60 और 70 के दशक में मद्रास की गर्मियों को पचाना
Volume 4 | Issue 1 [May 2024]

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60 और 70 के दशक में मद्रास की गर्मियों को पचाना

—करपागम राजगोपाल

Volume 4 | Issue 1 [May 2024]

लेखन और चित्र – करपागम राजगोपाल

अनुवाद – वंदना राग

नारियल के पेड़ हमेशा इशारा कर देते थे, बशर्ते आप ध्यान दें। दमघोंटू और जड़ कर देने वाली मद्रास की दोपहरें निरंतर काँव काँव करने वाले कव्वों और सरसराती हवा को भी चुप कराने का माद्दा रखते थे। लेकिन लगभग 3  और 4 बजे के आसपास कुछ क्षणों के लिए आप ताड़ के पत्तों को उदासीन भाव से हिलता डुलता देख सकते थे। आप इसी का इंतजार करते रहते थे, यही वह प्रामाणिक संकेत हुआ करता था जो बताता था कि अब समुद्री हवा बहने लगी है और यही राहत लेकर आएगी। वरना तो शहर  को दिन भर के इंतज़ार के बाद अपनी पूरी गर्मी को संध्या आकाश में प्रवाहित करना होगा।

यह 1960 और 70 के प्रारम्भिक वर्षों का दशक था। मरीना बीच  के दक्षिणी छोर पर महात्मा गांधी की मूर्ति हुआ करती थी जिसके इर्द गिर्द एक फव्वारा था। वहीं ट्राफिक सिग्नल भी था और फव्वारे  को कमल  फूल की शक्ल में ढाला गया था। बीच के उस पार सादी सी ऑल  इंडिया रेडियो बिल्डिंग थी और उसी के नज़दीक पुलिस मुख्यालय का विशाल मैदान । बीच के सामने नियत दूरी बनाते हुए अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विभूतियों की मूर्तियाँ स्थापित की गईं थीं और बीच  के  अंतिम  उत्तरी छोर पर “मजदूरों की जय” नामक मूर्ति थी। कुछ वर्षों बाद राजनीतिज्ञ सी. एन.  अन्नादुराई  के अंतिम संस्कार उपरांत इस जगह पर एक लाइट हाउस निर्मित हुआ और क्षेत्र के उत्तरी और दक्षिणी छोर की पहचान नए दृष्टिकोण से बन गयी।

उन दिनों आप जब भी सोकर उठते थे तो  ऐसा लगता था, सूरज आपके स्नायुगुच्छ पर मुक्के बरसा रहा है। शावर लेने से पहले और शावर लेने के बाद भी, आप समान रूप से चिपचिपी नमी से भरे रहते थे और जब तक कि आप खाली मोज़ैक की फर्श पर नहीं लेटते तो एक मामूली झपकी लेना भी  संभव नहीं था।

प्रत्येक वर्ष उत्तर भारत में रहने वाले  हमारे परिवार के सदस्य गर्मियों में मिलने आते। लेकिन वे जब नहीं भी आते थे तो मेरे दादा-दादी, जो इस विशाल घर में मेरे माता –पिता के साथ रहते  थे अक्सर चाचा चाची एवं हर रिश्ते  के कज़िन्स के साथ यहीं, खूब समय बिताया करते थे। हमारी रसोई शायद ही कभी बंद होती थी। हर वक्त कुछ न कुछ पकता ही रहता था। मेरे दादा दादी के पूजा पाठ वाले और वर्जित खानों की वजह से भी यह होता था।

इधर हम भाई बहनों की ऊर्जा शाम 5 बजे तक विस्फोटक होने की कगार पर होती थी  लिहाज़ा  हमें घर के पास स्थित मरीना बीच  पर ले जाया जाता था । यह सैर हमें गर्मी से निजात दिलाने का एक तरीका तो था ही , साथ ही यह बड़े लोगों को राहत देने का एक तरीका भी था। अब यह विचार मेरे मन में आता है।

दिन के अनुसार और वयस्कों की निगरानी में हम बच्चों को सड़क पर स्नैक्स बेचने वाले ठेले वालों से खरीदने की छूट मिलती थी। वह स्वाद हमेशा ही एल फ्रेस्को के खाने के स्वाद से बेहतर होता था। उन खानों में  रेत का किरकिरापन शामिल होता था और पृष्ठभूमि में लहरों की निरंतर बुदबुदाहट चलती रहती थी। और जो कभी मेरी दादी साथ आ जातीं तो उस दिन हमें इतनी ज़्यादा खाने की चीजें मिलतीं कि बयान नहीं किया जा सकता है । सब उन्ही ठेले वालों से, जिनके खाने की गुणवत्ता की पहले से ही तसदीक कर ली गयी थी।

हमेशा कुछ ठेले वाले ऐसे होते थे जो अपनी चार पहियों की धातु गाड़ी पर बनाए 2 x 4 के प्लेटफॉर्म पर काम करते थे। एक बेचने वाला हमेशा हमारा बिज़नेस पाता था। वह एक मोटा तगड़ा आदमी था जो ऐसी रोशन मुस्कुराहट हमपर उछालता था मानो लाइटहाउस की रोशनी फेंक रहा हो। हम उसे गुंडन  कहा करते थे जिसका मतलब तगड़ा आदमी था। जब मैं आज याद करती हूँ कि वह कितनी सारी चीजें एक किरोसिन चूल्हे की मदद से उस प्लेटफॉर्म पर रख बनाता था तो उसके कौशल कि कायल हो जाती हूँ। पकाने के पहले कि उसकी तैयारी भी गजब की थी।  चूंकि उस दौर में सड़क पर ठेला लगाना मना  था तो सोचती हूँ उस रेतीली बीच पर वह अपना ठेला कैसे ले जाता होगा… कितनी मेहनत लगती होगी ठेला खींचने में । कितने अचंभे की बात है यह !

किलीमुक्कु (तोते की चोंच) तोतापरी आम अपनी संरचना की वजह से यह नाम पाते हैं। उनके एक सिरे पर चोंच जैसी आकृति होती है। कच्चे आमों को  पतले लंबे टुकड़ों में काट कर नमक और मिर्च में सान कर कागज़  या अखबार के टुकड़ों पर बेचा जाता था। उसे खाने पर कुरकुरा, खट्टा,नमकीन और तीखा स्वाद एक साथ महसूस होता था। एक –एक टुकड़े का धीरे धीरे स्वाद लिया जाता था लेकिन कई बार लालच से भर एक पूरे टुकड़े को मोड़कर गपाक से मुंह में रख लिया जाता था। दरअसल  यह स्वाद का सस्ता विकल्प था और आसानी से उपलब्ध हो जाता था। इसी के समान छिली हुई मूँगफलियों की कहानी थी। उन्हें रेत से भरी लोहे कड़ाही में देर तक भूना जाता था।छलनी से उठाने पर रेत उसमें से छन जाती थी और रिसाइकल्ड कागज़ के टुकड़े पर गरम, सिंकी हुई मूँगफलियाँ  ग्राहकों को पेश कर दी जाती थीं।

कुछ छोटे लड़के जो इस प्रकार के कामों में अपने माँ बाप का हाथ बँटाते थे, सर पर हैन्डल वाले धातु के बड़े बड़े बर्तन रख कर चिल्लाते चलते थे,- थेंगा माँगा पत्तानि सुंदल।  सुंदल या चुंदल अत्यंत स्वादिष्ट डिश है। यह लो फैट ,हाई प्रोटीन है और नाश्ते के लिए बहुत उपयुक्त है। इसे पेपर कोन में पेश किया जाता है। इसमें पानी  में फुलाई गयी दाल को राई ,किसे नारियल,करी पत्ता,नमक , हींग और कच्चे कटे हुए आम के तड़के के साथ बनाया जाता है। यह डिश हमेशा बहुत ही मज़ेदार होती थी । इसके परिपूर्ण आस्वाद का मुकाबला थत्ताइस  और मुररुक्कू ही कर सकते थे।  ये लड़के उन्हें भी  बेचा करते थे।मुररुक्कू जिसका तमिल में अर्थ मुड़ा हुआ या वक्रिय होता है, कुरकुरा, तला हुआ, गोल गोल रस्सियों की शक्ल का फरसान होता है जो चावल के आटे में जीरे के तड़के के साथ गूँथ कर गोल गोल आकार में तला जाता है।

हमारे परिवार के कुछ सदस्य बंबई में रहते थे और चौपाटी बीच पर मिलने वाले मशहूर खानों को चखने के लिए हमें अक्सर न्योता दिया करते थे। बंबई की भागदौड़ के मुकाबले मद्रास अभी भी बहुत शांत था और कुछ ही दूर गाड़ी से जाने पर हमें वही सब मनमोहक खाने की चीजें मिल जातीं जो बंबई के सफर पर मिलतीं।

उन लोगों के लिए जिनके नजदीकी चौराहे की दुकान पर, डलियों पर चिवड़े के पहाड़, भुने चने  और मूँगफलियाँ मिलती रहीं हो ये खाने अद्भुत लगते थे। इनका खिंचाव ज़बरदस्त होता था। भेलपूरी  जैसे आइटम, हमारी जीभ को नए प्रतीत होते थे। उनका आस्वाद अनूठा था; चिवड़े में पुदीने की चटनी और इमली  के पानी का समावेश, उबले आलू, ताजे कटे प्याज़ के टुकड़े, धनिया के पत्ते , टमाटर के रसीले छोटे टुकड़े (जो इस मिश्रण को नया टेक्स्चर देते थे), कुरकुरे सेव, और पानी पूरी के सूखे टुकड़ों  को मिलाकर बनाया गया यह मिश्रण धोन्नई  में पेश किया जाता था। धोन्नई  वह चमत्कारी कप था जिसे नीलकमल की सूखी पत्तियों और नारियल गाछ की पतली डंडियों से जोड़कर बनाया जाता था। उंगलियों से  भेलपूरी उठा –उठाकर खाने के बाद यह प्राकृतिक कप बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की चिंता के,  फेंका जा सकता था, जो हम करते थे  और देर तक अपनी उंगलियों को चाटते हुए उस स्वादिष्ट गंध को अपने भीतर करते रहते थे।

एक अन्य रससंवेदी आनंद, पानी पूरी  था जिसको खाने में हम अस्तव्यस्त हो जाते थे लेकिन इसका कभी मलाल नहीं होता था। इसको सफाई से खाना एक चुनौती होती थी – एक खेल भी  जिसमें कौशल, गति  और क्षण के आनंद का खास ख्याल रखना होता था । बेचने वाला ,बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग की सूक्ष्मता से पूरियों को फोड़ कर उसमें उबले आलू , अंकुरित मूंग,गाढ़ी मीठी  इमली चटनी  और तीखा मसालेदार चटपटा पानी डालकर खनेवाले के सम्मुख रख देता था जिसे तीव्र गति से खाने वाले को अपनी जीभ तक पहुंचाना होता था। इसके बाद  भरे मुंह में एक साथ स्वाद को विस्फोट होता था और सारी स्वाद ग्रंथियां  उस अप्रतिम स्वाद से नहा जाती थीं । इसके साथ ही यह खाना एक सिम्फनी के आरोह की तरह बहुत ऊंचा पहुँच जाता था और थमने के बजाय  फिर दूसरे, तीसरे और फिर….  तब तक जब तक मनुष्य के लिए संभव हो,  यह आरोह बना रहता था। वैसे क्या कोई मनुष्य इस तरह के आनंद को बस एक पानी पूरी  तक सीमित रख सकता है ?

शिष्टाचार बरत कर खाने वाले को नैपकिन, बिब उपलब्ध नहीं होने पर आलू टिक्की  खाना सुविधाजनक लगता था। ये आलू टिक्कियाँ आलू की पैटी होती थीं, डिस्क जैसी। इन्हें लोहे के तवे पर रगड़ा –सफेद उबले मसालों में पकाये मटर के साथ तल कर पेश किया जाता था। जिसके ऊपर खट्टी मीठी इमली चटनी और ताजे धनिये के पत्ते छिड़के जाते थे। यह  दुलार से भरा खाना लगता था, खासतौर से उन लोगों के लिए जिन्हे अपने पेट को किसी साहसिक यात्रा पर ले जाने का मन नहीं करता था। दिखने में भी यह डिश मनोहारी थी-सूर्य की रोशनी वाले पीले सी पीली टिक्की,गाढ़ी भूरी इमली की चटनी और टटका हरा धनिया पत्ता जो हरे भरे लैंडस्केप का प्रतिबिंब लगता था ।

यदि इन खानों से किसी को  इच्छानुसार कार्बोहाइड्रैटस् पर्याप्त रूप से नहीं मिल पाता  तो ऐसे लोगों के लिए पाव भाजी  थी ।बीच से काटे गए सफेद बन ब्रेड,जिन्हे मक्खन के थपेड़ों में सेंका जाता था और मसालेदार भाजी के साथ पेश किया जाता था। भाजी के लिए उबली हुई मिश्रित  सब्जियां  विनम्रता से खड़ी रहती थीं  और जब उन्हें निमंत्रण मिलता था तब उन्हें बराबरी से काट कर विशाल तवे पर तैरते रस में उँड़ेल दिया जाता था। मक्खन में सना हुआ बन, तब उन सब्जियों के लिए पुख्ता इमारत हो जाता था। फिर इस सम्मिश्रण को ताज़े कटे प्याज़ ,धनिया पत्ता और नींबू के रस से संवारा जाता था। यह खुली खुली हुई सैंडविच जिसमें तीन खंड हुआ करते थे अनेक भावनाओं को जन्म देती थी। जहां हर एक गस्से में अपराध बोध से भरा कार्ब और वसा शामिल थे वहीं विशुद्ध पोषण  और कुटी सलाद का मज़ा भी था।

इसके बाद  कुछ ही चीजें ऐसी थीं जो चाट वाले ठेले की सुवासित गंधों के आकर्षण का मुकाबला कर सकती थीं। एक चीज जो उसके बहुत नज़दीक थी वह थी,- मोलागा बज्जी।  यह हरी मिर्चों को बेसन में लपेट कर ताली जाने वाली डिश थी।  और गजब की बात थी कि ये  मिर्चें अपने तीखेपन से  खाने वाले पर हमला नहीं  करती थीं। दरअसल ये मिर्चें आम हरी मिर्चों से अलग थीं। इनका रंग शिमला मिर्च से हल्का हरा था  और  ये नोकदार हरी मिर्चों की तरह तीखी नहीं थीं जो हमारी रसोई में रोज़ अपनी करामात दिखलाती थीं। ये  वाली हरी मिर्चें 6-9 इंच लंबी होती थीं और इनमें  एक नाव जैसा कर्व होता था। जब उन्हें बेसन  में डुबोया जाता था तब ऐसा लगता था, वे अपने समुद्री पड़ोस की तरह ही धीरे –धीरे डूब उतरा रही हों। उन्हें फिर बड़े इसरार के साथ बार बार तेल में डुबोया जाता था तब तक, जब तक कि वे पूरी सिंक कर सुनहरी न हो जाएँ।  पेश करने से पहले मिर्चों के अतिरिक्त तेल को चुआ दिया जाता था फिर उसे एक कागज़ के टुकड़े पर ग्राहक को खाने के लिए दिया जाता था। जब उस बज्जी   को उसकी डंडी से पकड़ हम पहला टुकड़ा काटते थे तो भाप उड़ने लगती थी और मन होता था पूरी मिर्च  एक साथ गरम गरम ही मुंह में ठूंस लें कहीं ये ठंडी ना  हो जाए। फिर सबकुछ के अंत में मिर्चों की  डंडी  बची रहती थी और आश्चर्य  से भरा एक क्षण भी  ,-कैसे हमारे हाथों ने इस तरह का करिश्मा किया कि  हाथों में एक अकेली डंडी बची रही, बस! करीब आधा दर्जन, बज्जीयों  की जलती हुई गर्मी और तीखेपन से लड़ते हुए हमें कोयलों की मध्यम आंच दिखती थी, जिसमें से उठती हल्की चिंगारियाँ गोधूलि बेला की छिटकी रोशनी मालूम देती थीं। उसके पीछे चलते हुए हम भुट्टे  वाले के पास पहुँच जाते थे जैसे गोधूलि बेला की रोशनी में लोग घर लौटते हैं। भुट्टे वाले के पास भुट्टे भुनने को तैयार रहते । उनके खोल को पीछे की ओर खींच दिया जाता था , ठीक  कौमेट (comet)  की पूंछ की तरह और फिर  उन्हें  लोहे के चूल्हे पर दहकते अंगारों के बिस्तर पर लिटा दिया जाता। भुट्टे के दाने चुपचाप तड़कते  मानो अपने मालिक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे हों और फिर  बहुत उत्कृष्टता से भुनते चले जाते। फिर  एक टुकड़ा नींबू का रस और नमक, मिर्च पाउडर का मिश्रण  उस भुने हुए भुट्टे पर रगड़ दिया जाता और उसे  एक झटके के साथ खाने वाले के हाथ में दे दिया जाता। यह  एक शानदार प्रदर्शन होता और खाने वाले को पहले ग्रास में इसका महत्व समझ में आ जाता। फिर वह तब तक नहीं रुकता जब तक पूरे भुट्टे से दाने साफ नहीं कर लेता।

इस तरह रात का खाना पूरा हो जाता। फिर और बारी मीठे की आती ,ज़्यादातर वह क्वालिटी आइस क्रीम  ठेले पर पूर्ण होती। वहाँ  वनीला , स्ट्रॉबेरी और टूट्टीफ्रूटी फ्लेवर मिलते। हर आइस क्रीम एक कार्डबोर्ड कप में मिलती,जिसमें एक लकड़ी का चम्मच होता, और कार्डबोर्ड का ढक्कन और खोलने के लिए एक सिरा। कप उन उन लोगों के लिए थे जो त्वरित गति से पिघलती आइस क्रीम को  गिरने से रोक नहीं पाते और आइसक्रीम खत्म होने पर कप को उलट कर बच हुआ रस पी जाते। जो जल्दी से खा पाते वे चपटी  लकड़ी की डंडी पर जमाई आइसक्रीम खाते- जो किसी फल के फ्लेवर की होती  या और विशिष्ट, जैसे चौकोबार =वनीला को चॉकलेट में लपेट कर बनाई गयी अद्भुत आइसक्रीम । यदि हम  बार खा रहे होते थे तो यह निश्चित था कि आइसक्रीम कुहनियों से नीचे तक चूना शुरू हो जाएगी। ऐसा भी होता था कि पूरी की पूरी आइसक्रीम डंडी से नीचे ढलक जाती और रेत पर गिर जाती। और उसे उठाने के प्रयास  घनघोर असफलता में बदल जाते।

यही सब सौगातें हमें तब तक मिलीं जब तक की नी प्लस अल्ट्रा  नहीं आ गया। कुछ सालों बाद ड्यूएट आयी –रास्पबेरी और मैंगो फ्लेवर की। यह आइस लौली  थी।  ऐसी आइस लौली जिसके अंदर क्रीम भरी होती है।  यह गौर करने वाली बात है कि ये सभी फ्लेवर्स ऐसे लोगों के लिए थे जिन्होंने अपने जीवन में कभी स्ट्राबेररी या रास्पबेरी का स्वाद नहीं जाना था। लेकिन क्या इससे कोई फर्क पड़ता था उन दिनों ? कत्तई  नहीं।  बस हमारे लिए तो यह एक यादगार तरीका था किसी भी खाने की इति करने को।

अगर किसी कारण से आइसक्रीम का ठेला बीच पर नहीं होता तो भी हमारे पास मीठे के  3 विकल्प होते  घर पहुँचने के बाद।  शानदार पावलोवीयन  तरीके से दो तो हमारे घर  घंटी बजाने पर ही हाजिर हो जाते।

पहला था बुहारी की आइसक्रीम  जो ट्राइ साइकिल पर आती। शाम को बर्फ और नमक एक चौकोर बक्से में रख वह आइसक्रीम ले आता। आइसक्रीम इससे नहीं पिघलती। अगर हम किस्मत वाले होते तो उस डब्बे के अंदर एल्युमिनियम के छोटे टिन उछल कूद मचा रहे होते। उनपर ढक्कन कसे रहते। उनके अंदर कुल्फी होती। जो विशिष्ट भारतीय आइसक्रीम होती। वह देर तक उबाले गए  दूध और शक्कर से बनी होती। उसमें मेवे डले होते , खासतौर से पिस्ते और छोटी इलायची। बेचने वाला उस टिन के ट्यूब को खोलता और कुल्फी कोन को जलकमल  के पत्तों पर लंबे आकारों और 3 छोटे आकारों में काट कर हमारे सामने पेश करता। उसके बाद 8 जन्नत के टुकड़े ललचाये मुँहों में ठूंस लिए जाते और  लगता जैसे गरम चिपचिपी रात से पहले हमें  कुछ ठंडक मिल गई हो।

यदि बुहारी, जो बुहारी की आइसक्रीम बुहारी की आइसक्रीम चिल्लाते हुए किसी दिन  हमें नज़र नहीं  आता तो भी कुछ नहीं बिगड़ता। एक दूसरा ठेला,जिसकी घंटी विलाप के सुर में गाती थी, जिसपर  एक कांच का मर्तबान चमकता था, एक तूफ़ानी लालटेन टिमटिमाता था और वह सड़क पर प्रेत छायाएं बनाता चलता था हमें मिल जाता था । वह सोन पापड़ी बेचने वाला ठेला था। सोन पापड़ी-क्रीम रंग की,  पाउडर सरीखी झड़ने वाली गरिष्ठ मिठाई  होती है जो ईरानी और तुर्की मिठाइयों के करीब है। इसे बेसन,चीनी,बादाम और घी से बनाया जाता है। जब  बेचने वाला एक चिमटे से इन मिठाइयों को कांच के मर्तबान से निकालता था  तो लगता था  कि वह इस प्यारी रोशनी का एक हिस्सा हमसे बाँट रहा है । वह एक कसे हुए कागज़ के कोन में मिठाई पेश करता था।  कोन उसी समय इस कुशलता से बनाता था कि मिठाई का कोई भी हिस्सा ज़ाया न हो।  हम कोन के अंतिम छोर तक पहुँच बची हुई मिठाई खा लें।  और यदि कभी किसी हिस्से तक हम नही पहुँच पाते तो यह सुविधा थी कि हम कागज़ को खोल कर मिठाई के अवशेष को  भी उदरस्थ कर लें।

जब बीच का विकल्प नहीं होता था तो ताल खजूर  का ठेला हमें राहत दे देता था। कुछ नहीं से कुछ तो मिलता था !आइस पाम , या ताड़ का ठंडा फल जिसे तमिल में नोंगू  कहा जाता है, कोमल नारियल सा  मखमली स्वाद वाला फल होता है जो कुछ कुछ लीची से मिलता है। यह एकदम उत्कृष्ट शीतलक (कूलेन्ट) होता है।

इलानीर, जिसे डाब कहते हैं दूसरा शीतलक होता था।  जब उसके रस को हम पी जाते तो बेचने वाला  उस फल को आधे  में काट बड़े  से हंसिया उसके अंदर के कच्चे नारियल फल के गूदे को हमें खाने के लिए दे देता। कुछ लोगों को ज़्यादा कड़ा , कचकचा फल अच्छा लगता लेकिन हम लोगों के लिए जन्नत वह  नरम, दूधिया  जेली  ही होती थी।

इसके अलावा हमेशा से आश्वस्तकारी, हमेशा ही उपलब्ध रहने वाला फल तरबूज  था। मेरे पिता तरबूज के ऊपरी हिस्से में एक गड्ढा करते थे । इतना बड़ा  कि उसमें मथनी डाल दी जाए। इसके बाद वे उस गुलाबी लाल गूदे को मथ कर  गाढ़े जूस में बदल देते , जिसे एक बड़े बाउल  में रख दिया जाता। फिर थोड़ा नमक, काली मिर्च,और नींबू का रस उसमें मिलाकर,  उस जूस को लंबे गिलासों में पेश किया जाता।

इसी तरह आम  एक दूसरा मौसमी फल था जो आनंद से भर देता था। हमें  पके हुए बैगनफल्ली आमों का दोपहर के खाने के बाद बेसब्री से इंतज़ार रहता। उनके छिलके बहुत पतले होते और गूदा बहुत मीठा और पीला। उसमें दांतों के बीच फंस कर तंग करने वाले रेशे भी नहीं के बराबर होते । इसके अलावा, मालगोवा ,रूमानी और नीलम  दक्षिण में मिलने वाले आमों में से अच्छे थे। रूमानी कभी कभी अपने खट्टेपन से धोखा दे देते थे भले ही ऊपर से बिल्कुल पीले सूर्य की रोशनी से चमकदार दिखाई पड़ें। मालगोवा की गुठली छोटी होती थी और उनमें आश्चर्यजनक रूप से शहद अथवा कैरामल  का स्वाद आता। और नीलम तो इतना मीठा होता था कि उसके अंदर से अक्सर कीड़े निकल आते भले  ही ऊपर से वह सुंदर  और सुडौल दिखाई पड़ता।

घर की महिलायें जब  रसोई के काम से फारिग हो दोपहर को झपकी लेने चल देतीं, उस पंखे के नीचे जो पूरी कोशिश करता कि अपना काम ठीक से करे, उसी वक्त  धूप में मलमल के कपड़ों और प्लास्टिक शीट पर सुखाने के लिए रखे चावल और साबूदाना के वड़ों  की रक्षा के लिए मुझे बतौर सिपाही तैनात कर दिया जाता।  यह ज़रूरी था कि वड़ों  का घोल, भोर में तैयार कर सूखने के लिए रख दिया जाता जिससे उन्हें सूखने का पर्याप्त मौका मिले।  यह  वड़े  कुछ दिन सूखने के लिए लेते। जब उनमें नमी नहीं बचती तो  उन्हें कपड़े और शीट से अलग कर लिया जाता है और स्टील के डब्बों में भर दिया जाता था। लेकिन इस प्रक्रिया से पहले उन्हें इधर उधर, तबाही मचाती गायों , निंजा गिलहरियों  और बच्चों से बचाना पड़ता जो कच्ची –पक्की कोई भी स्वादिष्ट चीज पर हाथ साफ करने से बाज नहीं आते थे।

वड़ों में बहुत कम पदार्थ लगता है;  कार्ब-जो चावल के आटे  या साबूदाने से मिलता है, नमक, हींग  (पाचन बढ़ाने के लिए) ,मिर्चें, (तीखेपन के लिए),और छाछ जिससे वे चिपके नहीं और उनका रंग सुंदर हो। असली जादू तो तब होता था जब उन्हें सूखने के लिए रखा जाता था। गोलाकार वड़ों का बाहरी हिस्सा जल्दी सूख जाता था लेकिन बीच के हिस्से में कई दिनों तक लसलसापन बना रहता और वे  नरम और गुलगुले बने रहते । इतने सारे टेक्स्चर्स को देख मैं हमेशा सोचती कि इसके अंतिम रूप को हम तेल में तला हुआ जैसा ही क्यों देखते  हैं ? क्यूँ नहीं हम उसके उस अंजाम तक पहुँचने के पहले ही, उसके  सूखते वक्त ही, उसे  चर जाते हैं?

वड़ों की सुरक्षा करने के लिए ,मैं पिछली सीढ़ियों में बैठ जाती । कड़कती धूप फर्श पर गिरती। फर्श चमकता और मैं हाथ में एक बांस का डंडा लिए कीड़े मकोड़ों , चिड़िया भगाती रहती । धूप मेरी आँखों में नीली नीली गोलाइयों में किरचती। मैं अपनी तरफ से अपना काम हल्का करने की कोशिश करती और वड़ों को दो बराबर की पंक्तियों में सजाती। यदि कोई वड़ा अपने स्थान से हिल जाता तो मैं तय कर लेती वह मेरे द्वारा  खाए जाने  के लिए ही हिला है। मेरी मंशा और चोरी किसी भी तरह छिपाई जा नहीं सकती थी, क्योंकि जहां से वड़ा हिला होता था उस जगह उसके लसलसे निशान छूट गए होते और बेचारे गायब हो गए शिकार की कहानी कहते।

रात गहराती  फिर भी हमें  सज़ा देने वाली गर्मी से निजात नहीं मिलती। तब हम जल्दी से एक छोटी सी सैर पर कालाथी स्टोरस्  तक  निकल जाते। यह एक छोटी सी दुकान थी, जिसमें देखने लायक कुछ नहीं था और जहां ग्राहकों  की देर तक भरमार रहती थी। वह इसलिए की कालाथी स्टोरस्  एक प्रकार का  ठंडा रोज़ मिल्क (गुलाब के मीठे अर्क वाला दूध ) बेचता था। उसका रंग बेहद खूबसूरत, गुलाबी था और मिठास एकदम सटीक। उस ठंडे दूध के तो  कहने ही क्या , बस यूं समझ लीजिए गर्मी भरे दिनों में से एक दिन गुज़र गया वह दूध हमें यह राहत भरा एहसास दिलाता था। यह एहसास एक अनोखे पुरस्कार जैसा होता था ।

लेकिन इसके बावजूद यदि किसी का मन होता कि इस मीठे को बराबर करने के लिए, अपना उद्धार करने  के लिए कुछ तीखा खा लेना चाहिए तो कालाथी के थोड़ा आगे जाने पर मथाला नारायण स्ट्रीट  मिल जाती। जो 100 मीटर तक फैली थी। उसे आँखों पर पट्टी बांध कर भी पाया जा सकता था क्योंकि वह गंधों से बनी सड़क थी। वहाँ के प्याज़ के तले जा रहे पकौड़ों  की महक दूर तक सुवासित रहती थी। इन पकौड़ों की ताज़ी खेप का बाहरी हिस्सा एकदम कुरकुरा  होता और जुबान पर पड़ते ही जो भूख जगती  वह कमाल की होती  वरना गर्मी  तो कोई कसर छोड़ती  नहीं थी हमारी भूख मारने में।

ज़ा हिर था ऐसी ऐसी अय्याशियों का असर होता था और हम अपने बिगड़े हुए हाज़में को ले इधर उधर घूमते थे। मेरे परिवार और दोस्तों के बीच इसका इलाज  छाछ से संभव था । यह पेय आंतों को तुरंत ठंडक पहुंचता था और सारे एल्क्ट्रोलाइट्स का समीकरण दुरुस्त कर देता था। यह गाढ़ी  मीठी लस्सी से भिन्न था जिसपर मलाई की मोटी परत तैरती थी बल्कि यह घर के जमाए दही में एक चुटकी नमक और हींग देकर बनाया जाता था। कभी कभी पीने वालों की माँग पर इसमें कूचे हुए करी पत्ते या नींबू की एक फाँक डाल दी जाती थी। यह मामूली सी नीर मोर,  या  पतली छाछ और मेथी के कुछ दाने मिलकर एक बिगड़े पेट को काबू में लाने को सक्षम थे।

दूसरा आजमाया हुआ उपाय, दही चावल का था। मुलायम उबले चावल जिसमें प्रो बायोटिक दही, (छेने  वाला नहीं बल्कि   वह दही ,जो थोड़ा खट्टा होता था और पेट के वातावरण के लिए अच्छा होता था) को मिलाया जाता था और प्रेम से खाया जाता था।  मजेदार बात है कि  इस अमृत का एक पतित रूप   भी होता था जिसमें  पौष्टिकता से भरा गाढ़ा दही,  चावल, किसा हुआ खीरा,गाजर ,आम और किशमिश सब मिलाकर,  सरसों, जीरा, हींग , करी पत्ता,और ताजे धनिया का तड़का  लगा दिया जाता था । इसको   खाने के बाद महसूस होता कि पेट शांत होने लगा है।  ठीक उस लगातार पेट दुखने पर  चिड़चिड़ाने वाले जिद्दी बच्चे की तरह जिसका पेट दर्द ठीक होने पर वह शांति से सो जाता है।

फिर इस बात से निश्चिंत होकर कि अति के बाद का इलाज पास ही है, हम रात बिताने के लिए ठंडे पत्थर के फर्श पर लेट जाते। लेटे- लेटे हम अपनी हथेलियों को सूंघते जिनसे आनंददायक खुशबू आती जो इतने विनम्र खानों ने हमें दी थी। वे खाने जो मौसम के अनुरूप अनंतिम, अप्रतिम थे।  जिन्हें खाना,ढेर सारी  खुशी और मज़े से भर जाना था।

हम उसी खुशी और मज़े  में गोते लगाते  लगाते नींद में डूब जाते।

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