भूली बिसरी घटनाओं को खाने से जुड़ी यादों के साथ दर्शाने वाला सबसे लोकप्रिय साहित्य, शायद उसी किताब में दर्ज है जिसे मार्सल प्रूस्त ने रेमेंबरन्स ऑफ थिंग्स पास्ट में शिद्दत से अंकित किया है।
19 वीं और 20वीं सदी के शुरुआती दौर में प्रूस्त ने सात खंडों में इस क्लासिक की रचना की। किताब में चार्ल्स स्वान नाम का नायक, एक बार आयताकार टी केक के एक टुकड़े को खाता है, जिसके बारे में विवरण है कि वह मेडेलीन से बना है जिसे कुछ समय के लिये नींबू के फूलों से बनी चाय में डुबो कर रखा गया था।केक के टुकड़े को खाते ही नायक के भीतर बचपन की स्मृतियों का समृद्ध कोश खुलने लगता है।फिर गहरे दार्शनिक विश्लेषण जन्म लेने लगते हैं जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि कैसे युगों से सँजोई स्मृतियाँ किसी खास ट्रिगर से मुक्त हो, मनुष्य के भीतर से बाहर आने लगती हैं।इतना महत्वकांक्षी तो नहीं रहा है मेरी यात्राओं और खाने का संबंध लेकिन आश्चर्यजनक रूप से यह भी सच है कि मेरी अनेक यात्राएं इसलिए भी यादगार बन पड़ीं क्योंकि वैविध्य से भरा खाना उनका अविभाज्य हिस्सा रहा।
खाना कभी सबसे अहम नहीं रहा हमारे दिमाग में, लेकिन यात्राओं के अनुभव उस दौरान खाए गए खानों के बिना अधूरे प्रतीत होते हैं आज। खाना, उससे जुड़े लोग और उसकी विशिष्टता सबने मिलकर हमारे अनुभवों को समृद्ध किया है।
सन 1978 में गुजरात से मैंने शिल्पकला और कारीगरी से जुड़ी अपनी यात्राओं को प्रारंभ किया था। उस दौर में वहाँ हाइवे पर स्थित साधारण ढाबे भी बहुत साफ सुथरे, सुरक्षित और सस्ते होते थे। सादे खाने की एक थाली में बड़े आकार की रोटियाँ, बड़े कटोरे में भरी दाल, खूब सारा सफेद मक्खन, तली हुई नमकीन हरी मिर्चें और छाछ हुआ करता था जो सब का सब इतना ताज़ा मिलता था कि उसे दोबारा गर्म करने की ज़रूरत नहीं होती थी। कच्छ का इलाका, सूखा धूल भरा और कंटीली झाड़ियों से आच्छादित रहता था।हमने उन दिनों बहुत सारे गाँवों का दौरा किया लेकिन गाँव-होडका हमारा बेस कैम्प हुआ करता था, जो बन्नी भूभाग के विस्तार में बसा हुआ था। गाँव पहुँच हम ज़मीन पर बैठ कर महीन कारीगरी से बनी-रज़ाइयाँ, तोरण, चकले, कंजीरी और घाघरों को देर तक निहारा करते थे और उन्हें जिज्ञासा से पढ़ा करते थे। ये चीज़ें युवा लड़कियों और औरतों द्वारा तैयार की जाती थीं और उनके दहेज का हिस्सा होती थीं। हम उनके रंगों, उनके विन्यास और उनके समुदाय से जुड़े परंपरागत रूपांकन पर मनन करते थे और फिर बाद में उनके साथ सलाह- मश्विरा कर शहरी बाज़ार को आकर्षित करने के बहुआयामी तौर-तरीकों पर सहमति बनाते थे। ऐसे तरीकों पर अमल करने की बात होती थी जिसमें स्थानीय कारीगरी की अस्मिता पर आघात न पहुंचे और परंपरागत सिलाई – बुनाई और रंग बने रहें। यह सब करने में समय तेज़ी से बीत जाता था और हम अचानक देखते थे कि देखे जा रहे कपड़ों का पहाड़ एक ओर फेंक दिया गया है और स्टील की थालियों ने उसकी जगह ले ली है। तीन खासे मोटे बाजरे के रोटले के साथ हरी मिर्च और प्याज़ एक संग पकाकर इस सब्ज़ी विहीन इलाके में सब्ज़ी का आभास दे दिया जाता था जिसे खूब सारे मक्खन, असीमित वाड़कियों और छाछ के साथ प्रेम के साथ खाया जाता था। भयानक लू से बचने के लिए सामने कटे हुए कच्चे प्याज़ का ढेर लगा दिया जाता था।
दूध से बनी चीज़ों को परोसने में उनकी उदारता देखते ही बनती थी। दरअसल ये सारे परिवार चरवाहों के परिवार थे। नंगे पैरों वाली समुदाय की औरतें खामोशी से धूप में सुखाए उपलों पर बैठ रोटलों के इतने ढेर खड़ी कर देती थीं कि उनकी छवि अपरंपार लगने लगती थी। आज होडका गाँव की हैसियत बढ़ कर एक शानदार टूरिस्ट रिज़ॉर्ट की तरह हो गई है। यहाँ पारंपरिक संगीत, सैलानियों के लिए कलात्मक कुटीर, स्थानीय कलाकारों द्वारा शाम के मनोरंजन के लिए आयोजन और हमारे देखे 40 साल पुराने दिनों के रोटलों, दाल, मक्खन और छाछ के नए सजे- धजे अवतार की व्यवस्था रहती है।
कच्छ में हमारा दूसरा पड़ाव धमाड़का था और फिर अजरकपुर जो भुज के पास पड़ता है।वहाँ हमें सुविख्यात खत्री परिवार के सदस्यों के साथ काम करने का मौका मिला। मोहम्मद भाई सिद्दीकी जो परिवार के मुखिया थे, उनसे शुरुआत कर हम उनके तीन बेटों, रज़ाक भाई, इस्माइल भाई और जब्बार भाई के साथ भी जुड़े। 90 के दशक से आज तक उनके कितने ही नाती-नातिनें, पोते- पोतियाँ हो चुके होंगे लेकिन आज भी मुझे उनका खिलाया लाल मिर्च का भरवां अचार, स्वादिष्ट मटन करी और एक खास तरीके की दाल जिसमें से लहसुन और मसालों की चमत्कारिक सुगंध उठती थी और बाहरी दरवाज़े तक पहुँच जाती थी, बहुत याद आते हैं।
शुरुआती यात्राओं के दिनों में सौराष्ट्र अकाल ग्रस्त हुआ करता था। वर्ष दर वर्ष बारिश नहीं आ रही थी। उन्ही दिनों अपने नन्हे बच्चों के साथ मैं 48-50 डिग्री तापमान में एक एसी रहित गाड़ी में चला करती थी जो उस वक्त साहसिक लगता था। मैं बच्चों को उन जगहों से परिचित करवाना चाहती थी जिनमें मैं रहा करती थी अपनी यात्राओं के दौरान। भीषण गर्मी थी और कोला पेय की एक बोतल तलाशते वक्त हमें एक विचित्र सा पेय मिला जिसका नाम सोसयो था। लेकिन उसे पीकर बात बनी नहीं और अंततः उस दिन 17 छाछ के ग्लास पीकर बच्चों ने अपने गले को तर किया और गर्मी से अपना बचाव किया।
मुझे नैशनल कमीशन ऑफ वीमेन ने उत्तर प्रदेश के दरी और कालीन बुनाई के लिए सुविख्यात क्षेत्र मिर्ज़ापुर में औरतों के हालात जानने के लिए भेजा। वहाँ औरतों को अपनी उंगलियों के हुनर की बदौलत काम तो मिल जाता था लेकिन उनको मिलने वाली पगार बहुत कम और और काम करने का वातावरण दुश्वारियों से भरा था। 700 औरतों का एक समूह था जिसमें आस-पास के गाँवों से आने वाली औरतों थीं। ये औरतें हमारे साथ गए सरकारी अधिकारियों को लगातार अपनी खराब हालत की सुनवाई से संबंधित याचिका पेश कर रही थीं। मैंने खुद उनके काम करने की संकरी जगहों और उनकी गरीबी की कहानी कहते घरों को देखा था। जब मैं वापस जाने के लिए स्टेशन की ओर चलने लगी तो उन औरतों ने खास उत्सवी अवसरों पर इस्तेमाल होने वाले, अपने हाथों से बुने टोकरे मुझे भेंट किये और कहने लगीं-“आप पहली हैं जिन्होंने हमारे दुख दर्द को सुना।” मैंने तभी सोचा, मैं क्यों ना उनके लिए बेहतर काम करने के वातावरण और बढ़ी हुई पगार के लिए प्रयास करूँ?
समय गुज़रता गया। इसी बीच एक बैंक ने हमारी दस्तकारी हाट समिति से संपर्क किया और हमें अपनी पसंद की किसी भी ग्रामीण विकास योजना को शुरु करने के लिए कुछ पूंजी देने की पेशकश की। उन 2 लाख रुपयों की पेशकश और श्रीलंका से लाई हुई कलात्मक घास से बुनी टोकरियों को ले मैंने तय किया कि गाँव–गाँव जाकर कारीगर औरतों के बीच यह बात रखूंगी- कि औरतें इस तर्ज़ की और सुंदर टोकरियों को बनाएं। इस जानकारी को साझा करने के लिए हम कभी उन कारीगरों के घरों में बैठे कभी आग उगलती गर्मी में हल्के छायेदार आम के पेड़ों के तले। उन बैठकों के दौरान औरतों ने कच्चे आमों को तोड़ लिया था और उन्ही में से कोई 4 रुपयों का जुगाड़ कर बाज़ार से एक सस्ता चाकू खरीद लाया था जिससे आमों की फाँकें की जा सकें। कोई दूसरा कागज़ की पुड़िया में नमक और लाल मिर्च की बुकनी ले आया और इस तरह काम के बीच तरोताज़ा होने के लिए हमें प्यारा सा खट्टा ब्रेक मिल गया था। इन बातचीत के सत्रों का उद्देश्य औरतों को अपने हुनर से पैसे कमाने के लिए प्रेरित करना था; कैसे वे बाज़ारों में अपनी चीज़ों को बेच सकती हैं और अपने जीवन जीने के स्तर को बेहतर कर सकती हैं। यह जानकारियाँ आँख खोलने वाली थीं क्योंकि औरतों ने कभी नहीं सोचा था कि वे अपने बुनाई के हुनर से ढेर सारे पैसे भी कमा सकती हैं। बैंक की मदद से हमने बहुत सारी कार्यशालाएं नामी डिज़ाइनरों के मार्गदर्शन में करवाईं और इतना सामान तैयार कर लिया कि दिल्ली में उसकी प्रदर्शनी लगा लें। कार्यशालाओं के लिए औरतों को उनके घरों से उनके पति या अन्य मर्द साइकिलों पर लेकर आए। और कार्यशाला के घंटों मे जब औरतें अपने तैयार सामानों में नए रंग एवं डिज़ाइन उकेरती थीं तो उनके साथ आए मर्द, अपनी औरतों के काम खत्म होने का इंतज़ार करते हुए पेड़ों के नीचे सुस्ताते थे। हम जानते थे कि मर्द अपने घर की औरतों को मिलने वाले वजीफे के लिए उनका इतना सहयोग कर रहे हैं।
बहरहाल औरतों को खूब मज़ा आ रहा था और वे बीच –बीच में मिलने वाले आइसक्रीम ब्रेक का बेसब्री से इंतज़ार करती थीं।
मध्य प्रदेश ने खाने को लेकर अनगिनत सुंदर यादों से भरा। जब भी मैं बाटिक डिज़ाइन के उत्थान के लिए काम करने, श्रीलंका की जानी मानी डिज़ाइनर ईना डा सिल्वा के संग जाती जिनकी तस्वीर वहाँ ऑफिस में टंगी है तो उस तस्वीर की याद भी कर ली जाती जिसे मेरी युवा सहकर्मी चारु वर्मा ने उतारा था। तस्वीर में, मैं शहर के बाहरी इलाके में खुले आकाश तले के एक ढाबे में मज़े से खाना खा रही हूँ।इस तस्वीर को याद कर हम हर बार खूब हँसते थे।
दरअसल यह ढाबा एक छोटी नदी किनारे स्थित है और खास व्यंजन, दाल-बाटी-चूरमा के लिए अत्याधिक प्रशंसित। बाटी एक कड़े गेंद की तरह होती है जिसमें भुने हुए आटे, सूजी, मसालों और बेसन का मिश्रण होता है।इसे खाते वक्त चूर किया जाता है, फिर ऊपर से उसमें दाल ढारी जाती है और सभी को एक साथ मीसा जाता है। मैंने इस व्यंजन को खाने की इस पद्धति का यत्नपूर्वक पालन करने की कोशिश की और बुरी तरह असफल रही। वह पत्थर जैसी बाटी मुझसे टूटे- ना टूटती थी। सारे कारीगर मेरी परिस्थिति देख मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। तभी ढाबे का मालिक मेरी थाली पर टूट पड़ा और अपने विशाल तैलीय हाथों से मेरी बाटी को चूर करते हुए उसपर जल्दी से दाल ढारने लगा। मेरा दिल आशंकाओं से भरा जा रहा था लेकिन मैं उस शख्स पर झूठी मुस्कुराहटें न्योछावर करती जा रही थी। चारु ने मेरे इसी मनोभाव को अपने कैमरे में कैद कर लिया था और इसपर लोगों ने खूब तालियाँ बजाई थीं।
इसी प्रदेश में छोटे से ना भूलने वाले शहर चँदेरी में हमारा अगला पड़ाव रहा था। चँदेरी में जहाँ एक ओर बेहद सुंदर ऐतिहासिक इमारतें हैं वहीं गजब के हुनरमंद हथकरघा पर काम करने वाले कारीगर भी बसते हैं। ये कारीगर विविध रंगों से भरी महीन ज़री की साड़ियाँ तैयार करते हैं। ज़ाहिर टुनटुनि जो ऐसे ही हुनरमंद कारीगर हैं हमारे मेज़बान थे।
जब हम कारीगरों के परिवारों से मिलते हैं तो वे हमें हमेशा ही खाने के लिए आमंत्रित करते हैं। ज़ाहिर ने भी हमें आमंत्रित किया लेकिन इस बार हमने मटन करी और किसी भी प्रकार के और खाने के बजाय, गुज़ारिश की–हमें फल खाने का मन है। उस भीषण गर्मी में आम, तरबूज़, केले और अंगूरों से भरे कटोरों ने हमें कितनी राहत दी क्या कहा जाए! अंत में रंगबिरंगे कटोरों को देख मेरे मन में शरारत उपजी-मैंने साथियों से कहा- “मेरी इन कटोरों के साथ ऐसी तस्वीर ली जाये जिसे देखने वाला समझे कि अकेले मैंने इन कटोरों में भरी चीज़ों को उदरस्थ किया है।” ऐसा ही हुआ! अंतिम दिन ज़ाहिर ने सुझाव दिया कि राम नगर झील के पास स्थित पुराना क़िला ज़रूर देखना चाहिए। हम सब गए और ज़ाहिर ने हमारे लिए इतनी उम्दा दाल, रोटियों के संग पकाई कि मानना पड़ा, ज़ाहिर न सिर्फ उम्दा कारीगर हैं बल्कि उतने ही उम्दा बावर्ची भी।
शांत सुंदर झील के किनारे, भव्य क़िले के अवशेषों के बीच ज़ाहिर और उनकी टीम आटा गूँथ रही थी और एक बड़े भारी बर्तन में ऐसे दाल हंडोंड़ रही थी जैसे शादी ब्याह के अवसरों पर बावर्ची किया करते हैं। हमने साथ लाए अखबारों को बिछाया और कागज़ की प्लेटों में जम कर खाना खाया।प्यार और उत्साह से पकाई उस सादी दाल रोटी का स्वाद किसी भी पाँच सितारा होटल के भोजन के स्वाद से कई गुणा बेहतर था।
ओडिशा के कारीगर अत्यंत मृदुभाषी होते हैं। अपीन्द्र स्वाईं उसी रघुराजपुर गाँव के हैं जिसे यूनेस्को ने कलाकारों का गाँव नाम से विश्व विख्यात पहचान दी है। वे प्याज़–लहसुन नहीं खाते हैं। जब हमने उन्हें एक प्रदर्शनी के सिलसिले में दो हफ्तों के लिये सिंगापुर भेजा तो वे अपने साथ ढेर सारा चिवड़ा रखकर ले गए। हमने सिंगापुर के अपने मेज़बानों से अनुरोध किया था कि वे एक छोटा प्रेशर कुकर, राइस कुकर और स्टोव उनके कमरे में रखवा दें जिससे उनको मन का खाना पकाने की सुविधा मिल जाये।इस बात ने उनको हमारे प्रति प्रेम से भर दिया और उसके बाद वे जब भी दिल्ली हमारे ऑफिस में मिलने आते तो हमारे लिए अपने घर का बना वह स्वादिष्ट चिवड़ा हमेशा लाते। अगर मुझे पता होता कि उसे बनाने की विधि क्या है, तो मैं उसे आपके साथ ज़रूर साझा करती। लेकिन मेरे बार-बार पूछने के बावजूद वे शर्मा कर बहाने बनाने लगते और उलट मुझे आश्वस्त करते कि वे जब तक हैं इस चिवड़े की आमद पर कोई बंदिश नहीं होगी और मैं कभी उसकी कमी महसूस नहीं करूंगी। इनके बरक्स प्रतिभाशाली रबीन्द्र बेहर अधिक महत्वकांक्षी और साहसी हैं। वे प्रत्येक दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर दर्शन करने जाते हैं और जब दिल्ली आते हैं तो जय जगन्नाथ का हुंकारा भर कमरे में घुसते हैं और ताड़ के पत्तों से बने डब्बे में रखा प्रशाद पकड़ा देते हैं। जब हम उनके घर गए थे तो उन्होंने हमें अद्भुत स्वाद वाले केले खिलाए थे और अपनी शादी का विडिओ एक छोटे से कमरे में बड़े से स्क्रीन पर बहुत उत्साह से दिखलाया था। आतिथ्य सचमुच कैसी – कैसी सुंदर शैलियाँ अपनाता है !
जम्मू एवं कश्मीर के पास एक विभाग हुआ करता था-तवाज़ा, जिसका मतलब खातिरदारी होता है।यह विभाग उत्सवों एवं विशेष आयोजनों पर राज्य के महत्वपूर्ण अतिथियों की देखभाल करता है। 2000 के बाद जब उग्रवाद कुछ थमा तब मैं वहाँ गई थी और गलियों में भटकते हुए एक खास शिल्पकार के घर ढूंढ रही थी। इन्ही गलियों में भारी रक्तपात हुआ था।जब मैं उस शिल्पकार का घर ढूंढ रही थी तो एक घर के दरवाज़े को खोल, भीतर से एक सज्जन निकले जिन्होंने मुझे उस शिल्पकार का पता देते हुए, अपने घर एक कप चाय के लिए आमंत्रित कर दिया और यह भी कहा कि अगर मैं चाहूँ तो उस शिल्पकार को वे अपने घर ही बुला लें। उसके बाद से जब भी वहाँ के शिल्पकार और कारीगर यह सुनते हैं कि हम वहाँ जाने के लिए अपनी फ्लाइट बुक कर रहे हैं तो वे तत्काल ही हमें अनगिनत खानों के निमंत्रण दे देते हैं। सुबह के नाश्ते से, दोपहर के भोजन और रात के खाने तक सब की बुकिंग पहुँचने से पहले ही हो जाती है। पूरे खाने के अलावा चुटपुट खानों का भी भरपूर इंतज़ाम रहता है; नमकीन और मीठे बिस्किट, केक, भुना चिकेन,अखरोट और सेब।और जब ठीक से परिवार के साथ खाने बैठे तो चावल के ढेर के साथ, सीख कबाब, तबाक माज़, रोगन जोश,रिस्ता,गुश्ताबा, चिकेन करी, यखनी और हाक साग के साथ एक मसनद भी खाने वाले को दे दिया जाता है जिसपर टिक कर इतने ढेर भोजन के बाद खाने वाला आराम से पसर जाए।
हकीम ग़ुलाम मोहम्मद पारंपरिक हकीम और पेपरमैशि कलाकार हैं।वो सिर्फ श्रीनगर में हमें खाना नहीं खिलाते थे बल्कि घर लौटते वक़्त वे हमारे लिए क्रैब एप्पल (जंगली सेब) और शीशी बंद शहद पैक कर देते थे। दिल्ली में हमारे साथ एक परियोजना पर अपने बेटे निजामुद्दीन के साथ काम करते वक़्त वो हमारे लिए स्वादिष्ट मीट और साग या क्रैब एपल्स के व्यंजन पकाते थे। और मेरे लाख मना करने के बावजूद मेरे लिए हमेशा ले आते थे। भोगल के इलाके में रहने वाले अनेक कश्मीरियों से वे सर्दी में खाए जाने वाले अनेक किस्मों के साग भी ले आते थे और प्रेमपूर्वक भेंट करते थे।
सुदूर उत्तर पूर्व इलाकों की यात्राओं ने हमेशा ही नई चीज़ों से अवगत कराया। नए ढंग की जीवन शैली, नए ढंग का खान-पान। मैं उन दिनों गूगल आर्ट्स एवं कल्चर टीम के लिए दस्तावेजीकरण का काम कर रही थी। मेरे साथ युवा सहकर्मी अंकित और प्रतिभाशाली फोटोग्राफर सुबीनॉय भी थे। हम टोकरी-बास्केट बनाने वाले सैकड़ों कारीगरों के घर जा चुके थे जब त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री राधाबिनोद कोइजायां ने हमें खाने का निमंत्रण दे डाला जो अद्भुत अनुभव रहा। जो भी मणिपुर के किसी भी उत्सवी भोज का हिस्सा रहा है वह जानता है कि कैसे वहाँ के लोग उत्सव के लिए खास पोशाक पहनते हैं और बहुत सलीके से खाना पेश करते हैं। वे सर पर सफेद साफ़ा बांधते हैं, फिर सफेद कुर्तों के साथ ऐसी बुर्राक सफेद धोती पहनते हैं जिसे देख मणिपुरी नर्तकों की संगत करते ढोल वादकों की याद आ जाती है।हर व्यंजन केले के साफ पत्तों पर रख कर पेश किया जाता है। कटोरियाँ भी केले के पत्तों से बनाई जाती हैं और किनारे रख दी जाती हैं। व्यंजनों में खास किस्म के साग जरूर होते हैं और ऐसे व्यंजनों की बहुतायत होती है, जिन्हें स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद बताया जाता । दालें बहुत हल्की होती हैं और मिर्चें बहुत तीखी। इनको खाकर यह विश्वास पुख्ता हो जाता है कि भारत में खाना पकाना और पेश करना अच्छे सामुदायिक व्यवहार का पुख्ता प्रमाण है और भारत के स्नेही सांस्कृतिक व्यवहार का परिचायक।
और अंत में थेमबांग की उस अविस्मरणीय यात्रा का ज़िक्र कैसे न करूँ? थेमबांग अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमी कामेंग जिले का एक छोटा सा गाँव है जो 2169 मीटर की ऊंचाई पर दिलकश पहाड़ों के बीच बसा है। पहाड़ों के नीचे घाटी में सुंदर दिरंग नदी बहती दिखलाई पड़ती है।
थेमबांग में मुख्य स्थल भव्य ज़ोन्ग किला है जो लकड़ी एवं पत्थर से सन 1100 ईसवीं में बना था। यूनेस्को ने इसे धरोहर गाँव (हेरिटेज विलेज) का दर्जा दिया है। यहाँ के लोग मोनपा कहलाते हैं। इन्होंने सदियों से तिब्बती लोगों के साथ व्यापार किया है और याक का ऊन, मक्खन, चीज़ और घी का सौदा किया है। मोनपा, समुदायिक जीवन का बहुत सम्मान करते हैं और जैविक ढंग से सब्जियों की अनेक किस्मों को उगाते हैं। ये फलों के बागान भी लगाते हैं और सैलानियों के लिए होम स्टे यानि अपने घर पर प्रवास की व्यवस्था भी करते हैं। अपने निजी जीवन के आवश्यक हिस्से की तरह ये हथकरघा का काम भी करते हैं जिसमें मेरी अतिरिक्त रुचि थी और जिसका मैंने गूगल आर्ट्स और कल्चर प्रोजेक्ट के लिए दस्तावेजीकरण भी किया। (https://artsandculture.google.com/project/crafted-in-india). उस जगह की प्राचीनता के आकर्षण की तरह ही वहाँ का खाना भी अपनी विलक्षणता के कारण उतना ही आकर्षक था। आपको यकीन नहीं होगा कि हमारे खाने में क्या–क्या था! दोपहर के खाने में कूटू के पत्ते, चाइव (एक तरह की प्याज़) जंगली लीक (गंदना), दानेदार हरे पत्ते, लाल और हरी मिर्च की चटनी जिसे एमा दातसे कहा जाता है, चावल, जिसमें स्थानीय लाल चावल शामिल था, मछली का स्टू, भपाये डम्पलींग्स, दाल, भपाई पत्ता गोभी, हरी बीन्स (फलियाँ), स्थानीय साग और चिकेन करी था। और तो और स्थानीय बेकरी में तैयार किया गया, रागी ब्रेड भी उसी खाने का हिस्सा था।
शिल्पकारी पर आधारित मेरी ज़्यादा यात्राओं में खाने की विविध यादों का ऐसा जखीरा दर्ज होगा यह नहीं जानती थी। लेकिन जब आप कारीगरों और शिल्पकारों के परिवारों के संग इतने समय तक, आत्मीयता से जुड़ते हैं तो यकीन कीजिए खाए बिना उनके यहाँ से लौट नहीं सकते।
खाना आखिरकार सिर्फ स्वाद नहीं, दोस्ती भी तो है!