लंगर –‘किसान नहीं तो खाना नहीं’ आंदोलन की धड़कन
Volume 1 | Issue 10 [February 2022]

लंगर –‘किसान नहीं तो खाना नहीं’ आंदोलन की धड़कन<br>Volume 1 | Issue 10 [February 2022]

लंगर –‘किसान नहीं तो खाना नहीं’ आंदोलन की धड़कन

अमनदीप संधु

Volume 1 | Issue 10 [February 2022]

अनुवाद –वंदना राग


वह 28 अगस्त 2021 का दिन था, जब करनाल के पास बस्तारा टोल प्लाज़ा पर किसान इकट्ठा हो हरियाणा के मुख्यमंत्री एम.  एल.  खट्टर का विरोध कर रहे थे और पुलिस ने उनपर 5 बार लाठी चार्ज किया था।लाठी के ये  प्रहार जानलेवा थे। बहुत सारे किसान घायल हुए। उनमें से एक थे 45 वर्षीय सुशील काजल जो पीठ पर अनेक चोटों के साथ घर पहुंचे। मार के कारण  उनका पेट भी बुरी तरह सूज गया था। अगले दिन सुबह उनकी मौत हो गई। जिस वक्त  पुलिस लाठी चार्ज कर रही थी और सुशील काजल घायल हुए थे, उस वक्त का किसी ने एक विडिओ बनाया था जो उनकी मौत के बाद लीक हो गया। उस विडिओ में साफ- साफ दिखलाई पड़ा कि करनाल ज़िले का एस . डी.  एम,  अपने  मातहत पुलिस कर्मियों को आदेश दे रहा था –‘इन किसानों के सर फोड़ दो।‘

एक  किसान की मौत और उसके जिम्मेदार एस.  डी.  एम का विडिओ देख लोगों के बीच भयानक गुस्सा उपजा और किसानों ने करनाल अनाज मंडी में 7 सितंबर को एक बैठक का आयोजन किया। इसपर प्रशासन ने सख्त कार्यवाही करते हुए इंटरनेट और मोबाईल संदेश सेवाओं को बंद कर दिया। लेकिन इससे किसानों का हौसला कम नहीं हुआ और उनकी सभा में पूरे दिन किसानों का आना जारी रहा। किसानों के संगठन संयुक्त किसान मोर्चा ने मांग रखी कि दोषी एस.  डी.  एम को निलंबित किया जाए, मृतक काजल के परिवार के किसी योग्य सदस्य की अनुकंपा नियुक्ति की जाए और घायल किसानों और किसानों के क्षतिग्रस्त वाहनों को मुआवजा दिया जाए।

प्रशासन ने इनमें से किसी भी मांग को नहीं माना ।

यह देखकर 4.30 बजे के आसपास  किसानों ने तय किया कि वे डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर का घेराव करेंगे । पुलिस ने इस अंदेशे को भांप, चारों ओर बैरीकेड लगा रखे थे। किसानों का हौसला इसपर भी कम ना हुआ और वे बैरीकेड लांघ कर जाने लगे। इंटरनेट बंद हो जाने की वजह से लगभग  6 बजे के आसपास हमलोगों को किसान संयुक्त मोर्चा द्वारा सूचना मिली कि करनाल में  लगभग 2 लाख लोगों के लिए खाना, पानी और चाय का इंतजाम  करना है। इस पर दूसरों की तरह मैंने भी फ़ेसबुक पर इस बाबत एक सूचना डाल दी और ट्रैक्टर2 लिख ट्विटर पर टैग भी कर दिया। मैंने इंस्टाग्राम पर सक्रिय दोस्तों को भी यह सूचना जारी करने को कहा। 7 बजे के आसपास स्थानीय गुरुद्वारे–गुरुद्वारा निर्मल कुटिया में सकारात्मक पहल होने लगी। खालसा ऐड जो एक राहत पहुँचाने वाली संस्था है और जिसने अपनी सेवादरी के कौशल को किसान आंदोलन के स्थलों पर खाना पहुँचा- पहुँचा कर सवाँरा है,किसानों तक चाय पानी पहुँचाने लगी।10 बजे तक सभी  सड़क पर बैठे आंदोलनकारियों तक खाना पहुंचाया जा चुका था। इसके साथ ही यह भी यहाँ दर्ज करने वाली बात है कि 2 दिन पहले मुज़फ्फरनगर महापंचायत द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के समुदायों ने 15 लाख लोगों के लिए खाने का बदोबस्त किया था.


Image Credit – Jaskaran Singh Rana, 2021

इतिहास

जिस किसी ने भी किसी भी प्रकार का आयोजन किया है,  खासतौर से विरोध प्रदर्शन जैसा आयोजन, वह जानता है कि उसे बहुत सारी चुनौतियों से जूझना पड़ता है। एक असंवेदनशील और किसानों के प्रति  बेरहम रुख रखने वाली सरकार, जिसके साथ एक कॉर्पोरेट मीडिया भीतर तक जुड़ी हुई हो,वह तो आंदोलन को न सिर्फ नकारेगी बल्कि किसानों को–अलगाववादी, देश द्रोही जैसे अश्लील नामों से संबोधित भी करेगी ही। वही हुआ ! लेकिन इस बार समाज इस झांसे में नहीं आ रहा था और कृषि कानूनों को समर्थन  देने के बजाय किसानों को ही अपना समर्थन दे रहा था।  दिल्ली की सरहद पर जो आंदोलन हो रहे थे-सिंघू,टिकरी,ग़ाज़ीपुर,पलवल और शाहजहानाबाद पर, वे विशाल आकार ले चुके थे और टोल प्लाजाओं,पेट्रोल पंपों और पूँजीपतियों के बड़े गोदामों को ब्लॉक  कर रहे थे। ये प्रदर्शन अपने आप में अद्भुत थे; इतनी कुशलता से उन्हें संयोजित किया गया और हड्डी गलाने वाली ठंड, भीषण गर्मी और भारी बरसात के बावजूद वे चलते रहे।

इन प्रदर्शनों को यूँ बनाए रखने वाली आखिर क्या बात थी? किसानों का जज़्बा और उनका हौसला तो था ही, इसके अलावा जो व्यावहारिक बात  रोज़ ब रोज़ उन्हें थामे रखती थी वह थी लंगर की परंपरा – यानि सामुदायिक खाने की परंपरा ।

लंगर दरअसल  वह सामुदायिक रसोई होती है जहाँ साझा खाना पकता है और बहुत सारे लोगों को साझे ढंग से परोसा जाता है। इस परंपरा को गुरु नानक ने सिख धर्म में स्थापित किया था। यह कहा जाता है कि जब गुरु नानक छोटी उम्र के थे तो उनके पिता ने उन्हें उस वक्त के हिसाब से 20 रुपयों की बड़ी रकम दी और कहा-जाओ इससे  सौदा करो और मुनफ़ा कमाओ। रास्ते में गुरु को कुछ विद्वान मिले जो भूखे थे। गुरु नानक ने अपने मन में सोचा कि भूखे  लोगों को खाना खिलाने से बड़ा कोई सौदा नहीं। सौदे का कोई हासिल नहीं । इसी बात से लंगर खिलाने की परंपरा का जन्म हुआ। गुरु ने बताया कि लंगर एक पंगत में बैठ कर खिलाया जाए, जिसमें धर्म, जाति, उम्र, लिंग और रंग  का भेदवभाव न हो, बस संगत और बराबरी का एहसास हो।


Image Credit – Jaskaran Singh Rana, 2021

लंगर की परंपरा अब 500 साल पुरानी है पर अभी भी उतनी ही चुस्त और स्वस्थ बनी हुई है। यह लंगर की ताकत थी  जिसने नवंबर 2020 से दिसम्बर 2021 तक दिल्ली और 14 महीनों तक पंजाब की सड़कों पर आंदोलन को जिलाये रखा। यदि हम इस आंदोलन के प्रति एका भाव, समर्थन  और राजनैतिक चेतना का आँकलन करेंगे तो पाएंगे कि 27 सितंबर का भारत बंद आह्वान  महानगरीय  शहरों से आगे जाकर राष्ट्रीय स्तर पर अनुगूँजित हो रहा था।

इस दौर के लंगर को संभव बनाने में  सिखों के भीतर का अंतर्निहित सेवा भाव प्रमुख था। सिख धर्म के भक्तों में दूसरों की सेवा करना उपासना की विधि मानी जाती है। सिखों के लिए कार सेवा एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसे निभाना होता है।उसे ईश्वर के घर में पूजा करने की तरह ही पावन कार्य  माना जाता है।  कहा गया है कि ईश्वर ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है इसीलिए दूसरों की सेवा कर हम असल में गुरु अथवा  ईश्वर की ही सेवा कर रहे होते हैं। लंगर उसी ईश्वर द्वारा दिया गया उपहार है।

इसी वजह से हरियाणा के किसान नेता सुरेश कौथ ने कहा –“सिखों के साथ मिलकर संघर्ष करने में  अलग ही सुख है। वे किसी को भूखा सोने नहीं देते। जब हम बैरीकेड तोड़ रहे थे लंगर तैयार हो रहे थे। हर बार जब हमने नया बैरीकेड तोड़ा हमें ऐन उसी की बगल में एक लंगर वैन खड़ा मिला। अब हम कितना खाते? जब हम उसे जाने देते तब वह लंगर दूसरे आंदोलनकारियों तक पहुँच जाता। हमें यह पता ही नहीं चल  पाता कि लंगर आया कहाँ से है? लेकिन वह हमेशा से आता । हर बार आता।“

यह तब भी हुआ जब किसान 27 नवंबर 2020 को पंजाब हरियाणा बॉर्डर पर स्थित शंभू से दिल्ली की ओर चले। हरियाणा के किसानों ने अगुवाई की और राज्य पुलिस के बैरीकेड लांघे, उनके द्वारा खोदे गहरे गड्ढे लांघे, राह पर खड़े किए भारी नाविक कन्टेनर खिसकाये, आँसू गैस और पानी के कैनन झेले लेकिन आगे बढ़ते रहे। इसके बाद जब सारी बाधाओं को पार कर वे एक जगह आगे जाकर ठहरे तो उन्होंने सबके लिए लंगर की व्यवस्था की और पुलिस वालों को अपने खाने में शामिल किया। यह बात गुरु गोबिन्द सिंह के जमाने की सैन्य लड़ाइयों की याद दिलाने वाली थी।जब गुरु की सेना युद्धरत रहती थी तो भाई घनय्या  बिना किसी पूर्वाग्रह के दोनों ओर के घायल सैनिकों  को पानी पिलाया करते थे। इसपर लोगों ने गुरु से भाई की शिकायत की और गुरु ने भाई से ऐसा करने का कारण पूछा। भाई ने कहा-“आप ही तो कहते हैं कि सब बराबर हैं ।“ गुरु ने यह जवाब सुन भाई को खूब आशीर्वाद दिया और मनुष्यता के हक़ में इस काम को जारी रखने को कहा।


Image Credit – Jaskaran Singh Rana, 2021

खालसा ऐड के अमरप्रीत सिंह ने कहा-“पुलिस हमसे पानी बोतलें लेते हुए भी कतराती थी खासतौर  पर जब कैमरे हमारे आस-पास हुआ करते थे। पुलिसवाले  भी हमारी ही तरह भूखे, प्यासे और पसीने से तरबतर थे लेकिन उन्हे आदेश था कि वे हमारे लंगर से कुछ भी नहीं लेंगे। कभी –कभी लेकिन वे अपने अफसरों से छिप कर कुछ ले लिया करते थे। हम एक दूसरे के विरोधी थे लेकिन हम क्यूँ डरते ? यह तो गुरु का लंगर है। हमारा नहीं इसमें सभी का स्वागत होता है।“

धर्मेन्द्र मालिक जो मुज़फ्फरनगर महापंचायत के ज़मीनी संयोजन के प्रमुख थे और प्राथमिक बी.  के.  यू.  से ताल्लुक रखते थे मुझे कह रहे थे-“गुरु नानक की 500 वर्ष पुरानी लंगर परंपरा की तरह ही हमारे खाप में भंडारे का प्रावधान है। भंडारा यानि कि बिना किसी बंदिश के सबके लिए खाना। जब खाप पंचायतें कोई भी आयोजन करती  हैं  तो बिना किसी पूर्वाग्रह के । गाँव के लोग पैसा और संसाधन इकट्ठा करते हैं, खाना पकाते हैं और सभी को अपने हाथों से परोस कर खिलाते  हैं। यह बलियाँ खाप का  आयोजन था। और चूंकि आंदोलनकारियों की संख्या विशाल थी दूसरे खाप समूह, मुस्लिम समुदाय और भारतीय जनता पार्टी की विरोधी पार्टियां इस मकसद में एकजुट थीं। कई सौ किलोमीटर तक भंडारे की व्यवस्था थी। सबको भरपेट खाना खिलाना ही सबका एकमात्र लक्ष्य था।“

संगठन

ज़मीन पर लंगर थोड़ा भिन्न तरीके से होता है। यह समझना ज़रूरी है कि प्रारम्भिक दौर में विभिन्न मुद्दों पर किसानों को एकजुट करने का काम संगठन (यूनियन) करते रहे। लेकिन संगठनों ने सर्दियों में उनके लिए तंबू नहीं ताने, बरसात और गर्मी में बांस के छप्पर नहीं छवाये  और लंगर नहीं आयोजित किये। सिंघू सरहद पर जहाँ अधिकांश संगठन मौजूद थे वहाँ भी किसान अपने रसोइये और लंगर बड़ी तादाद में साथ लाए। टिकरी और बहादुरगढ़ में जहाँ बी के यू एकता उग्रहण था और हरियाणा की खाप पंचायतों ने मिलकर  21 कि.  मी. लंबी सड़क को घेरा था।  वहाँ उन्होंने अस्थायी झोपड़ियाँ ब्लॉक और तहसील के स्तर पर बनाईं और छोटे समूहों में खाना पकाया। अधिकतर लंगर दिल्ली, तराई और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुरुद्वारों ने आयोजित किये।  ।

लंगर में सादा खाना परोसा जाता है-चपाती, दाल और कभी –कभी रसेदार सब्जी। अलबत्ता आंदोलन के सर्दियों वाले लंगर में बहुत विविधता रहती थी। नियमित खाने के अलावा वहाँ, पूड़ी आलू,  कढ़ी चावल, राजमा चावल, सरसों का साग, मक्की की रोटी, गुड, बाजरा की रोटी, बादाम मिल्क, चाय, बिस्किट, गाजर का हलवा, पिन्नी (आटे के लड्डू-बादाम किशमिश भरे हुए) ज़र्दा, (केसरी मीठे चावल) पुलाव, खीर, जलेबी, मैगी नूडल्स,उबला हुआ काला चना , सूजी का हलवा, फल(सेब, केले , संतरे),और  ट्रॉली पर ट्रॉली भरकर गन्ने का रस हुआ करता था। और तो और, सूखे मेवे ,खीर और पिज्जा, बर्गर भी लंगर का हिस्सा होते थे।


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आंदोलनकारियों ने  न सिर्फ अपना  खाना जुटाया बल्कि सिंघू –कुंडली स्थित, अगल –बगल की फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों और उनके बच्चों को भी 3 वक्त का खाना खिलाया।  जो भी उन्हें देखने आता था ,आंदोलनकारी उन सभी  को खाना परोसते थे। उन्होंने रोटी बनाने वालों और पूड़ी बेलने वालों की ऐसी चुस्त टीम तैयार की थी कि वे एक बार में 600 रोटीयां और पूरियाँ बना कर लोगों को खिला देते थे।  कॉफी मशीन एक बार में 40 लीटर कॉफी बना लेती थी और ढेर सारे भारी बर्तनों, चिमनियों, और लकड़ी के चूल्हों का ऐसा पुख्ता इंतज़ाम रहा करता था कि कोई भी भूखा नहीं रहता था। यही वह लंगर था जिसे दिल्ली के लोगों और अन्य राज्यों से आए अतिथियों ने अनुभूत किया।

इसके बाद  26 जनवरी 2021 को दिल्ली के लोगों ने भी उत्साह से प्रतिदान किया। वे कंबलों, गर्म जुराबों , थर्मल्स, जूतों, गीज़रों, और तेल की बोतलों के साथ हाज़िर हुए। जब सर्दी की बरसात कहर बरपा रही थी तो वे, तंबुओं, तारपुलिन, फोल्डइंग पलंग और स्टील के फ्रेम भी ले आए जिससे बारिश से बचाव हो सके। कुछ वाशिंग मशीन और तलवों की मालिश करने वाले यंत्र भी जुट गए। खालसा ऐड  और यूनाइटेड सिख ने कुछ दुकानें सजा दीं जहाँ से कोई भी अपनी जरूरत का समान मुफ़्त में उठा सकता था। इस तरह के सामानों को हम लंगर की श्रेणी में तो नहीं गिन सकते लेकिन इसके पीछे के जज़्बे को लंगर कहा जा सकता है। इसमें सेवा, सामूहिकता और साझेदारी का सुंदर भाव  शामिल था। खाने वाले लंगरों ने आंदोलनकारियों और सड़क पर चलने वाले लोगों की सुविधा का ध्यान रखते हुए, कुछ पारंपरिक नियम भंग किये और सर ढक कर खाना, नंगे पैरों बैठना, एक सीधी पंगत में बैठ कर खाने की अनिवार्यता नहीं रही। लोगों का पेट भरे बस  यही अनिवार्यता बनी रही।

26 जनवरी के बाद सरकार ने दिल्ली में भारी बैरीकेडिंग की और दिल्ली वालों की पहुँच को बाधित किया इससे मददकर्ताओं की संख्या घट गई। लेकिन इसके बाद भी आंदोलन बना रहा और लंगर  चलते रहे।


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रसद

जब किसान दिल्ली की ओर 2 ट्रॉलियों में बढ़ने लगे ,एक जिसमें लोग बैठे थे और दूसरे जिसमें रसद (खाने पीने का समान)-आटा, चावल, आलू, प्याज़, तेल, घी, लकड़ी, पाथी(उपले) रखे होते थे जो गाँव में सहजता से मिल जाया करते थे। यूनियन के नेताओं को भी पता नहीं था कि आंदोलन कितने दिनों तक चलेगा लेकिन मोटा-मोटी अनुमान लगाया जा रहा था कि एक हफ्ते से एक महीने तक ही शायद। उस हिसाब से किसानों के पास पर्याप्त रसद था। किसान फतेहगढ़ साहब के जोर मेले और आनंदपुर साहेब के होला मोहल्ला में शिरकत किया करते थे और कहीं भी घर बनाने के आदि थे। वे ट्रालीयों का इस्तेमाल इसके लिए किया करते थे और यह अभ्यास आंदोलन के लिए भी काम आया।

इस दौरान सरकार और किसानों के बीच की बातचीत खिंचती  गई और कोई भी  हल नहीं निकला। इससे किसानों को अंतर्दृष्टि मिली  कि उन्हें अब लंबे आंदोलन के लिए तैयार हो जाना चाहिए। गाँव –गाँव में इच्छुक आंदोलनकारियों की सूचियां बनने लगीं। लोग एक हफ्ते आंदोलन स्थल पर भागीदारी करते फिर अपनी ट्रैक्टर –ट्राली ले वापस हो जाते। फिर अगला जत्था दिल्ली की ओर कूच करता। लोगों को अनुदान देने का आह्वान किया जाता और गाँव -गाँव से लोग अपनी सामर्थ्य अनुसार अनुदान देते। जैसे- जैसे मौसम बदलता उन्हीं ट्रालीओं में कूलर और फ्रिज आंदोलन स्थल तक पहुंचाए जाते। इस तरह पंजाब, हरियाणा,राजस्थान,उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के भी कुछ गाँवों ने सेवा के जज़्बे और लंगर की पवित्रता को बनाए रखा।


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हरियाणा के गाँव खासतौर से आंदोलन के स्थलों के पास वाले गाँवों ने शुरु से ही बहुत हौसले वाली भूमिका निभाई। वे रोज़ ताज़ा दूध, दही, लस्सी और सब्जियों की आपूर्ति करते थे। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के किसानों को ज़्यादातर पुलिस से छिप-छिप कर मदद करनी पड़ती थी या आंदोलन में भाग लेना होता था। वहाँ के कितने ही आंदोलनकारी बस एक चादर या कंबल और दो जोड़ी कपड़े लेकर आंदोलन में भाग लेने आए। दिल्ली के गुरुद्वारों, राहत संस्थानों, सिखों की  लोकहित  संस्थाओं , साधारण लोगों और विदेशों में बसे  सहिष्णु समर्थकों  ने उनकी खूब मदद की । उन्हे पैसे भी दिए और ज़रूरत की सामग्री भी उपलब्ध करायी। रसोई और गोल्डन हट जैसे स्थानीय ढाबों ने अपना दैनिक व्यापार बंद कर उन्हें मुफ़्त में खाना खिलाया और शौचालयों की व्यवस्था की। रसोई में स्वच्छता बरती जाती थी और कुछ ही दिनों के आंदोलन के बाद प्लास्टिक की प्लेटें और स्टाइरोफ़ोम के कपों  के स्थान पर स्टील के बर्तनों में खाना परोसा जाने लगा। इसी तरह स्वास्थ लंगर भी लगाये गए और डॉक्टरों और दवाइयों की व्यवस्था हुई। ढेर सारे पुस्तकालय भी खड़े हो गए और स्थानीय बच्चों को पढ़ाने का नेक काम भी साथ-साथ होने लगा। 


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निष्कर्ष

जिस क्षेत्र से किसान आंदोलन में उतरे हैं उसने देश को हरित क्रांति के फलस्वरूप पिछले 50 वर्षों से अनाज उपलब्ध कराया है। आंदोलन के मूल में हरित क्रांति के दूरगामी नकारात्मक प्रभाव हैं जिसे आजतक किसी भी सरकार ने निष्प्रभाव करने की कोशिश ही नहीं की। रूढ, कठोर कृषि कानून संसद में वॉयस वोट से पारित हुए और यह दरअसल उसी सहचर पूंजीवाद की ताकत है जो सरकार को प्रभावित कर कहती है,-किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल  करो और उनका निजीकरण कर उन्हें निगमवाद की संरचना में ढाल दो। सरकार, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाईजेशन और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड  के दबाव में बिग टेक को लाभान्वित करना चाह रही थी जो बिग डाटा पाने को उत्सुक थे जिससे कृषि क्षेत्र को धूर्तता से अपनी  उंगली पर नचाए जा सके। एक साल के विरोध प्रदर्शनों के बाद यह साफ हो गया कि चाहे बड़े अंतर्राष्ट्रीय संस्थान हों, बड़ी टेक कंपनियाँ हों, सप्लाइ चैन का निर्धारण करने वाली प्रबंधन कंपनियाँ हों या राष्ट्र राज्य हो, कोई भी न तो इस आंदोलन को मिटाने की क्षमता रखता था या लंगरों को बंद करवा सकता था।

क्या सेवा का कोई मोल लगा सकता है?

किसान जो वर्दी पहनने पर देश के रक्षक सैनिक भी हो जाते हैं सभी को एक संदेश प्रसारित करना चाह रहे थे-किसान नहीं तो खाना नहीं! और इस संदेश का प्रसारण वे मुफ़्त का खाना, मुफ़्त की रिहाइश , मुफ़्त के कपड़े , मुफ़्त की स्वास्थ्य सेवा, मुफ़्त की शिक्षा के साथ कर रहे थे और सरकार से सवाल पूछ रहे थे – आप लोगों की ज़िंदगी में क्या योगदान कर रहे हैं? आंदोलन के शुरुवाती समय से जब लोगों से यह पूछा जाता था –क्या सरकार सुनेगी? लोग कहा करते थे –उसे सुनना पड़ेगा! यह लोगों के भीतर का हौसला था जो सेवा एवं लंगर के मिलेजुले भाव से उत्पन्न और कायम रहता था।

पोस्ट स्क्रिप्ट:11 नवंबर 2021 , गुरु नानक जी की 552 वीं जन्मतिथि के दिन, पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आने वाले चुनावों के मद्देनजर सरकार थोड़ा पिघली और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एकतरफा  निर्णय लेते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया। शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन, संसद में औपचारिक रूप से भी तीनों कानून वापस ले लिए गए। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस औपचारिक घोषणा के बाद ही अपना आंदोलन वापस लिया। अभी भी कुछ मांगों का पूरा होना बाकी है ; 23 अनाजों के लिए वैधानिक समर्थन मूल्य, बिजली के निजीकरण संबंधित कानूनों का वापस लेना, कठोर प्रदूषण  कानून और आंदोलन के दौरान  किसानों पर थोपे गए  50 हजार केसेज़ का वापस होना। सरकार ने मांगें पूरी करने का आश्वासन दिया है । दिसम्बर 9, 2021 को आंदोलन वापस ले लिया गया लेकिन सरकार अभी भी किसानों से किये गए वादे पर अमल करती नहीं दिखलाई पड़ रही है ।

सुखजीत सिंह के विस्तृत इनपुटस से साभार


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