खाना मेरे लिए, आत्मकथा है
वर्ष 3 | अंक 5 [सितम्बर 2023 ]

खाना मेरे लिए, आत्मकथा है <br>वर्ष 3 | अंक 5 [सितम्बर 2023 ]

खाना मेरे लिए, आत्मकथा है

मल्लिका साराभाई

वर्ष 3 | अंक 5 [सितम्बर 2023 ]

अनुवाद –वंदना राग

खाने के साथ मेरा, ताजीवन एक अनोखा सा रिश्ता रहा है। स्वाद, टेक्स्चर, रंग और गंध ने मिलकर मुझे खाने के प्रति या तो आकृष्ट किया है या विरक्त। मेरी ज़िंदगी में एक ऐसा वक़्त भी आया था जब खाना मेरे लिए दुख से पार पाने का एक ज़रिया हो गया था। कभी -जैसा मैं दिखने की इच्छा करती ,उस प्रयोजन में खाना  मेरा दुश्मन बन जाता, कभी जैसा- मैं सोचना चाहती, खाना उसमें मेरी मदद करता। वह मेरी शारीरिक और मानसिक बनावट का ईधन बन गया। वह जो मुझे अपनी ऊर्जस्वित नृत्य परंपरा के लिए पोषित करता।

पहले पहल, अन्य लोगों की तरह मैं भी इसलिए खाया करती क्योंकि मुझे भूख लगी होती और मेरे पास उसे शांत करने के उपाय नहीं होते।  लेकिन उन दिनों भी अगर मेरे पास पर्याप्त पानी होता तो मैं खाना छोड़कर कई गिलास पानी ही पीती। वह खाना जिसमें ढेर सारे मसाले और खूब सारा घी पड़ा होता है मुझे वितृष्णा से भर देते हैं और उसके उलट वो  खाने जो नैसर्गिक स्वादों के निकट होते हैं मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। यदि पेट बहुत भर जाता है तो मुझे अच्छा महसूस नहीं होता है। मैं थोड़ा कम खाकर, थोड़ी भूख बची रहने पर, ज़्यादा खुश महसूस करती हूँ।  कभी कभी सोचती हूँ इस तरह की पसंद मेरे भीतर आयी कहाँ से?

मेरे पिता विक्रम साराभाई एक जैन हिन्दू परिवार में बड़े हुए।उनके माता –पिता प्रगतिशील विचारों के थे।  उनके लिए मनुष्य का अंतिम लक्ष्य वैश्विक नागरिक की तरह सोचना और बनना था। उनका परिवार अंडा खानेवाला शाकाहारी परिवार था। मेरे दादा-दादी और उनके आठों बच्चे  खाना कहते वक़्त गुजराती पटलों पर बैठ जाते थे। वे पटले, पूजा पाठ  करने वाले पटलों जैसे ही थे। पटलों से थोड़े ऊंचे स्टूल जिन्हें बाजोत कहते थे लगा दिए जाते थे और उनपर चांदी की थाली, ग्लास  और कटोरियां रख दी जाती थीं जिनमें खाना परोसा जाता था। गरम, ताज़ी, पतली, घी लगी रोटियाँ, दो तीन प्रकार की सब्ज़ियाँ, किसी किस्म का फरसान, जैसे टिक्की, या पात्रा और  दाल- चावल। दाल की किस्म हर दिन अलग होती थी। रात में परिवार डाइनिंग टेबल पर बैठ ख़ाना खाते। टेबल पर छुरी, कांटा, चमम्च तो होता ही था साथ में सूप पीने वाला चम्मच और मीठा खाने वाला चम्मच भी होता। सूप से खाना शुरु होता। साथ में ब्रेड और मक्खन वाले रोल्स होते। बच्चे, पहले मक्खन वाली छुरी से मक्खन निकालते और खाने वाले चाकू से ब्रेड पर कौशल से मक्खन लगाना सीखते। वे कांटे छुरी से खाना भी सीखते। एक हाथ में छुरी और एक हाथ में कांटा कैसे रखा जाता है, ज़रूरत पड़ने पर कैसे उन दोनों को दायें से बाएं हाथ में ले लिया जाता है बच्चे यह सब भी सीखते।

मेरी माँ मृणालिनी साराभाई,  मद्रास जो अब चेन्नई कहलाता है –वहाँ बड़ी हुईं। उस तरह के परिवार के बीच जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ बिगुल बजा चुका था। मेरे तमिल ब्राह्मण ननिहाल में रहते हुए मेरे नाना ने समुद्र पार जाकर पढ़ाई की और ब्राह्मणों के बनाए अशुद्ध होने के विधान को भंग किया। उसके बाद उन्होंने  एक मलयाली नायर- 13 वर्षीय लड़की से शादी की जो माँस –मछली खाती थी। मेरी नानी ने यह शादी इस शर्त पर स्वीकार की, कि उन्हें पढ़ने  की सुविधा और आज़ादी  का वादा मिला। और मेरे नाना ने अपना वादा निभाया। नानी की शिक्षा में भाषा ज्ञान, गणित और विज्ञान तो था ही, उसके साथ –साथ घुड़सवारी, फिटन चलाना, टेनिस खेलना और ब्रिटिश एटिकेट भी  शामिल हुआ। फिर मेरे नाना ने मांसाहारी खान पान अपना लिया। यह ब्राह्मणों को धता बनाने का उनका अपना तरीका था। एक तरह का विद्रोह था यह । मेरी अम्मा चाव  से सिर्फ माँस मछली खाती थी। और सब्जियों में सिर्फ आलू। मेरी नानी प्लेट में परोसे गए सभी खाने की वस्तुओं को खत्म करने की हिमायती थी और इस मामले में वह  बड़ी कठोर थी।  लिहाज़ा मेरी अम्मा बहुत होशियारी से अपनी प्लेट में रखी सब्ज़ियों  को बट्लर के हाथों में पहुँचा देती जो चुपके से उसे डाइनिंग रूम से बाहर ले जाता। नानी , अम्मा के सब्ज़ियाँ नहीं खाने के नखरे पर बहुत गुस्सातीं और अम्मा को डांटते हुए कहतीं-“तुम सब्ज़ियाँ नहीं खाती हो। तुम्हें पाप लगेगा। तुम्हारी शादी ज़रूर एक शाकाहारी से होगी।“ और कमाल की बात है यह है  कि ऐसा ही हुआ!

मेरे माता-पिता की शादी 1942 में हुई और वे दोनों इंग्लैंड चले गए जहाँ मेरे पिता सैन्ट जॉन्स् कॉलेज कैंब्रिज में अपने पी एच डी का काम पूरा कर रहे थे। उन्ही दिनों विश्व युद्ध चल रहा था जिसकी वजह से राशन की कमी होने लगी। उन दिनों ब्रिटेन या किसी भी यूरोपीय देश में शाकाहारी होकर जीना बहुत मुश्किल था। युद्ध छिड़ने के बाद यह और मुश्किल हो गया। मेरे पिता मीट या फिश ना खाने की ज़िद पर अड़े हुए थे। मैंने उनसे अनेक कहानियाँ सुनी हैं जिसमें उस दौर का ज़िक्र था। कैसे उस दौर में अंडे बाज़ार से गायब हो चुके थे और सिर्फ ब्रेड या चावल खाकर रहना पड़ रहा था। पिता  टमाटर के सूप में ब्रेड भिगो कर खाते थे या चावल पर उंडेल कर दाल की जगह । पता नहीं अम्मा ने उस दौर में क्या किया होगा ? क्या वे उपलब्ध मीट या मछली अपने लिए बनाती रही होंगी या पिता का अनुगमन कर त्याग करती रही होंगी। फिर दोनों जल्द देश लौट आए।

अम्मा मद्रास के अपने घर में चटपटे , स्वादिष्ट खाने की आदी थीं। लेकिन अपने पति के घर में उन्हें सात्विक और सादा खाना मिला। लिहाज़ा दो ही महीने में उस दुबली औरत का वजन 20 पाउंड घट गया। अम्मा कड़वाहट से बताती थीं कैसे उनकी 5 ननदों में से 4 किसी भी सामूहिक  भ्रमण अथवा  यात्रा पर सड़क के जानवरों –गाय, भैंस या बकरी देख आनंद से पूछती थीं-“ क्यों ? क्या तुम्हें इसको खाने का मन कर रहा है?”

यह सौभाग्य ही था कि पिता और वह जल्द अपने घर में रहने लगे जहाँ उसकी अपनी रसोई थी। जहाँ अंडे पकने लगे। मीट और मछली लेकिन अभी भी उसकी रसोई में नहीं पक रहा था।  अम्मा जैसे –जैसे दुनिया घूमने लगी वैसे-वैसे वह दुनिया जहान के व्यंजन सीखने लगी और हमारे रसोइये –महाराज को उसके शाकाहारी विकल्प सिखलाने लगी। आर्मेनियाई समोसा,एनचिलाडास,चीज़ सूफ्ले उसकी डाइनिंग टेबल पर सजे होते थे। उस वक़्त मैं 2 या 3 साल की रही होंगी और टेबल की यह स्मृति मेरे मन में बसी हुई  है।

अम्मा को खाने में बहुत ज़्यादा रुचि नहीं थी लेकिन पिता को थी इसीलिए उनके हिसाब से ही दिन का मेन्यू तय होता था। पिता अपने वज़न को लेकर भी अत्यंत सजग थे। इसीलिए कैलोरीज़ का भी ध्यान रखना पड़ता था। दादा-दादी के घर की परंपरा की तरह ही उनके यहाँ भी दिन का खाना भारतीय होता था और रात का  गैर भारतीय। यह उनके व्यस्त कार्यक्षेत्र के अनुरूप भी था।  रात में हल्का खाना खाने के बाद पिता अपनी फिज़िकल रिसर्च लैब में काम करने चले जाते थे और अम्मा नाटकों का निर्देशन करने या रिहर्सल देखने दर्पणा तक, जो हमारे गार्डन के पार ही था।

मेरा भाई और मैं श्रेयास में पढ़ने गए जो एक मोंटेसरी स्कूल था। उसे मेरी बुआ लीना चलाती थी जो मेरे पिता की सबसे बड़ी बहन थी। स्कूल में दोपहर को खाना मिलता था जिससे मुझे वितृष्णा थी लेकिन मेरा भाई उसे मजे लेकर पूरा खा जाता था। पाँच वर्ष तक मेरी खाने की रूचियाँ और आदतें निर्धारित हो चुकीं थीं। ब्रेड और मक्खन, सभी चीजों के संग सफेद चीनी, आलू और चावल। इसीलिए स्कूल का तथाकथित स्वास्थ्यवर्धक खाना-ज़्यादा गली सब्ज़ियाँ और पनीली दाल मुझे दुखदायी लगता था। मैं अपनी जेब में चीनी का एक पैकेट रखती थी और उसे मौका मिलने पर हर खाने की चीज़ पर छिड़क देती थी। मैंने अपने हाथों को खाना छिपाने और फेंकने के लिए कुशलता से चलाना सीख लिया था। ठीक वैसे ही जैसे बचपन में अम्मा के बट्लर को करता हुआ देखा था। मैं हाथ में थाली थामे थामे ही खाना छिपा लेती थी और खाली थाली धोने चल देती थी।

उम्र के तेरहवें साल तक मैं  एक स्थूल लड़की हुआ करती थी। लेकिन अचानक ही  उसी समय मुझे एहसास हुआ कि मुझे छरहरा होना चाहिए। इस सिलसिले में अम्मा का परामर्श बेकार था क्योंकि अम्मा के ऊपर खाने पीने का वैसा असर पड़ता नहीं था। और वह खाना ज़्यादा खाती भी नहीं थी। दूसरी तरफ पिता अपने खाने के साथ पानी पीने और वर्जिश करने का संतुलन बनाए रखते थे।उन्होंने पहल की और मेरे स्वाद की कमज़ोरी को बदल दिया। एक साल के भीतर ही मैं अधिक स्वास्थ्यकर खाना खाने लगी और सुडौल दिखने लगी। मैंने खाने की कैलोरीज़ को मापना भी सीख लिया। उस वक़्त स्वास्थ्य बनाने से ज़्यादा, स्टाइलिश कपड़े मुझपर कैसे  जँचे –यह मेरी मुख्य चिंता बन गई थी। इसके बाद अगले 20 सालों तक मैंने कितने ही किस्म के डाइट प्लांस अपनाने की कोशिश की-खाली पेट रहने की, एक ग्लास कॉम्पलैन और एक संतरा खा दिन काटने की, खूब सारा एक ही बार खाने की, ब्यूलिमिया की और एक से एक सनकी तरीकों की। इनके बारे में विस्तार से मैंने अपनी किताब –इन फ्री फ़ाल : माई एक्सपेरीमेंट्स विथ लिविंग, में लिखा है।

वह तो जब मैंने नृत्य को गंभीरता से सार्वजनिक मंच पर प्रदर्शित करने का सोचा  तब लगा कि मुझे छरहरा होने से ज़्यादा स्वस्थ और फिट रहना है। मुझे कई दशक लग गए अपने शरीर की भाषा को समझने में। उसका आदर करने में और उसपर यकीन करने में।  वह क्या चाहता हैइसे समझने में।  कौन –कौन से खाने की जरूरत चाहिए उसे,  स्वास्थ्य एवं सौष्ठव बनाए रखने के लिए।

मैं अंडा खाने वाली शाकाहारी हूँ और मुझे किस्म किस्म के खाने का स्वाद आजमाने का शौक है। मुझे चीज़, ब्रेड , सलाद और वाइन बहुत पसंद है। लेकिन मैं खाना बनाना नहीं जानती । मैं बिलकुल भी सुघड़ नहीं। मेरे अंदर धीरज भी नहीं और जल्दी –जल्दी में चाकू से काटने के क्रम में मैं  खुद को अक्सर  घायल कर लेती हूँ। लेकिन  यह मेरा  सौभाग्य है  कि मेरे जीवन में रहने वाले पुरुषों को खूब अच्छा खाना पकाना आता है। मैं बर्तन धोकर उनकी मदद कर देती हूँ। और जब कभी कोई खाना पकाना वाला मेरे आसपास नहीं होता है, कहीं बाहर से कोई खाना लाना वाला या डीलिवीरी वाला नहीं मिलता है तो मैं अपने आप से कहती हूँ-चलो यह अच्छा मौका है सलाद और फल खाकर तृप्त होने का।

साल 1994 में अम्मा के जीवन का उत्सव मनाने के लिए हमने अहमदाबाद में पहला, प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए  भवन –नटरानी  बनाया और 1999 में आर्किटेक्ट गौडी से प्रेरित हो एक मुक्ताकाश कैफै भी बना ।कैफै, आम जन के लिए है। यह स्वादिष्ट, स्वास्थकर,जैविक खाना पेश करता है। इनके पास 10 खास चावल के व्यंजन हैं- जो इमली, धनिया, टमाटर और नींबू के सम्मिश्रण से तैयार होते हैं । उनके साथ वे  एक स्वादिष्ट, साइड डिश भी परोसते हैं। इसके अलावा, रायता  और चटनी भी होती है। यहाँ  कई किस्म के सैंडविच  भी मिलते हैं-  जिनमें सादे और ग्रिल्ड दोनों तरह के होते हैं । ज़ायकेदार अंडे के व्यंजन और किस्म –किस्म का पास्ता भी यहाँ मिलता हैं। मैंने हाल ही में एक सलाद सीरीज़ भी तैयार की है जो जल्द मिलना शुरु हो जाएगी।यह कैफै उन चंद जगहों में से एक है जहाँ कोई रोक टोक  नहीं होती है , इसलिए जोड़े यहाँ आकर घंटों बैठ सकते हैं। और बारिशों के बाद जब हमारा सीजन शुरु होता है तो आपको अपने बराबर की टेबल पर कभी वरुण ग्रोवेर दिख जाएंगे , तो कभी रेखा भारद्वाज तो  कभी कथकली की कोई पूरी टीम ।

अनेक सालों तक मैंने नृत्य और पर्यावरणीय चेतना पर बात की है। लेकिन 1996 में मैंने सोचा कि मुझे जैविक खेती करनी चाहिए। पानी के बिना, बिजली के बिना और रासायनिक खाद के भी बिना। मैंने ज़मीन के टुकड़े की तलाश की। मुझे इतना खराब टुकड़ा मिला कि  क्या बताऊँ? गांधीनगर से थोड़ी दूर पर मुझे किसानों का एक गाँव मिला जहां के किसानों ने खेती बंद कर रखी थी। मैंने अपना प्रयोग बिना किसी विशेषज्ञ की सहायता के शुरु कर दिया। और हमें वहीं पानी मिल गया।  और प्रायोगिक खेती के पहले 3 सालों तक मैंने प्रोटीन से भरी दाल और बीन्स उगाईं और वापस उन्हें जमीन में रोप दिया। आज यह जमीन 750 किलो के लगभग जैविक गेहूँ, मूंग और बाजरा उपजाती है। जब मैं लोगों को खाने पर निमंत्रित करती हूँ तो आज भी खाना कैफै से आता जिसे मैं अम्मा की रसोई मानती हूँ।  दर्पणा में उत्सव का मतलब–दाल वड़े और हरी मिर्च ही होता है, केक नहीं। हम कैन्डल्स को दाल वड़ों के ढेर में लगा देते हैं और उत्सव मना लेते हैं।

अपने अनेक अन्तर्देशीय दौरों में मैं बहुत  सारे उत्साही भारतीयों के घर निमंत्रित होती आयी हूँ। वे आगे बढ़ बढ़ कर मुझे घर का खाना खिलाने की गुज़ारिश करते हैं। मैं उससे बहुत घबराती हूँ। क्योंकि जब मैं यात्रा पर जाती हूँ तो मुझे वहाँ के स्थानीय खाने को खाने का मन करता है। जब मैं नाइजीरिया में होती हूँ तो मैं वहाँ के तले हुए केले लाल मिर्च के तीखे सॉस के साथ खाने को ललकती हूँ। जापान में स्थानीय मंदिरों में जाना चाहती हूँ और उनकी अद्भुत ज़ेन पाककला का आनंद उठाना चाहती हूँ। लेकिन अगर मैं किसी डाईस्पोरा भारतीय के घर  जाती हूँ तो मुझे पनीर से समझौता करना पड़ता है। मैं आज भी सीख रही हूँ कि मैं कैसे अपने प्यारे मेजबानों से गुज़ारिश कर सकूँ-प्लीज मेरे लिए सादे दाल चावल का इंतज़ाम कीजिए या अस्पैरगस सब्जी का। ये मुझे ज़्यादा संतुष्टि देंगे।

यह 2012 की बात है जब खाने में मेरी रुचि ने मुझे पैक्ड खाने पर शोध करने को प्रेरित किया। मैंने पाया उसमें खाने के नाम पर सिर्फ कूड़ा भरा होता है। मैंने एक डाक्यूमेंट्री, पब्लिक सर्विस ब्रॉड्कास्टिंग के लिए बनाई-लेट्स टॉक अबाउट फूड। उसमें मैंने खाना विशेषज्ञों के साथ खाने के पौष्टिक तत्वों, कृषि, स्वास्थ्य,पर्यावरणविदों की  बातचीत और जैविक कृषि क्षेत्रों और खाने की शोध शालाओं का दौरा दिखलाया। यह फिल्म पी एस बी टी की वेबसाईट पर उपलब्ध है। यह अपने तथ्यों से हमें परेशान कर सकती है। उस वक़्त ही जब सब इतना कूड़ा था तो आज की  स्थितियाँ कितनी बदतर हो गयीं होंगी  इसका अनुमान लगाया जा सकता है । हम पैक्ड फूड के नाम पर विषाक्त खाना ही खा रहे हैं।

पिछले दो दशकों से मैं अपने आप को एक पंद्रह दिवसीय आयुर्वेदिक उपचार के हवाले कर देती हूँ। उस उपचार में स्वच्छ और पुनर्नवा होना  निहित है। मैं उन दिनों वीगन  हो जाती हूँ या 5 से 7 दिन के उपवास पर चली जाती हूँ। जिस दौरान मैं सिर्फ सब्ज़ियों का सूप लेती हूँ या फलों का रस या सिर्फ शुद्ध नारियल पानी। यह करिश्माई है कि उन दिनों कैसे मेरी त्वचा साफ हो जाती है, आँखों में चमक बढ़ जाती है और मुझे बहुत ऊर्जावान महसूस होने लगता है। शरीर के दर्द भी गायब हो जाते हैं जिनके लिए विशेष उपचार भी निहित  होता है।

आज मेरे शरीर और खाने के बीच  अच्छा संबंध कायम हो चुका है। मुझे पता है मेरे शरीर को क्या अच्छा लगता है। मेरी ज़ुबान किस स्वाद को तलाशती है। मैं जानती हूँ जब जो मैं खाती हूँ, वह मेरे लिए कितना खराब है और मैं अच्छे और खराब के बीच संतुलन कायम करने की कोशिश करती हूँ। मैं अब कुछ खाने या एक दो गिलास ज़्यादा शराब पीने पर अपराधबोध से नहीं भर जाती हूँ। मैं उसे अगले दिन ठीक कर लेती हूँ। हमारा पर्यावरण, हमारा खाना, और हमारा शरीर सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें उन्हे सूत्रबद्ध कर संतुलित करना ज़रूरी होता है। और यदि संतुलन सध जाता है तो बहुत  तृप्ति महसूस होती है। मैं उसी तृप्ति को पाने की राह पर हूँ।

2 Comments

  1. A candid write up coming straight from the heart of Mallika Sarabhai. Whatever she has written holds water for the current generation particularly about the junk food. The sooner we fall back on the nutritious meal, the better as the secret of our sound health passes through our mouth. Being a globe trotter, Ms. Sarabhai must have relished the delicacies from across the world. Still, she extols the rejuvenating impact of fasting. It is essentially the same- satisfying, nourishing and recuperative. My humble compliments for such a thought provoking subjective yet objective presentation.

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