एक जानी-मानी कहावत है- सुबह काशी, शामे अवध और शबे मालवा. यह वह भू-भाग है जहाँ की आबो-हवा प्रदेश के दूसरे भागों की तुलना में शीतल, संतुलित और रम्य है. तो मेरा जन्म ऐसे ‘मालवा’ में हुआ जहाँ की काली माटी भरपूर उपजाऊ है साथ में डग-डग पर पानी भी.
मैं जिस परिवेश में जन्मी और पली बढ़ी वहाँ चहूँओर स्वर गुंजायमान थे. जिस तरह संगीत के घरानों की खूबियों को सराहा जाता रहा, उसी तरह अलग-अलग संस्कृति के खानपान का भी ऐसा अनूठा संगम रहा, कि क्या कहा जाए..!!
(बाबा यानी) मेरे पिता पं. कुमार गंधर्व कर्नाटक में जन्मे थे और उनकी संगीत शिक्षा मुंबई में हुई थी, अतः उनके खानपान की आदतों में कन्नड़ और मराठी व्यंजन मुख्य रहे.
भानुमतिजी, (बड़ी माँ) मूलतः सारस्वत यानी तटीय कर्नाटक की थी. लेकिन जन्म करांची में हुआ था और शिक्षा-दीक्षा मुंबई में हुई थी, तो घर में कुछ सारस्वत प्रकार और कुछ सिन्ध प्रान्त के व्यंजन आये थे.
भानुमतिजी के निधन के उपरान्त कुमारजी का विवाह वसुन्धराजी (मेरी माँ) से हुआ. एक ओर तो उनकी पैदाइश मराठी परिवार में हुई और शुरुआत की पढ़ाई-लिखाई कलकत्ता में हुई जिसके बाद वे संगीत सीखने मुंबई आ गयी. तो उनके पसंदीदा व्यंजनों में मराठी पाककृतियों के साथ-साथ बंगाल का छौंक और विशिष्ट पाककृतियाँ भी रहीं.
कुमारजी, भानुमतिजी और वसुन्धराजी अपने-अपने जीवन के पड़ाव पार करते हुए अंततः ‘मालवा’ देवास आकर बसे और सच कहूँ तो यही के हो गये.
क्योंकि आई, बाबा की तबीयत का ख्याल रखते हुए ही ज़्यादातर व्यंजन बनाती थी. एक संगीतकार का घर होने के कारण भोजन में खटाई, मिर्च, तेल की अधिकता कभी नहीं रही. जिन खट्टी चीज़ों से आवाज़ बैठने का डर हो जैसे- इमली, निंबू, जामफल, खट्टे अंगूर आदि का परहेज़ रखा जाता, लेकिन हाँ.. तरह-तरह के अचार-मुरब्बे ज़रूर बनते थे. ख़ूब तली हुई चीज़ें खाने-खिलाने का शौक स्वाभाविक ही कम था. ज़्यादातर मराठी-कर्नाटक पद्धति में घुला संतुलित भोजन ही बनता था.
हमारे घर में ‘पाककला’ प्राविण्य (perfection) को पाने की दौड़ तो नहीं थी, पर हाँ, जो भी व्यंजन बनते वे बेहद सुरुचिपूर्ण और मंझे हाथों से बनते.
जहाँ तक मेरी याद्दाश्त पीछे जाती है, मेरा ‘पाककला’ के साथ साबका तभी से पड़ा जब मैं मुश्किल से 3-4 साल की रही होऊँगी.
मुझे सम्भालने के लिये जो दाई माँ थी उनका नाम था नूरबानो यानी हमारी नूर अम्मा ! वे बेहद साफ़-सुथरी, गोरी चिट्टी थी. सफ़ेद-झक सलवार-कमीज़ के साथ सरढ़कता मलमल का दुपट्टा ओढ़ती थी, और हाथ में होती थी हज़ से लाई तसबीह (जपमाला) ! अपनी कांपती आवाज़ में वे तरह-तरह से मेरा मन रमाने की जुगत भिड़ाती रहती.
आई ने रसोईघर से संबंधित खिलौने जिसे मराठी में ‘भातुकली’ कहते हैं, लाकर दिये थे. जिसमें तमाम तरह-तरह के खाना बनाने के बर्तन, जैसे थाली, कटोरी, खोचा, पलटा, तवा, चूल्हा, गैस, चाय-दूध के बर्तन, चिमटा, संडसी, से लेकर कप-प्लेट, टेबल-कुर्सी… सब… सब… था. और मैं नूर अम्मा के साथ इन बर्तनों में झूठमूठ का खाना बनाती. अम्मा के तमाम झुर्रियों से भरे हाथ और कांपती आवाज़ आज भी ज़ेहन में है.
वो कहती…
हाँ, अब कढ़ाई में तेल डालो… रुको उसे गरम होने दो… हाँ, अब जीरा डालो… अब… ये… अब… वो… और इस तरह से मेरी training शुरू हुई, यानी नूर अम्मा मेरी पाककला की पहली गुरु बनी.
घर में हमेशा सात्विक, रुचिपूर्ण और शाकाहारी भोजन बनता आया है. आई के हाथों से बनी सुस्वादु ‘आमटी’ (विशिष्ठ तरह की खट्टी-मीठी दाल) और घड़ी-ची पोळी (दूसरे शब्दों में बिना घी-तेल का पराठा, जो महाराष्ट्रियन भोजन की विशिष्टता है) का कोई तोड़ आज तक तो नहीं मिल पाया है.
घर में बाबा-आई, बड़ा भाई मुकुल दादा और मेरे अलावा एक महत्वपूर्ण व्यक्ति था और वह था- कण्णा मामा यानी कृष्णन नंबियार !! जो मूलतः केरल का था और भानुमतिजी के साथ देवास आया था. वह घर का सबसे सम्माननीय बुजुर्ग था जिसे तरह-तरह के कामों में महारथ हासिल थी. वह आई के साथ हमेशा रसोई में भी हाथ बंटाता था और उसकी कुछ ‘पाककृतियाँ’ अब हमारी अभिन्न ‘धरोहर’ में गिनी जाती है.
एक कहावत है- ‘गवैया सो खवैया’
लेकिन सच कहूँ तो बाबा आई का मामला बिलकुल उल्टा था. वे हमेशा बेहद नपा-तुला शाकाहारी खाना खाते थे. हाँ उन्हें दूसरों को खिलाने का बेहद शौक था.
बहुत पुरानी (1947 से) एक चोपड़ी (डायरी) थी जिसमें बेहद ख़ास पाककृतियाँ लिखी थी. इस चोपड़ी में सिंध, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, आदि प्रांतों की चुनिंदा पाककृतियाँ समय-समय पर जुड़ती चली गयी.
जिस तरह संगीत के विद्यार्थियों के लिये ‘भातखंडे संगीत पद्धति’ का महत्व है पाककला के संदर्भ में मेरे लिये यह चोपड़ी किसी ‘गीता’ से कम नहीं थी. धीरे-धीरे इस एक चोपड़ी की कई चोपड़ियाँ बनती चली गयी और अलग-अलग प्रांतों के अलावा अलग-अलग संस्कृतियों के व्यंजनों की शिरकत होती गयी, जो आज भी जारी है.
खाने की मेज़ पर थाली में भोजन किस तरह और कैसा परोसा जाये इसका भी एक अलिखित शास्त्र है. और उसी प्रकार से थाली सजती है.
एक बात ख़ास थी, कि घर में जो भी व्यंजन बनते वे सभी के लिये एक समान होते और हम बच्चों को भी थाली में परोसा गया हर पदार्थ खाना अनिवार्य होता था. इसमें कोई रियायत नहीं थी.
करेला हो, कटहल हो, मद्रासी रसम हो, सारस्वत तमळी हो, बेलगांव की पचड़ी-हुग्गी हो, भाकरी (ज्वार-बाजरा की रोटी) किकोड़े (करटोली) हो, बंगाल का बैंगुन भाजा हो… सब खाना ही पड़ता था. उससे एक बढ़िया बात यह हुई की हमें सब चीज़ें चखने की आदत बनती गयी.
मुझे याद है, बचपन में स्कूल के टिफिन में मैं करेले की सब्जी ले जाने का आग्रह करती थी.
वसुंधरा ताई शादी के बाद 1963 में जब मुंबई से देवास आयी तो अपने साथ इडली की दालें इत्यादि पीसने वाला पत्थर का रगड़ा लेती आयी. उन्हें दक्षिण भारतीय व्यंजनों से बेहद लगाव था. देवास छोटा शहर था, पता नहीं दालें आदि पीसने की व्यवस्था हो न हो. (तब घरों में Mixer-Grinder नहीं होते थे) तो वे रगड़ा ले आयी और बरसों तक मुझे याद है की उसी पर काम चलता रहा.
घर में लंबे समय तक गैस का उपयोग मुख्य रूप से केवल चाय-कॉफी बनाने के लिये ही होता था. मूल खाना तो कोयले की सिगड़ी (अंगीठी) पर ही बनता था. आई सुबह का नाश्ता होने पर सिगड़ी (अंगीठी) जलाती और देर दोपहर में गरमागरम घड़ी की रोटी (चपाती) या कभी-कभी ‘कडेले’ (मिट्टी का बारीक छेद वाला तवा) पर फुल्के बनाकर परोसती. ख़ासकर बाबा जब कार्यक्रम करके कई दिनों बाद घर लौटते तो थके होते थे, उन्हें आमटी-भात (दाल-चाँवल) के साथ सब्जी-कोशिंबिर और गरमागरम ‘घड़ी-ची पोळी’ परोसकर वह तृप्त कर देती थी.
‘मितव्ययता’ का अर्थ उन्होंने बखूबी समझा था. उन्होंने कभी भी पहनावे में, रहनसहन में, भोजनादि के शौक में अतिरिक्त दिखावा या ‘अतिरेक’ नहीं किया. उनके व्यक्तित्व में सगुण सौंदर्य की रसिकता भी थी और निर्गुण का भाव भी.
सिगड़ी (अंगीठी) की बात चली है तो एक और ख़ास बात बताती हूँ- तब, यानी 60-70 के दशक में गैस जलाने के लिये Lighter नहीं होता था. एक छोटी सी घासलेट (केरोसीन) से जलने वाली चिमनी 24 घंटे रसोईघर के कोने में जलती रहती थी. ब्रुकबाँन्ड चाय के ख़ाली हो चुके कागज़ के डिब्बे की कण्णामामा बैठे-बैठे लंबी पट्टियाँ काट देता था, जिनका उपयोग हरबार माचिस की तीलियों के बजाय, उस छोटी सी चिमनी से सुलगाकर गैस जलाने के लिये किया जाता था.
हमारे यहाँ एक घट्टी भी थी जिसे “घर-काम” करने वाली अजुध्या बाई से आई ने पीली मिट्टी से लिपवाकर ‘पाल’ (घट्टी के चारों और बनी ऐसी कोर जिससे पीसा हुआ आटा ज़मीन पर न गिरे) तैयार करवाली थी. बीचों-बीच लकड़ी की एक ‘मकड़ी’ होती थी जिसके सहारे उसे घुमाया-पीसा जा सके. उसी घट्टी पर (महाराष्ट्रियन व्यंजन) ‘चकली’ का आटा पीसा जाता था. और सच कहूँ… ऐसी खस्ता चकली बनती की…….
60-70 के दशक में भी देवास छोटा शहर था. आज की तरह बारहों महीने सभी प्रकार की तरकारियों का मिलना दुर्लभ होता था. मुझे याद है… ठंड के मौसम में जब टमाटर बहुतायत आते थे, आई और कण्णा मामा चौक में बड़ी अंगीठी पर टोमॅटो सॉस हम बच्चों के लिये बनाते, हद तो तब हो गयी जब बाबा के आग्रह पर उसने पूरे 100 औषधियों से युक्त च्यवनप्राश को घर पर बना डाला!! और वह भी पूरे तीन दिन खपकर!!
खाने की मेज पर हमेशा ही कोई न कोई मेहमान या उसी समय ‘पधारने’ वाला ‘आगंतुक’ रहता ही था, जिसे हमारी आई ने कभी अन्यथा नहीं लिया. बाबा बहुत सलीके से धीरे-धीरे, स्वाद लेते हुए… वाह…! वाह…! कहते हुए भोजन करते और पसंद आई छोटी से छोटी चीज़ भी ख़ूब तारीफ़ पाती !
एक बार की बात है- हमारे घर के आम के पेड़ पर कैरी नहीं आयी थी और एकाएक एक दिन कहीं से एक कैरी टपकी मिली. उस एक अकेली कैरी को बाबा ने धारवाले चाकू से तराशा, लंबी-लंबी चक्तियाँ काटी, नमक-लालमिर्च लगाई और खाने की मेज पर बैठे सभी लोगों को परोसा! वह भी आहाहा… वाह… के साथ. उनका यह छोटी से छोटी चीज़ को सराहने (appreciation) का स्वभाव बहुत लाजवाब था.
‘भानुकुल’ के दरवाजे स्वागत के लिये हमेशा खुले रहे हैं. देवास में बाबा के घनिष्ट मित्र साहित्यिक-पत्रकार राहुल बारपुते, चित्रकार गुरुजी चिंचालकर, चित्रकार सज्जातज्ञ चंदू नाफड़े, नाटककार बाबा डीके, कवि-साहित्यिक अशोक वाजपेयी, लेखक-नाटककार पु.ल. देशपांडे, गायक वसंतराव देशपांडे, पद्मकुमार मंत्री, पत्रकार प्रभाष जोशी, रामूभैया दाते परिवार के सदस्यों से लेकर देश के विभन्न भागों में रहने वाले प्रियजन और तमाम कलाकारों का आना जाना हमेशा लगा रहता था.
मेरी स्मृति में कभी पं. रविशंकरजी और उ. अल्लारखा खांसाहब आये हैं, उन्हें कार्यक्रम के बाद अल-सुबह आगे निकलना है… तो देर रात मेज पर आई भोजन परोस रही है. तो कभी पं. भीमसेनजी देर रात को बाबा के कमरे में गा रहे हैं, उपरान्त रात 2 बजे भोजन! बड़ोदा के आर्किटेक्ट माधव आचवल और शिल्पकार र.कृ. फड़के कई-कई दिनों तक कुमारजी से चर्चारत हैं, तो नागपूर के कवि अनिल (आत्माराम रावजी देशपांडे) भी पन्द्रह दिन यही ठहरे हैं, तो कभी कव्वाल शंकर शंभू भी आये हुए हैं, पु.ल. और वसंतरावजी देशपांडे बाबा के कमरे में ही ठीया जमाये हैं.
एक बात ख़ास, की इनमें से कभी किसी ने किसी चीज़ की अतिरिक्त फरर्माइश नहीं की. बाबा के जन्मदिन पर आने वाले मित्र परिवारों के लिये घर पर ही चक्का बनाकर श्रीखंड बनता. मेरे और मुकुलदादा के जन्मदिन पर भी हमारी पसंदीदा पुरणपोळी और जलेबी बनती.
बाबा का कार्यक्रमों के लिये लगातार देश के सुदूर शहरों में आना-जाना चलता रहता. वे ज़्यादातर ट्रेन से सफ़र करते. First Class के डिब्बे में (उन दिनों ट्रेन में A.C. कंपार्टमेंट नहीं होते थे) निचली बर्थ बाबा के लिये आरक्षित होती. दोनों तानपूरे बीच की चाय टेबल के दोनों ओर एक-एक खड़े करके बांध दिये जाते या कई बार तो ऊपरी बर्थ पर लिटा दिये जाते.
उन दिनों आवाज़ का ख्याल रखते हुए घर से ही प्रवास में लगने वाला पानी का थर्मास और खाने का तीन डिब्बों वाला टिफ़िन साथ दिया जाता.
दो वक्त का भोजन जिसमें आलू की सब्जी, चटनी, दूध में आटा गूंथकर बनायी नरम चपाती (दशमी), बिनाकटी सलाद, नमक, कुछ मीठा और सबसे ख़ास बेलगांव का दही चाँवल जिसे ‘बुत्ती’ कहा जाता है वह होता था. बाबा भी प्रवास में बड़े चाव से भोजन का आनंद लेते. कभी अकेले तो कभी आई भी साथ रहती. कभी संगतकार भी उसी ट्रेन में जुड़ जाते. उस First class के डिब्बे में वो टिफ़िन का (घर का) खाना आज भी मुँह में पानी ला देता है. परहेज को ध्यान में रखते हुए कभी भी बाबा-आई सफ़र के दौरान यहाँ-वहाँ कुछ खाते नहीं थे. कुछ नया प्रकार पसंद आया हो तो घर आकर बताते और आई दिमाग दौड़ाकर हूबहू बनाने का प्रयत्न करती.
एक वाकया याद आ रहा है-
पारिवारिक मित्र एकनाथ कामथजी और उनकी धर्मपत्नी निरुपमा से मिलकर बाबा बंगलोर से लौटे थे.
वे आई से बोले- “निरुपमा ने मुझे मक्खन सी मुलायम मूँग की ईडली खिलायी.” उन दिनों फोन करना उतना सहज नहीं था, बल्कि उसकी आदत भी नहीं थी, और न ही मोबाइल का जमाना जिसमें youtube पर पाककृतियों की भरमार हो. तो आई ने स्व-विवेक से जोड़-घटाव कर के मूँग की मुलायम ईडली बना ही दी.
मज़े की बात यह की आई यह सब उसका ख़ुद का रियाज़-गाना-बाबा के साथ Special Thematic Concerts की तैयारी, बंदिशों का Notation करके करती. आज मैं यह सब सोचकर अचंभित हूँ !!
घर में शिष्य मंडली का आना-जाना सदैव बना रहता. वे सब घर के सदस्य ही तो थे. रसोईघर में खाना बनाते-बनाते वह शिष्यों का रियाज़ सुनती. कई बार खाने की मेज़ (Dining Table) पर ही बाबा बैठे-बैठे गुनगुनाते रहते, आई को आवाज़ लगाते… “सुनो यह देखो कितनी सुंदर बंदिश है!!”
‘भानुकुल’, यह घर चारों ओर से घने छायादार पेड़ों से घिरा है. तरह-तरह के फल-फूल के वृक्ष-पौधों से आच्छादित है. उसमें बाँस (बांबू) की वह प्रजाती भी है जिसे खाने में इस्तेमाल किया जाता है. आई के विशेष आग्रह पर इसे बाबा ने लगाया था.
1984-85 के दौरान भारत में बांबू खिला था. यहाँ बताना मौंजू होगा कि बांबू में 40 साल में केवल एक बार ही फूल खिलते हैं; और जो बीज बनते हैं उन्हें ‘बाँस के चाँवल’ कहा जाता है. यह बिरले चाँवल औषधी गुणयुक्त होते हैं. तो बाबा को किसी ने ‘बांबू के चाँवल’ लाकर दिये. स्वभाव के अनुसार उन्होंने निकट के परिचितों को बुला-बुलाकर खीर प्राशन करवायी. और आई ने सावन-भादौ के महीने में जमीन से फूटने वाले ताजे बाँस की शानदार तरकारी बनाने का तरीका खोजा और ताजे नारियल के मसाले में बनने वाली ‘भानुकुल स्पेशल’ तरकारी इज़ाद की.
जब बारिश की झड़ी लगातार कुछ दिनों तक जारी रहती तो एक बर्तन चौक में रख दिया जाता और आसमान से बरसते झमाझम की बूंदों को लेकर उसकी चाय बनायी जाती… बहुत निराला स्वाद होता था उस चाय का !!
जैसे-जैसे मैंने चौके में रुचि लेना शुरू किया, आई धीरे-धीरे मुझ पर चीज़ें सौंपती गई. फ़िर भी उसके हाथ की बनी रोटी, आमटी, पुरणपोळी, चकली, सोलकढ़ी, तमाम अचार आदि आदि के बारे में क्या कहूँ?… क्या जादू करती थी वो… वाह ! उसके हाथों से तो स्वाद झरता था. असल में सामग्री के साथ हम सबके लिये स्नेह का ख़ास छौंक जो डलता था !
अब समय बहुत बदल गया है. जिस तरह बहुत से राग और उनकी बंदिशों को रूबरू गुरुमुख से समझना रह गया इसका मलाल है, उसी तरह बहुत कुछ बातें या यों कहें ‘मक्खी’ जानना रह गयी. अब अपने दम पर राग और बंदिशों को जानना समझना है.
कई प्रकार के देशी विदेशी व्यंजनों की जाजम बिछ गयी है… घर की रसोई किसी Laboratory से कम नहीं. मुझे उन्हें आज़माना बेहद पसंद है. पिछले कुछ समय से मेरे साथ भतीजे- भुवनेश की पत्नी- उत्तरा साथ देने लगी है. उसने आई के धज तले कुछ-कुछ व्यंजन बनाने में महारथ हासिल कर ली है.
अब जब कुमारजी को हमारे बीच से गये 30 से अधिक वर्ष बीत चुके हैं, वसुंधराजी को भी गये 6 वर्ष… ‘भानुकुल’ में इन स्वादिष्ट बंदिशों का संगीत तो गूंजता रहता ही है साथ में मालवी भोजन का तड़का भी काफ़ी हद तक जुड़ गया है.
पहले मालवी स्वाद के व्यंजन ‘दाल बाफले’ ‘चूरमा’ आदि यदा-कदा बनते थे. आज हम पर ‘मालवा प्रभाव’ के कारण कह लीजिये इनके आरोह-अवरोह नियमित गुनगुनाये जाते हैं.
माना कि हमारी जड़ें कर्नाटक, महाराष्ट्र, सिंध, बंगाल से है लेकिन भई हम तो मालवी हैं.
आप भी सिध्हस्त है पाक कला में, क्योंकि आपके हाथ की बाँस की सब्जी जो आपने मुझे बुलाकर खिलाई थी उसका स्वाद आज भी मन को प्रफुल्लित कर देता हैऔर वह स्वाद आज भी जस का तस बना हुआ है |
आप के हाथ का बैगन का भरता और कद्दू की सब्जी कैसे भूल सकते है जो कि हमारी खेत पार्टी की विशेष डिश होती है|
आपका गायन जैसे श्रोताओ को मंत्रमुग्ध कर देता है यक़ीनन आपका पाकशास्त्र ज्ञान और उसको करीने से बनाने का जज़्बा भी एक अलग ही स्वाद देता है|
मनीष जी
आपका बहुत धन्यवाद की आपने इतने जतन से मेरा आलेख पढ़ा।
बहुत अच्छा लगा शुक्रिया
कलापिनी
वहा बहुत ही सुंदर वर्णन बहुत बहुत बधाई
शैलेंद्र जैन जी
आभार आपका
कलापिनी
अद्भुत असाधारण अलौकिक आनंद दायक लेख
अगले लेख के लिए प्रतीक्षारत……….
ब्रिज भान व्यास जी
बहुत अच्छा लगा जानकर की आलेख आपको पसंद आया।
शुक्रिया
कलापिनी
I am not able to see my previous comments …….
अद्भुत लेख है यह कलापिनी जी, इतना सरस, सुंदर, स्वादिष्ट और प्रामाणिक!
विरासती व्यंजनों के अलावा मालवा की ख़ुसूसी लज़्ज़तों के आरोहावरोह, क्या सुरीली अभिव्यक्ति है, जीती रहिए!
आ मंजिरी जी,
आपको आलेख पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा।
लिखने का काम हमेशा नही पड़ता ,और आदत भी नही है तो संकोच हो रहा था।
मैं किन शब्दों में धन्यवाद कहूं?
आप ऐसे ही हौसलाअफजाई करते रहिए यही इच्छा।
कलापिनी
बहुत खूब – ‘गवैया सो खवैया’
इस घराने का कुछ अलग ही अंदाज है,
सिर्फ संगीत ही नहीं,
इनकी रसोई का भी कुछ खास ही मिजाज है.
दीप्ति जी
शुक्रिया
ताई, नमस्कार। बहुत ही सुंदर चित्र खींचा आपने। वाचुन डोळ्यांत पाणी आलं।
कभी देवास आया तो क्या भानुकल के दर्शन हो सकेंगे? भानुकल के स्वयंपाकघर का प्रसाद मिल सकेगा? धृष्टता के लिये क्षमा।
सौरभ बुधकर जी
आप जरूर देवास आ सकते हैं
शुक्रिया
कलापिनी
बहुत उम्दा आलेख । संगीत और पाक कला का सुरीला संगम।।कलापिनी जी का साधुवाद भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए और चिन्मय खळदकर को धन्यवाद, भेजने के लिए ।।शुभकामनाएँ और बधाई हो ।।
विलास जानवे जी को नमस्कार
आभार आपने आलेख पढ़ा और यहां कॉमेंट किया।
कलापिनी
अद्भुत! For 50 years, music from the Kumar Gandharva family has thrilled, uplifted and comforted me. Your marvellous memoir of food has the same qualities as the music: harmony, love, generosity. Thank you for writing this.
अमित बाविस्कर जी
बहुत धन्यवाद आपका।
आपके शब्द बहुत मायने रखते हैं
कलापिनी
रागदारी के बड़े घर भानुकुल की रसोई से स्वाद की गंध का आनंद आत्मा तक पहुुंचा;साधुवाद आपका।
नमस्कार संजय पटेल जी
आपने आलेख पढ़ा,जानकर अच्छा लगा।
बहुत आभार
कलापिनी
behadd sundar!
i am no food rasik, and rarely read writings on food, but i want to change my mind having read this delectable piece.
made me fall in love with the music of the Kumar Gandharv family all over again.
made the kitchen a place where food and music can cohabit, and nurture each other.
blurred the distance between recipe and riyaz.
Dear Mona Mishraji
Many thanks for reading my essey and giving comment on it।
Thanks alot
कलापिनी
नमस्कार दीदी,
आपने इतनी खूबसूरती से हर चीज़ का वर्णन किया है कि मेरे पास तो शब्द ही नहीं हैं कि मैं कैसे अपने मन के विचारों को लिखूं, जो आपका लेख पढ़कर मैं इस समय महसूस कर रही हूँ. जिस सुन्दरता से आपने लिखा, लेख पढ़ते समय एक फिल्म-सी मेरे दिमाग में चलती रही. आपका गायन जितना अच्छा है उतना ही अच्छा आप लिखती भी हैं.आपको बहुत जल्द अपने लेख को एक किताब की शक्ल देनी चाहिए, अब मुझे तो इंतज़ार रहेगा उन स्वादिष्ट सात्विक व्यंजनों की विधि का जिनके आरोह-अवरोह नियमित गुनगुनाये जाते हैं और जिनकी महक अभी तक मेरे आस-पास बनी हुई है.
प्रिय मीरा
बहुत अच्छा लगा,तुमने लेख पढ़कर जो महसूस किया वह बहुत खास है
जहां तक किताब लिखने की बात है,जरूर सोचूंगी।
मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं
कलापिनी
आहा! सगळं तू गप्पा मारताना ऐकवते आहेस असं वाटत होतं वाचताना. हल्लीच तुझ्याकडे खाल्लेले मुटके आठवले आणि खूप मस्त वाटलं.
प्रिय मृण्मयी
खूप छान
तू हिंदी वाचलें की मराठी?
भाषांतर देखील चांगले झाले आहे
कलापिनी
लेखनी से सुरीला, सुस्वादु, सुंदर “भानुकुलीन” भोजन का आपका वर्णन अद्भुत है। “महादेवी वर्मा” जैसा “फ्लेवर” है इस लेख में।
अभिनंदन
श्री सुधांशू कुलकर्णी जी
आपका विशेष आभार।
आपने तो मुझे सातवे आसमान पर बैठा दिया।
महादेवी जी मेरी प्रिय लेखिका हैं
पुनः धन्यवाद
कलापिनी
वा! क्या बात है!
आभार
कलापिनी
Kitni khoobsoorat yaadein aapne saleeqe ke saath saanjha kr di hum bhi us daur mein jee aaye wah
Dear Samina ji
So much thanks for commenting.
Kalapini
तानपुरे पर चलती उंगलियां और मधुर स्वर लहरियां बिखेरने वाला मुखविंदार पाककला में / व्यंजनों का स्वाद लेने में भी उतने ही सिध्दहस्त हैं, जानकर बहुत खुशी हुई। आपने विरासत में मिली रसोई-परंपरा को उत्तरा के साथ मिलकर न सिर्फ जीवित रखा, वरन उसे मालवी तड़के से आगे भी बढ़ाया यह गर्व की बात है। आप भी देश-विदेश भ्रमण करती ही रहती हैं पर रसोई को भी संभाले रखा….. वाह….. अभिनंदन और बधाईयाँ……
शरद कटारिया
आपका आलेख बहुत ही अद्भुत स्वास्थ्यवर्धक भोजन का वर्णन किया है। भानुकूल एवं सुंदर लेखनी , अभिनंदन।
नमस्कार
आभार
कलापिनी
भानुकुल की रसोई का वर्णन भी रसोई जितना ही अद्भुत है। गायन के साथ लेखन में भी वही रस। बहुत सुंदर।
नमस्कार सुशील सुरेका जी
आभार आपका,आपको आलेख पसंद आया।
कलापिनी
अति सुंदर लेख
जीवन कितना सरल था एवं हर छोटी चीज़ का भी आनंद लिया जाता था। यह कला अब ग़ुम होती जा रही है एवं मनुष्य अपने ही जीवन को अनावश्यक रूप से जटिल करते जा रहा है।
बहुत रुचिकर लेख। पढ़कर ‘भानुकुल’ का आँगन सामने आ गया। वरांडे में रखे झूले पर थोड़ा बैठकर अंदर बैठाया गया। पंडित जी की दुर्लभ रिकार्डिंग सुनने का सुअवसर मिला। आप, भुवनेश जी और ताईजी के साथ
चाय पी। शायद 2010 या 2011 की बात है।
आपकी रसोई और पाककला का वृत्तांत पढ़कर बहुत मन तृप्त हो गया। हार्दिक धन्यवाद