहसुआ गाँव में अन्य तरीकों से भी पकाया जाता है, जहाँ आलू के साथ इसकी भुर्जी बना दी जाती है या फिर आटे में मिलाकर इसके परांठे बनाये जाते हैं।

जो औरतें दादरी या आस-पास के गाँवों में पली-बढ़ी हैं, उनके लिए खाना जुटाना उनकी परंपरा का एक हिस्सा है, और यह केवल परिवार का भरण-पोषण करने का तरीका नहीं है, बल्कि यह उन्हें खूब खुशी भी देता है। यूँ खाना जुटाने के मौके मेल-मिलाप के मौके होते हैं, और औरतों को रसोई की दहलीज से बाहर प्रकृति से जुड़ने का अवसर भी देते हैं। चूँकि साग बनाना एक लंबी प्रक्रिया है, इसलिए सभी पीढ़ियों की औरतें, छोटी से लेकर बड़ी तक, यह साग साथ मिलकर तैयार करती हैं। जहाँ छोटी पत्ते निकाल कर उन्हें धोती हैं, वहीं बड़ी शादीशुदा औरतें उन्हें काटकर घंटों लंबी ‘साग घोटने’ की प्रक्रिया शुरू करती हैं। साग का स्वाद भरपूर और स्वादिष्ट हो, इसके लिए उसका सही पक कर तैयार होना जरुरी है। यूँ जो साग तैयार होता है, वह सिर्फ एक निवाला नहीं है, बल्कि वह बदलते समय के सामने डटे एक परिवार के मायने दर्शाता है।

इसके बावजूद, जैसे-जैसे गाँवों में शहरीकरण अपने पैर पसार रहा है, वैसे-वैसे खाना ढूँढ़ने-जुटाने की यह परंपरा मौन रूप से लुप्त हो रही है। साल-भर सब्जी उपलब्ध होने की सुविधा और आज की औरत के जीवन में समय के अभाव के चलते इस पुराने प्रचलन में गिरावट आ गयी है। गाँव की औरतें ऐसी न्यारी साग-सब्जी महीने में लगभग दो बार ही तैयार करती हैं, क्योंकि यह एक लंबी, थकाने वाली प्रक्रिया है। दादरी की अधिकतर औरतों ने काम पर जाना शुरू कर दिया है, जिसके चलते खाना ढूँढ़ने और ऐसा विस्तृत खाना पकाने के लिए उन्हें शायद ही समय मिलता है। नयी, युवा पीढ़ी के लिए तो फॉरेजिंग एक विलुप्त परंपरा बनता जा रहा है। परिवार की औरतों से पूछने पर पाया कि भले ही पूरा परिवार साग खाना पसंद करता है, पर उनकी बेटियाँ उन मौसमी पत्तेदार हरी सब्जियों को जुटाने नहीं निकलती हैं। सब्जियों के हाइब्रिडाइजेशन को लेकर भी चिंताएं बढ़ रही हैं, पर खाना जुटाने या अपनी ही सब्जियाँ उगाने के लिए समय और साधनों की कमी ने औरतों को मिलावटी उपज पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया है।

व्यावसायिक खेती (कमर्शियल फार्मिंग) के मौजूदा रुझानों के कारण, खाना जुटाने की पुरानी परंपराओं का न रहना, हाइब्रिड सब्जियों की विविधता, और कीटनाशकों का उपयोग सामने आये हैं, जिनके चलते वे फल. और सब्जियाँ, जो कि लोगों के बचपन का एक बड़ा हिस्सा थे, अब कम ही मिलते हैं। दादरी की औरतें याद करती हैं कि कैसे वे अपनी दादियों के साथ आचार के डिब्बे तैयार करती थीं और पास के खेतों व जंगलों से खिरनी और जंगली बेर जैसे फल चुन कर लाती थीं। रेणु दीदी मुझसे कहती हैं कि पहले का जीवन बहुत सादा और सरल था, कि सब्जियों और अनाज में मिलावट को लेकर कोई चिंता न थी। उनके लिए तो खाना जुटाने का आनंद इस रहस्य में हैं कि न जाने उन्हें क्या मिल जाए। जब हम लहसुआ जुटाने निकले, तो हम चौलाई और बथुआ जैसी जाड़े में उगती ढेर सारी पत्तेदार सब्जियाँ जुटाकर लौटे, जिनका इस्तेमाल रायता और परांठे बनाने के लिए भी किया जाता है। “कितना प्यारा बथुआ फाड़ा है,” उन्होंने कहा, जब मैंने उनसे पूछा कि लहसुआ के अलावा वह और क्या तोड़ रही थीं। यूँ खाना जुटाकर लाने और खुले में उसका साग तैयार करने से मुझे एहसास हुआ कि मेरी दादी की वे शिकायतें आखिर किसलिए थीं। औरतों के लिए खाना उसे पकाने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसके भावनाओं और संस्कृति से जुड़े मायने भी हैं। व्यावसायिक खेती का गढ़ बनते दादरी में, औरतें अपने पोते-पोतियों को लेकर चिंतित रहती हैं, जो मिलावटी सब्जियाँ खाने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके पास सब्जियाँ उगाने या जुटाने का समय और साधन नहीं हैं। भले ही यूँ तो यह मुश्किल हो गया है, पर वे लहसुआ जैसी पत्तेदार सब्जियाँ जुटाने की इस परंपरा को बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि ये सब्जियाँ सस्ती और पौष्टिक तो हैं हीं, ये दादरी के जमाने वाले जाड़े के मौसम का एक परम आरामदायक खाना यानी कम्फर्ट फूड भी हैं।

खाना जुटाने का यह अनुभव मेरे लिए यादगार और समझने-सीखने वाला रहा है। इस लेख में जान फूँकने और इसे यहाँ तक पहुँचाने के लिए, मैं शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ़ एमिनेंस से रेणु दीदी, महेश, और अनुराग भैया को शुक्रिया देना चाहूँगी। तस्वीरों को खींचा है मेरे साथी-सहपाठी स्याम सूर्या साई तेजा गुग्गीलपु ने।

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