अब जब मैं 70 बरस की हो गई हूँ, तब जाकर मैं खाने का आदर करने लगी हूँ। अब मैं समझ चुकी हूँ कि खाना सिर्फ खाकर निपटाने की चीज़ नहीं है बल्कि उसे खाने के विविध तरीके होते हैं और उसकी मात्रा तथा गुणवत्ता का सही होना, निहायत ज़रूरी है। मैं यह भी समझ चुकी हूँ कि जो खाना मैंने खाया है, वह कितनी देर तक नहीं पचेगा, इसे खाने के बाद मैं कितनी संतुष्ट और सुखी रहूँगी और कितनी देर तक संभावित अपच की शिकार और दुखी भी। दूसरे शब्दों में इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि मुझे अब यह पता चल जाता है कि मैं अमुक खाने को खाते वक़्त समझदार और लीक पर चलने वाली बनी रही हूँ या हड़बड़ी में अविवेकी और अतिवादी हो गई हूँ। दरअसल ऐसा लगता है जैसे मेरा शरीर खाने से भरे पलड़ों के संतुलन पर टिका है आजकल। बस एक चम्मच अधिक आइसक्रीम खा लूँ तो संतुलन बिगड़ जाता है और भारी गड़बड़ हो जाती है।
जीवन की स्मृतियों में पीछे लौट कर जाती हूँ तो बचपन कौंध जाता है और याद आता है-कैसे बचपन में हमें परोसा हुआ खाना पूरा खत्म करना होता था और कैसे यह बात पवित्र नियम की तरह हमारे घर में लागू हुआ करती थी। हम उस नियम को कभी भंग नहीं कर सकते थे।
हमारा परिवार सेना से ताल्लुक रखता था। मेरे पिता उन दिनों राष्ट्रीय रक्षा अकादमी खड़कवासला में बतौर कमांडेंट नियुक्त थे। एक दोपहर वे घर आए और मुझे खाने की प्लेट में पड़ी भिंडी की सब्ज़ी को देर तक ताकते हुए देख लिया। माँ ने उन्हें बताया कि मैं उस भिंडी को खाने का इरादा नहीं रखती हूँ। यह सुन पिता अपनी प्लेट के आगे बैठ गए और खाते-खाते तमाम तरह के किस्से बाँचने लगे। जब वे अपना खाना खत्म कर चुके तो अपने हाथ धोकर वापस मेरी ओर लौटे और मेरे नज़दीक बैठ गए। उन्होंने कहा- “कोई बात नहीं। तुम आराम से खाओ। जब तक तुम खा नहीं लेती मैं तुम्हारे पास बैठूँगा। तुम चाहो तो हम गप्पें भी लड़ा सकते हैं।”
यह अजीब था! कहाँ तो मैं उनसे सहानुभूति की उम्मीद लगाए बैठी थी और कहाँ वे..! इस बीच माँ वहाँ से जा चुकी थी। कौशल्या, जो दुनिया की सबसे दयालु धाय माँ थी और प्यार से मेरा हिस्सा खत्म कर सकती थी, वह भी खाने के कमरे से जा चुकी थी। यह सब देख मुझे रोना आने लगा। पिता इस पर हँसने लगे थे। मैं बेहद हठी थी और पिता बेहद उदार और तरल संवेदनाओं से भरे हुए; लेकिन इसके बावजूद वे मेरे पास से उठकर नहीं जा रहे थे। उनकी गाड़ी का ड्राइवर इंतज़ार कर रहा था लेकिन उन्होंने उसे भी कह दिया था, “लीला भिंडी खा लेगी फिर हम चलेंगे।”
मुझे खराब लगा। लगा अब तो पूरे रक्षा अकादमी परिसर में यह बात फैल जाएगी कि लीला ने सब्ज़ी नहीं खत्म की। इस ख्याल के आते ही मैंने फटाफट भिंडी खा ली! मज़े की बात है, उसे खाना इतना मुश्किल भी नहीं लगा। कुल चार टुकड़े ही रहे होंगे। सच तो यह है कि पिता ने मुझे गरीबों के हालात, देश के प्रति ज़िम्मेवारी या ज़िंदगी में नैतिकता का महत्व जैसे विषयों पर कोई भाषण नहीं दिया, सिर्फ अत्यंत सहृदयता से खाना खाने की ज़िम्मेदारी और खाने के महत्व के बारे में जरूरी बातें समझा दीं और इस सीख को ज़िंदगी भर के लिए मैंने अपने जेहन में उतार लिया। पिता ने उसके बाद कई लोगों से मेरी प्रशंसा की और कहा- ‘कितना शानदार काम किया उसने!’
Leela with her father
हमारे घर का खाना कई पीढ़ियों के सुखद प्रभावों का सम्मिलन था। मेरे नाना रेल विभाग में काम करते थे। वे बहुत दिनों तक पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में स्थित, आसनसोल शहर में पदस्थ थे। मेरी नानी घर पर रहकर अपने 6 बच्चों की देखभाल तो करती ही थीं, हर उस रिश्तेदार और आने-जाने वाले की भी देखभाल करती थीं जो उनके यहाँ निरंतर आने का सिलसिला बनाए रखते थे। वे बंगाली और एंग्लो इंडियन, दोनों प्रकार के खाने बनाया करती थीं। यह उस भौगोलिक क्षेत्र और रेलवे संस्कृति का मिलाजुला प्रभाव था। सूप और बेक्ड व्यंजनों के साथ-साथ मटन कोरमा, विंडालू और मछली मोइली बनती थी जिसे चावल के साथ खाया जाता था और सूप, कटलेट और स्टू को पावरोटी के साथ। मेरी नानी शानदार बेकिंग करती थीं। वे क्रिश्चियन थीं इसीलिए ईस्टर और क्रिसमस पर्वों पर पूरे परिवार को त्योहार मनाने के लिए खाना पकाने, मदद करने और व्यंजनों को चखने का मौका मिल जाया करता था। हम आतुर रहते थे कि बड़ा दिन कैसे जल्दी से जल्दी आ जाए। क्रिसमस केक बनाने के लिए काजू , किशमिश, संतरे के सूखे छिलके और तरह-तरह के मेवे कलकत्ता, बंबई और दिल्ली की खास दुकानों से आया करते थे। टिन के डब्बों में कुलकुल भर दिए जाते थे। वे मीठे, नमकीन हुआ करते थे। तरह-तरह की मिठाइयों, टार्ट, कैंडी और फलों की शक्लों वाले रंगीन मार्ज़ीपान की बहार आ जाती थी। मेरी माँ और उसके भाई-बहन अपनी माँ के रसोईघर में खिंचे चले जाते थे और वहीं जब एक बार उन्होंने अपनी माँ को मुँह में कुछ चबाते हुए पाया था तो जिज्ञासापूर्वक पूछा था – “तुम क्या खा रही हो माँ?” इस सवाल से थोड़ा चिढ़ कर उनकी माँ ने अपना मुँह पूरा खोल दिया था उन्हें दिखलाने के लिए- “चावल का एक सूखा दाना-बस !”
मेरी माँ की शादी 1946 में, सेना से जुड़े परिवार में हुई थी। जल्द ही माँ ने घर की खाने की मेज़ को कम पैसों में कुशलता से समृद्ध बनाना शुरू कर दिया। मेरे पिता नौसेना में लेफ्टिनेंट थे। वे दिल्ली में रहते थे।उन दिनों सेना परिसर में रहने वाली पत्नियाँ व्यंजनों की विधियाँ, गोपनीय पारिवारिक रहस्य, और पतियों की सीमित तनख्वाह के बावजूद बेहतर साज- सज्जा और फैशन के हुनर आपस में खूब साझा किया करती थीं। भारत की आज़ादी के बाद नौसेना का कद बढ़ने लगा था और पत्नियों के पतियों की भी तरक्की होने लगी थी। इससे पत्नियाँ भी और गुण सम्पन्न नज़र आने लगी थीं। मेरी माँ सादा थी लेकिन वह अपने घर को गर्मजोशी से चलाया करती थी और बढ़िया खाने का इंतज़ाम रखती थी। युद्ध के बाद मेरे पिता का तबादला लंदन हो गया और माँ भी उनके साथ वहीं रहने चली गई । उस वक़्त वह सिर्फ 20 बरस की थी, वहाँ जाकर वे स्वयंसेवक बन गईं । वहाँ उसने ऐसे–ऐसे खौफ़नाक मंज़र देखे, जैसे उस दौर के अनेक युवाओं ने अपनी–अपनी ज़गह रहते हुए देखे-चाहे वे इंग्लैंड में रहा करते थे, या पंजाब–भारत में या फिर पाकिस्तान में। चारों ओर खाने-पीने रसद की बेहद कमी थी जिसकी वजह से सभी को त्याग करना पड़ता था और मर्यादा का उदाहरण पेश करना पड़ता था।
जब कुछ बरसों बाद माँ भारत लौटी तब पिता की महाराष्ट्रीयन जड़ों को ठीक से समझने लगी। तभी उसने अपने पति की माँ के हाथ के स्वादिष्ट खाने के रस को भी समझा। मेरी दादी के खाने रोजमर्रा के खालिस महाराष्ट्रीयन खाने और कुछ यहूदी–भारतीय मिश्रित खाने की परंपरा से उपजे खाने थे जिन्हें विशेष दिनों में खाना शुभ माना जाता था। यह सब देख -समझ माँ को लग गया कि उसे नए सिरे से सब सीखने की ज़रूरत है। उसकी सबसे छोटी ननद ( जिसकी शादी भी नौसेना परिवार में हुई थी ) ने मेरी माँ को अपनी माँ के दिल तक जाने वाले रास्ते से मुलाकात करवाई और उसके बेने- इस्राइली-महाराष्ट्रीयन घर के बारे में तफ़सील से बताया। सारे बच्चे और नाती–पोते उसे मामा के नाम से ही पुकारा करते थे। मामा, दूसरी महाराष्ट्रीयन औरतों के तरीके से ही खाना पकाया करती थी। वह फर्श पर डली नीची चौकी पर बैठ जाती थी और सामने रखी नीची अँगीठियों पर खाना पकाती थी। एक दिन की बात याद आती है- उसके रसोईघर से उठती पुलाव और रसेदार हरे-मसाले पोमफ्रेट की खुशबू कैसे मेरी नसों में उतराती चली गई थी! उस दिन साथ में उसकी मदद के लिए उसकी भरोसेमंद बाई (सहायिका) बैठी थी। मामा अपने हाथों से बड़ी-बड़ी पतली रोटियाँ बना रही थी और बाई घरेलू आइसक्रीम मशीन की बाल्टी में ढेर सारी आइसक्रीम फेंट रही थी जिससे हम सभी इकट्ठा हुए 25 भाई-बहनों को भरपूर मात्रा में स्वादिष्ट आइसक्रीम खाने को मिल सके।
इसी तरह याद आता है बचपन में, अपनी माँ के साथ क्रॉफोर्ड मार्केट जाकर अचार और मीठी चटनी बनाने के लिए हरे आम की खरीदारी करना-मेरे लिए कितना मज़ेदार भ्रमण हुआ करता था! बाजार में मेरी माँ, आम बेचने वालों से देर तक बतियाती थी।
जब 1958 में हम खड़कवासला चले आए तो हमने पहली बार ‘चूसा ‘ का मज़ा उठाया। ‘चूसा ‘ छोटे चूसने वाले आम थे, जिनके अंदर भर पेट रस और रेशेदार गूदा होता था। माँ आमों की आमद के बाद हमारे कपड़े उतरवा देती थी और सिर्फ चड्डी पहन हम बच्चे, अपने पुराने बाथ टब में भरे हुए आमों को धूप में बैठ कर, मन भर चूसा करते थे।
आप देख सकते हैं मुझे खाने के किस्से याद हैं, व्यंजन बनाने की विधियाँ नहीं!
Leela (extreme right) with parents & siblings
जब मैं दस बरस की हुई तो चेन्नई के बाहरी इलाके में एक आश्रम जैसी जगह पर रहने लगी थी । मैं 5 बजे सुबह उठती थी, ठंडे पानी से नहाती थी, पावाड़ई-सट्टाई पहनती थी, 6 बजे भारत-समाज के नियम दुहराती थी और जो सबसे अच्छी बात थी–मैं सुबह के नाश्ते में पोंगल, इडली, सांबर और चटनी खाती थी। मैं पॉरिज और टोस्ट खाना भूल ही गई थी। खूब सारा शाकाहारी खाना खाने के बाद और हर धर्म की प्रार्थनाएँ दुहराने के बाद मैं जल्द ही लंबी और ताकतवर हो गई। अपनी प्रेरणास्रोत डॉक्टर पद्मासिनी की तर्ज़ पर मैं ज़ोर-ज़ोर से जोशीली आवाज़ में भजन गाया करती थी और परिसर में लगे इमली के पेड़ों पर तड़-तड़ चढ़ जाया करती थी। आखिर इस तरह के मज़े करना सिर्फ लड़कों का पैदाइशी हक क्यों होना चाहिए? इसके अलावा खाली बचे वक्त में, मैं भरतनाट्यम सीखा करती थी और स्कूल में पढ़ने भी जाया करती थी।
इसके 7 बरस बाद और फिर 7 बरस बाद जब मैं लौटी तो उसी स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय व्यंजन को खाकर खूब तंदरुस्त और खुश रहती थी। बस फलों की कमी महसूस होती थी। लेकिन इस खुशी के साथ ही मैं उन दिनों अजीब सी दुविधा में रहने लगी थी – अपने संभ्रांत सहोदर भाई–बहनों और अभिजात्य लोगों की तरह खाऊँ और पहनूँ या जहाँ हूँ वहीं पर मिलने वाली जीवन पद्धति को खुशी से भरपूर जियूँ? शाकाहारी बनूँ या मांसाहारी इसकी भी भारी कश्मकश थी। यह कश्मकश जीवन में बरसों चली और इसकी वजह से ऐसा होता था कि मैं लंबे अरसे तक शाकाहारी बनी रहती थी फिर एकाएक मांसाहारी हो जाती थी। मेरी पैदाइश ज़िद्दी नक्षत्र से प्रभावित थी, लिहाज़ा मैं माँस अपनी मर्ज़ी से छोड़ना चाहती थी, सिर्फ इसलिए नहीं कि यह मेरे गुरु का आदेश था। आपको अंदाज़ा लग रहा है न-मेरे प्रशस्त अहं का अब?
Leela Samson with her guru, Rukmini Devi Arundale
मैं जब नवसंस्कारित हो, पोरियाल, सांबर, रसम, कुज़हाम्बू और पायसम की दुनिया के मज़े में जी रही थी तब किसी ने भी मुझे सावधान नहीं किया था कि मैं कितने स्टार्च उर्फ़ चावल के माँड़ को भी अपने अंदर भर रही हूँ। इन स्वादिष्ट व्यंजनों के संग हमेशा भात तो खाना ही होता था ना!
लेकिन अब तक मैं, पूरी तरह से पूजा- श्लोक- संकल्प और संप्रदाय की सुसंस्कृत दक्षिण भारतीय जीवन पद्धति में रच-बस गयी थी। चंद्रमा के घटने-बढ़ने की गणना पर आधारित साल भर होने वाले पर्वों और शुभ दिनों के पीछे के तर्कों में यकीन रखने लगी थी। हर शुक्रवार को मरूनदीश्वरा मंदिर पर होने वाले भजनाई कार्यक्रम, यात्राएँ और तमिलनाडु के मंदिरों की परिक्रमा मुझे ज़रूरी लगने लगी थी। ये सारे क्रियाकलाप कहीं-न-कहीं मेरे अंदर की नृत्यांगना को सिरजते- पोसते थे।
लेकिन अब लगता है कि सबकुछ बताने के क्रम में, बेहतर होता कि हमें यह भी बतलाया जाता कि एक नृत्यांगना को अपनी शुद्ध खुराक में से किन-किन चीजों को घटा अथवा हटा देना है। मसलन सफेद चावल, सफेद मैदा, सफेद चीनी और सफेद नमक सब कम–से-कम खाना चाहिए, इसकी जानकारी होनी चाहिए थी। बरसों बाद मैंने अपने खान–पान में खुद ही तब्दीली कर ली और चावल के बदले–सेवइयाँ, दलिया, सूजी, पोहा, मोटा अनाज, चोकरयुक्त आटा मल्टी ग्रेन ब्रेड और स्वादिष्ट साउरडॉ खाने लगी। नृत्य करने वाले कलाकारों को अपनी परंपरा अनुसार अपने खाने–पीने में पुष्ट बदलाव करने चाहिए। इसके लिए हमें कुछ पीढ़ियाँ पीछे लौट कर जाना होगा, अपने नए अर्जित स्टैटस से कुछ कदम नीचे उतरना होगा और पौष्टिक खाने की संपूर्ण चीजें और विधियाँ एक रहस्य के उद्घाटन समान रोशन ढंग से दिखलाई पड़ने लगेंगी; जैसे एक अधपकी सब्ज़ी या फल के गुणों से भरा व्यंजन जो कच्चे सलाद के बदले खाया जा सकता है, जिसमें सुविधा और मन मुताबिक़ हम अंकुरित अनाज, या सूखे मेवे–फल डाल कर या दही में फेंट कर खा सकते हैं। इन प्राकृतिक आसानी से उपलब्ध चीज़ों के अलावा हम सुविधानुसार आज के प्रचलित फैशनेबल महँगे अनाज, जैसे – किनोआ भी खा सकते हैं और अपने खाने को सुरुचिपूर्ण और पौष्टिक बना सकते हैं।
Leela Samson during a recital
मेरे बचपन का सपना डॉक्टरी पढ़ने का था। मैं सर्जन बनाना चाहती थी। लेकिन उस दौर की शिक्षा-व्यवस्था की वजह से नहीं बन पाई। जीव विज्ञान विषय हमें पढ़ाया ही नहीं जाता था। लिहाज़ा अब मुझे नृत्यांगना ही बनना था और 16 बरस की उम्र में कलाक्षेत्र छोड़ कर जाना था। मैंने तभी यह सच जाना था कि इंसान के शरीर की फिटनेस सिर्फ स्वस्थ अनुवांशिकी या खेलों के प्रति नैसर्गिक खिंचाव के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती है। उसके लिए तो बरसों–बरस समर्पित प्रयास करने होते हैं। सुडौल शरीर मुफ़्त में हासिल नहीं होता है! इसे पाने के लिए या तो भारतीय परंपरा के अद्भुत व्यंजन त्याग दें या फिर जम कर कसरत करें। पहला विकल्प मुझपर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि मैं वृषभ राशि से हूँ और खाने से बेइंतहा प्यार करती हूँ।
9 बरस की उम्र से मैं रेलयात्रा कर रही हूँ। माँ–पिताजी बंबई में रहते थे और मैं मद्रास में, जहाँ मेरा स्कूल था। उसके बाद मैं नृत्य के प्रदर्शनों के लिए भी उन जगहों पर जाने लगी जहाँ बहुत कम पैसे मिलते थे। उन दिनों रिकॉर्डिंग का आज की तरह कोई विकल्प भी नहीं था। मैंने इस देश के अनेक रेलवे प्लेटफॉर्म इस तरह देखे हैं और हर प्रदेश के खास व्यंजनों का यूँ ही आनंद उठाया है। पूरी–आलू लखनऊ स्टेशन पर पत्ते के दोनों में,अंगूरी और केसर पेठा आगरा स्टेशन पर, कुल्हड़ों में चाय तो हर स्टेशन पर मिलती थी। खासतौर से सर्दी के भारी ठंडे दिनों में जब हम 5 बजे भोर में भोपाल, मध्य प्रदेश पहुँचते थे तो यह चाय बहुत प्यारी लगती थी। पालघाट स्टेशन केरल पर भी इसी तरह के स्वादिष्ट व्यंजन हमारा स्वागत करते थे। सबसे मज़े की बात थी कि दक्षिण पहुँचो तो गरमागरम इडली और दोसा मिलता था और उत्तर के प्लैटफ़ॉर्मों पर भरवां पराठा और उम्दा दही । सर्दियों के उन दिनों की निस्तब्धता, कम्पार्टमेन्ट में सभी सोये हुए सहयात्रियों की चुप्पी आज भी मुझे बहुत याद आती है।
जब 1975 में मैं दिल्ली में बसने आ गई तो पहले पहल मैं सुजान सिंह पार्क वाले इलाके में बतौर पेइंग गेस्ट रहती थी और मुझे खाना खाने बाहर जाना होता था। यह सब समझौते आपको अपनी ज़िद और आज़ाद-आत्मनिर्भर तबीयत की वजह से करने पड़ते हैं। मुझे खाने को लेकर यह समझौता सुहाता नहीं था फिर भी करना पड़ा था। जैसे ही मुझे कमानी ऑडीटोरियम के नज़दीक स्थित भारतीय कला केंद्र में रहने की जगह मिली मैंने सबसे पहले जाकर अपनी रसोई के लिए बर्तन खरीदे और भूषण लखंदरी, जिसकी रसोई मेरी खिड़की के सामने खुलती थी-उसी से खाना बनाने की शिक्षा लेने लगी। वह ज़ोर से चिल्लाता था- “अच्छा दीदी, तेल में अब जीरा डालिए, फिर चावल, दाल और सब्ज़ियाँ–जो भी हैं, पानी डालिए, प्रेशर कुकर बंद कीजिए। खोल के बस घी डालके खाइए। मज़ा आ जाएगा।”
अंततः यह मेरा घर बन गया था! यहाँ जो भी मैं बनाती थी वह अपने अशिक्षित हाथों से बनाती थी। त्रिनिदाद, रीयूनियन, ढाका, चीन और दूर-दराज़ से आए छात्र मेरे खाने को कैन्टीन के राजमा-चावल से बेहतर मानते थे। वह तो बाद में समझ में आया कि तारीफ यूँ ही हो जाया करती थी उसका वास्तविकता से ज़्यादा लेना–देना नहीं था।
Leela with young disciples
उन दिनों मेरे बेहद अच्छे दोस्त हुआ करते थे, जो उतना ही अच्छा खाना भी पकाते थे। कमला और मीतू , विद्यालया, अदिति और जय, माला और जुगनू, सुंदरम्स, पूर्णिमा और माधवी एवं विनय। ढेर सारी गप्पों के साथ हम अद्भुत स्वाद भरे व्यंजनों का कितना आनंद उठाते थे क्या कहूँ! युवा एवं बड़ी उम्र के सभी लोग एक साथ हँसते–हँसाते हुए खाने का लुत्फ उठाते थे। इतने खुशनुमा दिन फिर नहीं लौटे! और तो और आपातकाल के मुश्किल दिनों की गंभीर चर्चाएँ भी उन दिनों हम इतनी ही शिद्दत से किया करते थे।गोल-डाकखाना के पास वाले गुरुद्वारे में भी हम अपने सिख-बंधुओं के साथ मत्था टेकने जाते थे और बाद में स्वादिष्ट प्रसाद खाते थे।
जो भी कलाकार, संगीतकार, संगतराश, चित्रकार, नर्तक, भारतीय कला केंद्र, त्रिवेणी कला संगम, कथक केंद्र और राष्ट्रीय नाट्य संस्थान से पढ़ कर निकलते थे और मंडी हाउस के इर्द-गिर्द रहा करते थे, वे वहाँ मिलने वाले पान, रम और ड्रग्स से परिचित तो थे ही इसके साथ ही वे बंगाली मार्केट की चाट के भी उतने ही बड़े रसिया हुआ करते थे। मैं वहाँ 30 साल रही और इस बीच कट्टर चाटिया बन चुकी थी-गोलगप्पे, दही पापड़ी, छोले भटूरे कचोरी, टिक्की, और लस्सी शाम की मेरी नियमित खुराक थे। वैसे अगर ऐसी चीजें सुलभता से हासिल हों तो कौन खाना पकाने की ज़हमत उठाए?
अब आज की बात-यात्राएँ कलाकार की अनुशासित दिनचर्या में आज कैसे घुसपैठ करती हैं और उन्हें असंतुलित कर देती हैं यह सोचनीय हो गया है। दरअसल होटल का खाना हमारे लिए अच्छा नहीं होता। मैं नहीं जानती क्यों, लेकिन वह अच्छा नहीं होता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि आप बहुत पैसे कमाने वाले सितारे हैं या कम पैसे कमाने वाले युवा नर्तक; आप भीड़ भरी सड़क के होटल के एक कमरे में ठहर रहे हैं या 5 सितारा होटल के भव्य कमरे में–कहीं का भी खाना घर के दाल–चावल का मुकाबला नहीं कर सकता है। जैसे–जैसे आपकी उम्र बढ़ती जाती है इस तरह का रुकना और मुश्किल होता जाता है। देश से बाहर के दौरों में भी ऐसी ही मुश्किल आती है। आपके मेज़बान को सहूलियत होती है तो वह–सांबर-सादम, पुलियाँ-सादम, थाईर सादम और चिप्स तैयार कर परोस देता है और सब्ज़ी कहीं नजर ही नहीं आती है।
Working in her kitchen
Photo credit – Aarathi Ganesan
जहाँ तक मेरी बात है मैं अपने नृत्य प्रदर्शन से पहले सादा खाना, खाना चाहती हूँ जिसमें कम तेल और मिर्च हो। कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं सूप लेती हूँ। इसके अलावा मुझसे कुछ खाया नहीं जाता है। कार्यक्रम के बाद वैसे भी मैं अनेक तरह के भावों से भरी हुई होती हूँ, खाने की गुंजाइश उसमें कहाँ से हो? गाँधी जी ने कहा है – हर इंसान को जीवित रहने के लिए मुट्ठी भर अन्न चाहिए। यदि हम अपने शरीर की भाषा समझेंगे तो समझ पाएँगे –“इतना खाना काफ़ी है। ये चीज़ें तुम्हें तंग करती हैं, हाजमा बिगाड़ देती हैं। ये चीज़ें तुम्हें स्वस्थ और खुश रखती हैं। इतनी मात्रा में खाना तुम्हारे लिए काफी है। बाकी अति भोग है, शुद्ध विलासिता!”
Photo credit – Aarathi Ganesan